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‘तूफाँ की ज़द में’ (ग़ज़ल संग्रह) : एक दृष्टि
युवा लेखक, कवि व कहानीकार शिवनाथ शीलबोधि का कहना है कि ग़ज़ल के अर्थ को यदि एक शब्द में रूढ़ करना हो तो मैं ये कहूंगा कि गजल दिल और दिमाग में मचलती वो विचारधारा है जो अव्यक्त से व्यक्त होने को बेताब होती है। ग़ज़ल में अभिव्यक्ति झरने सी गिरती होती है। ग़ज़ल का प्रवाह मैदान में दौड़ती नदी-सा नहीं होता। इसलिए ग़ज़लकार बेशक शांत स्वभाव के दिखते हों, भले ही मौन लगते हों लेकिन होते बड़े ही तीखे और मुखर। ‘तूफां की ज़द में’ के रचनाकार तेजपाल सिंह ‘तेज’ इससे रत्तीभर भी अलग नहीं हैं। शोषण, विषमता और दलन के हर संस्कार को निचोडा हैं उन्होंने ‘तूफां की ज़द में’ संग्रहित अपनी ग़ज़लों में। बानगी देखें…..
फिक्र के मारे फिक्र छुपाने लगते हैं,
बे – फिक्री की दवा बताने लगते हैं।
घुटमन चलने पर तो नन्हें-मुन्ने भी,
दादी – माँ से हाथ छुड़ाने लगते हैं।
मिलती नहीं तवज्जो जिनको अपनों से,
कि वो गैरों से हाथ मिलाने लगते हैं।
बात बिगड़ने पर अपने भी अपनों को,
जब चाहें तब आँख दिखाने लगते हैं।
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परिवर्तन की आड़ में जैसे घोड़ी चढ़ी शराब,
नई संभ्यता के आँगन में जमकर उड़ी शराब।
लेकर खाली प्याला-प्याली थोड़ा सा नमकीन,
बचपन को बोतल में भरकर औंधी पड़ी शराब।
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कोई शोषण को किस तरह से देखता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह किस तरह के दुखों से पीडि़त है। होता यह भी है कि कभी कभी आदमी खुद ही अपना शोषक हो जाता है, ऐसा तब होता है जब जीवन की आपा-थापी में वह खुद की उपेक्षा करता चलता है।…
खुद अपने से हार गया मैं,
हर लम्हा लाचार गया मैं।
लेकर खाली जेब न जाने,
क्या करने बाजार गया मैं।
खुद ही मैंने बाजी हारी,
वो समझे कि हार गया मैं।
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दुनिया से जो जुड़ा-जुड़ा है,
खुद से पर वो जुदा-जुदा है।
कल तक दुनिया पर हावी था,
आज वो खुद से डरा-डरा है।
जीने की आपा – धापी में,
खुद ही यम का रूप धरा है।
सामाजिक जीवन में शोषण की अनंत परिस्थितियों का स्वीकार कवि इसलिए व्यक्त करता है ताकि वह और समाज शोषण मुक्त रह सके, लेकिन होता इसके बिल्कुल विपरीत है। परम्परा और रिवाज के नाम जैसी सामाजिक व्यवस्था में हमें ढलना होता है, वह खुद बड़े और कष्टकारी शोषण को हम पर लाद देती है। कोई हिन्दू है तो कोई मुसलमान, यह केवल नजरिया है, वास्तविक सच्चाई नहीं है क्योंकि वास्तविक सच्चाई तो यह है कि हम केवल इंसान हैं। अलग-अलग धर्म अलग-अलग तरह का चश्मा भर है। इसलिए ‘तेज’ कहते हैं …
अभी तो कुछ और तमाशे होंगे,
बस्ती – बस्ती में धमाके होंगे।
कहाँ सोचा था ये, कि उनके,
इतने भी नापाक इरादे होंगे।
सच को धरती पे लाने के लिए,
ज़ाया कुछ और जमाने होंगे।
धर्म और राजनीति के स्वार्थ आपस में षड्यंत्रकारी रूप से जुड़े होते हैं, अक्सर तो बहुत ही सुदृढ़ व्यवस्था दोनों के बीच में होती है। इसको ध्वस्त करना मुश्किल होता है। जनता आमतौर पर इसे नियति मान कर मौन हो जाती है। लेकिन जागरूक आदमी इस गुपचुप चोरी के खिलाफ एक शोर उठाने की कोशिश करता है। बेशक यह निरर्थक जान पड़े, लेकिन इस प्रकार की इंसानी कार्यवाहियों ने हमेशा सामाजिक परिवर्तन को पैदा किया है –
” गली-गली नेता घने, गली-गली हड़ताल, संसद जैसे बन गई, तुगलक की घुड़साल।
राजा बहरा हो गया जनता हो गई मौन,
‘तेज’ निरर्थक भीड़ में बजा रहा खड़ताल।
अकेले इंसान के दुख भी अक्सर अकेले नहीं होते हैं। क्योंकि एक जैसे दुखों को जब अधिसंख्य लोग भोग रहे होते हैं, तब यह स्व-शोषण की मार होती है। इसका रूप चाहे भूख हो या बेरोजगारी या औरत की घर में आए दिन की चैचै-पैंपैं। अक्सर ऐसे दुख और शोषण की मार को हम अकेले ही झेल रहे होते हैं। इसलिए ‘तेज’ के तेवर में आया है कि मुझमें अकेले लडने की जिद्द तो है लेकिन यह लड़ाई तो समूहबद्ध होकर ही लड़ी जा सकती है इसलिए वे कहते हैं –
आज नहीं तो कल, मैं चश्मेतर में रहूँगा,
न सोचिए कि मैं सदा बिस्तर में रहूँगा।
एकला चलने की कसक खूब है लेकिन,
है मन मिरा कि अबकी मैं लश्कर में रहूँगा।
कुल मिलाकर कहना चाहूंगा कि दुख और शोषण के बहरूपी चेहरे से साक्षात्कार करना चाहते हैं तो तेजपाल सिंह ‘तेज’ के इस ग़ज़ल संग्रह ‘तूफां की ज़द’ के अलावा उनके बाकी के गजल संग्रहों को भी पढ़ डालिए। ‘तूफां की ज़द में’ तेजपाल सिंह ‘तेज’ का पांचवा सचित्र ग़ज़ल-संग्रह है। कुमार हरित और मोर्मिता बिश्वास के रेखांकन इसे और भी प्रभावी बनाया है।
शीलबोधी
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मैं दलित साहित्य पढ़ने में रुचि रखा हूं।
कुंवर नाज़ुक✍️