09 अगस्त का भारत बन्द : कहीं ये राजनीतिक उपक्रम ही तो नहीं?

भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह व भारत के प्रधान सेवक अपनी किसी भी सभा में यह कहने से नहीं चूकते कि भाजपा दलितों के साथ है। किंतु वर्तमान भाजपा सरकार द्वारा बजरिए सुप्रीम कोर्ट अनुसूचित जाति (एससी)/अनुसूचित जनजाति (एसटी) अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 को कमजोर करा दिया गया। कहनेको ये सुप्रीम कोर्ट का फैसला कहा जा रहा है।  और जब 02 अप्रैल 2018 को भाजपा के इस पराक्रम के खिलाफ दलितों/ओबीसी/अल्पसंख्यकों  द्वारा सामूहिक आन्दोलन किया गया तो इसी भाजपा सरकार ने दलितों/ओबीसी/अल्पसंख्यकों के अनेक नौजवानों को झूटे मामले बनाकर जेलों में ठूंस दिया गया। बहुत से तो आज तक जेल की सलाखों के पीछे हैं।
भाजपा के दो ही कर्णधार हैं जो बारबार यह आश्वासन देने से नहीं चूकते कि केंद्र सरकार दलित समुदाय के प्रत्येक अधिकार की रक्षा करेगी। भाजपा प्रमुख ने एक साथ कई ट्वीट करते हुए कहा, ‘सरकार दलितों के प्रत्येक अधिकार की रक्षा करेगी और उनकी आकांक्षाओं को पूरा करना जारी रखेगी।….’ किंतु धरातल पर उनकी घोषणा के विपरित ही काम हो रहे हैं। काफी शोरशराबे के बाद माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एससी/एसटी एक्ट पर आदेश देने के दिन से ही केंद्र सरकार तत्काल और सजगता के साथ सक्रिय तो हो गई। और आनन-फानन में सुप्रीम कोर्ट में समीक्षा की गुहार कर डाली किंतु सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस मसले को ठंडे बस्ते में ही डाल दिया गया। हुआ यूँ कि समाज में दलितों/ओबीसी/अल्पसंख्यकों के खिलाफ और भी भयावह घटनाएं घटने लगीं हैं।
अमित शाह का ये कहना कि सरकार द्वारा एससी/एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम  में संशोधन कर वास्तव में उसे और शक्ति प्रदान की है, किसी अत्यंत ही भद्दे मजाक से कम नहीं है। कमाल की बात तो ये भी है कि सुप्रीम कोर्ट के जिस जज आदर्श गोयल ने ‘उदय ललित’ के साथ मिलकर SC,ST एक्ट को बर्बाद कर दिया, उसे सेवा निवृत्त होते ही  नरेंद्र मोदी सरकार ने ‘नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल’ के चेयरमैन जैसे मालदार पद पर अगले पांच साल के लिए बैठा दिया। फिर ये कैसे मान लिया जाय कि एस सी/एस टी एक्ट को कमजोर करने में मोदी सरकार का हाथ नहीं है? क्या इसके बाद भी SC-ST को आगामी चुनावों अपनी भूमिका तय नहीं करनी चाहिए? कहने को तो भाजपा डॉ. भीमराव अंबेडकर के सपने को पूरा करने को भाजपा की प्रतिबद्धता बताती है पर करती कुछ नहीं।
आगे चलने से पूर्व हम जानने की कोशिश करते हैं कि आखिर अनुसूचित जाति (एससी)/अनुसूचित जनजाति (एसटी) अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 है क्या। अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम को 11 सितम्बर 1989 में भारतीय संसद द्वारा पारित किया गया था, जिसे 30 जनवरी 1990 से सारे भारत (जम्मू-कश्मीर को छोड़कर) में लागू किया गया था। यह अधिनियम उस प्रत्येक व्यक्ति पर लागू होता है जो अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं है तथा वह व्यक्ति इस वर्ग के सदस्यों का उत्पीड़न करता है। इस अधिनियम में 5 अध्याय एवं 23 धाराएं हैं। यह कानून अनुसूचित जातियों और जनजातियों में शामिल व्यक्तियों के खिलाफ अपराधों को दंडित करता है। यह पीड़ितों को विशेष सुरक्षा और अधिकार देता है। इसके लिए विशेष अदालतों की भी व्यवस्था होती है। यह है संक्षिप्त हवाला अनुसूचित जाति (एससी)/अनुसूचित जनजाति (एसटी) अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 का।
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के उपरांत भाजपा सरकार में मंत्री पद पर विराजमान दलित नेता पासवान ने यह कहकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री करली कि सरकार अनुसूचित जाति (एससी)/अनुसूचित जनजाति (एसटी) अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 को पुन: अपने प्राथमिक रूप में बनाए रखने के लिए ‘अध्यादेश’ लाएगी। किंतु अभी तक तो ऐसा कुछ हुआ नहीं है। इतना ही नहीं पासवान ने जेलों में बन्द दलितों की रिहाई के लिए एक बयान तक भी जारी नहीं किया।
और अब जबकि लोकसभा के चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं तो पासवान अपने बेटे चिराग पासवान को आगे करके व अन्य दलित सांसदों को बैसाखी बनाकर अपनी राजनीतिक जमीन को पुख्ता करने का पैंतरा चलने पर उतर आए हैं। मुझे याद आ रहा है कि एक बार लालू प्रसाद यादव ने रामविलास पासवान के बारे में कहा था कि आज के राजनीतिक माहौल में बहुत से राजनेता मौसम वैज्ञानिक बनकर उभरे हैं जो जिस मौसम को अपने हक में समझते हैं, उसी की ओर हो लेते हैं। रामविलास पासवान उनमें सबसे शीर्ष पर हैं। वही पासवान फिलहाल अपने बेटे चिराग पासवान को आगे करके लालू यादव के मत की पुष्टी कर रहे हैं। उनकी चहेती खरपतवार संस्थाएं भी उनकी हाँ में हाँ मिलाने पर उतर आई हैं। 09.08.2018 को राजनीतिक “भारत बन्द” में भाग लेने को ललायित हैं।
दैनिक जागरण : 27.07.2018 के अनुसार, “एससी-एसटी एक्ट मामले में अध्यादेश लाने को लेकर विपक्ष के साथ-साथ राजग सहयोगी लोजपा की ओर से दबाव तो बढ़ रहा है, लेकिन सरकार कोर्ट का इंतजार करेगी। दरअसल, सरकार ऐसा कोई संकेत देना नहीं चाहती कि वह कोर्ट को खारिज कर रही है। चुनावी माहौल में अब सरकार पर दूसरी तरह से दबाव बनाया जा रहा है। दो दिन पहले लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) की ओर से एनजीटी अध्यक्ष के रूप में जस्टिस आदर्श कुमार गोयल की नियुक्ति का विरोध किया गया था। उसका कहना था कि उन्होंने ही एससी-एसटी एक्ट को कमजोर किया था और उनकी एनजीटी में नियुक्ति से गलत संदेश जाता है। गुरुवार को लोकसभा में भी विपक्ष की ओर से यह मुद्दा उठाकर सरकार को घेरने की कोशिश हुई।
कांग्रेस नेता मल्लिकाजरुन खड़गे और अन्य सदस्यों ने आरोप लगाया कि सरकार गोयल को पुरस्कृत कर रही है। सदन में मौजूद केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान भी कुछ बोलने की कोशिश करते दिखे। हालांकि उन्होंने ऐसा किया नहीं। बल्कि वह विपक्ष के एक सांसद और संसदीय कार्य राज्यमंत्री अजरुन राम मेघवाल से बातचीत करते देखे गए। खड़गे ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) का मुद्दा भी उठाया जिसके तहत नियुक्ति में विश्वविद्यालय के बजाय विभाग को यूनिट माना जा रहा है। उन्होंने इसे भी दलित विरोधी बताया। वहीं, संसदीय कार्यमंत्री अनंत कुमार की ओर से साफ किया गया कि सरकार ने पहले ही यूजीसी के निर्देश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दे दी है क्योंकि यह कोर्ट के आदेश पर ही हुआ था। उन्होंने आरक्षण को लेकर भी सरकार के संकल्प को दोहराया। वहीं, सूत्रों की मानें तो सरकार कोर्ट को एक मौका देना चाहती है। वैसे भी इस मामले पर सुनवाई के लिए अब नई पीठ बननी है। ऐसे में थोड़ा विलंब हो सकता है।”
“ऐसे में थोड़ा विलम्ब हो सकता है।” से सिद्ध होता है कि रामविलास पासवान और उनके सहयोगियों की 09.08.2018 को भारत बन्द की घोषणा नितांत राजनीति से प्रेरित है। यह भी कि 09.08.2018 का भारत बन्द यदि होता है तो 02.04.2018 को आयोजित बन्द से निम्नतर ही होगा क्योंकि वह आन्दोलन पूरी तरह से एक सामाजिक आन्दोलन था और 09.07.2018 को बुलाया गया भारत बन्द का आयोजन न केवल पूरी तरह राजनीतिक है अपितु इसके वाहक दलित सांसद और दलित संस्थाएं भाजपा को अपनी शक्ति दिखाकर अपनी-अपनी सीटें पक्की करने का उपक्रम कर रहे हैं। अन्यथा 02.04.2018 के भारत बन्द पर इस सांसदों ने कोई टिप्पणी क्यों नहीं की थी? खेद की बात है कि जब ये सांसद 02.04.2018 के आन्दोलन को विपक्षी दलों की साजिश मानकर बैठे हुए थे। आज चिराग पासवान कहते है कि सरकार 09.08.2018 के भारत बन्द को विपक्ष की साजिश न समझे। और जिस जस्टिस गोयल ने एससी/एसटी एक्ट को लेकर फैसला दिया था, उसके खिलाफ दलितों में गोयल को एनजीटी चेयरमैन बनाए जाने को लेकर गुस्सा है और इसको लेकर 9 अगस्त को होने वाला दलितों का विरोध प्रदर्शन 2 अप्रैल से भी ज्यादा आक्रामक होगा।
अब माँग की गई है कि ए. के. गोयल को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के चेयरमैन पद से तुरंत बर्खास्त किया जाय तथा संसद के इसी मानसून सत्र में SC/ST (अत्याचार निवारण) अधिनियम पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ संशोधित बिल लाया जाए, जिसमें अनुसूचित जाति और जनजातिय की सुरक्षा को फिर से बहाल किया जा सके। अगर इसमें किसी भी तरह की अड़चन आती है, तो संसद के सत्र को 10 अगस्त की जगह आठ अगस्त को समाप्त कर इस पर अध्यादेश लाया जाए। किंतु मेरी नजर में यह कतई भी संभव नहीं है क्योंकि सरकार पहले से ही कोर्ट को और समय देने का मन बना चुकी है।
हाँ! इतना जरूर है कि इस प्रकार की आवाज उठाने वाले ये मानने लग गए है कि लोकसभा चुनाव से पहले मोदी सरकार बीच मझधार में फंस गई है। इस मसले को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की चिंता बढ़ गई है। इसकी वजह यह है कि इस मुद्दे पर मोदी सरकार द्वारा किसी भी तरह का कदम ठीक नहीं है, क्योंकि यह मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है।….. किंतु ऐसा लगता नहीं कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और प्रधान सेवक की समाज विरोधी सोच जगजाहिर है। इसलिए  इस प्रकार की चेतावनी का कोई प्रभाव पड़ेगा। इसके अलावा ए. के. गोयल को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के चेयरमैन पद से हटाने की मांग को मानना भी मोदी सरकार के लिए आसान नहीं है। वह इसलिए क्योंकि अगर सरकार ऐसा करती है, तो यह संदेश जाएगा कि सरकार ने अपने घटक दल के दबाव में आकर ऐसा फैसला लिया है।
सारांशत: मुझे तो लगता है कि मनुवादियों के गुलामों ने प्रेस कांफ्रेंस के जरिये फिर बहुजनों को क्षणिक लालच की जंजीरे पेश करके न केवल उन्हें मूर्ख बनाने की साजिश है, अपितु अपने राजनीतिक हितों को साधने का एक उपक्रम है। मनुवा गुलामो ने प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाकर फिर से बहुजनोक ो लालच की जंजीर में फंल नहीं होने देंगे । मनुवादियों के गुलामो ने प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाकर फिर से बहुजनोक ो लालच की जंजीर में फंसाने का षड्यंत् । इसे सफल नहीं होने देंगे ।
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