नई दिल्ली- हमारे समाज को जातीयता का कीड़ा सदियों से खाता चला आ रहा है। इस दानव रूपी कीड़े को जड़ से खत्म करने के लिए डॉ भीमराव आंबेडकर ने कड़ा संघर्ष किया लेकिन आज जब हम उनके किए गये कार्यों के बावजूद समाज को जातिवाद की बेड़ियों में जकड़ा हुआ देखते हैं तो खुद को असहाय पाते है।
आंबेडकर इस जातीयता को मिटाने का सबसे बड़ा हथियार शिक्षा को मानते थे और आज शिक्षा के क्षेत्र में ही सबसे ज्यादा जातिवाद देखा जा रहा है। इसके हालिया उदहारणों में जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी से वायवा स्कैम, इलाहाबाद के झूसी स्थिति जी.बी. पंत सोशल इंस्टीट्यूट में नॉट फाउंड सुटेबल और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का दो साल पुराने मामले में कोर्ट द्वारा पक्षपात के साक्ष्य मांगने को लेकर देखे गये हैं।
भारत में आज भी अपने मूल अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे दलितों की आबादी लगभग 20 करोड़ है। इस बारे में दिल्ली यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर जेनी रोवेना कहती हैं कि “यूनिवर्सिटी कैम्पस में जातिगत उत्पीड़न होना आम बात है। यूनिवर्सिटी की कक्षाएं दलित छात्रों के लिए भयानक जगह बन चुकी हैं इसलिए शर्मिंदगी और यातनाओं से बचने के लिए बहुत से दलित छात्र कक्षाओं में जाते ही नहीं हैं।”
सरकार के हायर एजुकेशन इंस्टीट्यूट के आंकड़े बताते हैं कि 18 से 23 साल के दलित या अन्य पिछड़ी जातियों के बच्चों की संख्या केवल 14.7% है जबकि उन्हें कई सब्जेक्ट्स में 15% आरक्षण हासिल है, इसके बावजूद दलित छात्र कक्षाओं में ना जाने को मजबूर हैं।
ऐसा ही भेदभाव जब कोट्टायम की दीपा पी मोहनन के साथ हुआ तब उन्होंने इसके खिलाफ लड़ने का फैसला लिया। 11 दिनों की भूख हड़ताल के बाद दीपा ने अपनी लड़ाई जीती और हजारों दलित छात्रों के लिए मिसाल खड़ी की। दीपा नैनोमेडिसन पर रिसर्च कर रही हैं। उन्होंने देखा कि उन्हें स्टाफ लगातार परेशान करता था और यूनिवर्सिटी लैब में घूसने तक नहीं दिया जाता था, यहाँ तक कि उन्हें बैठने के लिए कुर्सी तक नहीं मिलती थी। अपने साथ होते इस अपमानजनक व्यवहार के बाद उनकी कई बार हिम्मत टूटी और कई बार उनके मन में आया कि वो अपनी रिसर्च छोड़ दें लेकिन फिर दीपा ने लड़ने का फैसला किया।
दीपा ने अपने ऊपर हो रहे अन्याय के खिलाफ 11 दिन की भूख हड़ताल की और उनकी शिकायतों पर महात्मा गांधी यूनिवर्सिटी के नैनोसाइंस और नैनोटेक्नोलॉजी सेंटर के अध्यक्ष को बर्खास्त कर दिया गया। उनकी शिकायत के बाद ही यूनिवर्सिटी ने वाइस चांसलर की अध्यक्षता में एक कमिटी भी स्थापित की है, जो दलित विद्यार्थियों के साथ कैंपस में हो रहे दुर्व्यवहार और शोषण के आरोपों की जांच करेगी।
समाज में दलितों के साथ इस तरह की घटनाएं होना आम बात है लेकिन हमारा समाज इसे मानने को तैयार नहीं है। समाज यही कहता है कि वो बदल गया है जबकि सच तो ये हैं कि समाज की समझ में जातिगत भेदभाव रचा बसा है बस उसे दर्शाने के तरीकों में बदलाव आया है।
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