‘साहेब’ बनना आसान, ‘बहनजी’ बनना मुश्किल!

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बसपा संस्थापक मान्यवर कांशीराम जी के साथ बसपा अध्यक्ष सुश्री मायावती (फाइल फोटो)

भारतीय राजनीति में गला काट प्रतियोगिता, जानलेवा संघर्ष, षड्यंत्र, और चालबाजियों का बोलबाला है। यहाँ अनगिनत प्रतिद्वंद्वी और दुश्मन हैं—अपने भी, पराये भी, अंदर से भी, और बाहर से भी। ऐसी स्थिति में आज किसी के लिए बहनजी या उनके समान किसी नेता के विकल्प के रूप में उभरना अत्यंत कठिन प्रतीत होता है। इस मुकाम तक पहुँचने के लिए पूरा जीवन संघर्ष में लगाना पड़ता है, और तभी कुछ संभावनाएँ बन सकती हैं।

1977 से अपने संघर्ष और सही समय पर सटीक निर्णय लेने की अद्वितीय क्षमता के बल पर बहनजी (मायावती) ने तमाम विरोधियों और बाधाओं पर विजय पाई और आज बहुजन राजनीति के शीर्ष पर पहुँच गई हैं। उनके संघर्ष की प्रतिद्वंद्वी भी आज तारीफ करते हैं। उनके नेतृत्व की विशेषता यह है कि उन्होंने अपने व्यक्तिगत और राजनीतिक जीवन में लगातार चुनौतियों का सामना किया और उन्हें परास्त किया।

साहेब कांशीराम बनना आसान क्यों है?

इसके विपरीत, साहेब कांशीराम बनना अपेक्षाकृत सरल है। यहाँ कोई सीधा प्रतिद्वंद्वी नहीं है—न बाहर से, न अंदर से। न ही कोई जानलेवा संघर्ष करना पड़ता है। मिशन का मैदान खाली है, जहाँ सिर्फ दृढ़ निश्चय, त्याग, लगन, और प्रभावी कार्य योजना के सहारे आप उस मुकाम तक पहुँच सकते हैं जहाँ साहेब कांशीराम पहुँचे। उनका व्यक्तित्व ऐसा है कि जो कोई भी उनके विचारों से एक बार जुड़ता है, वह हमेशा के लिए उनके मिशन का हिस्सा बन जाता है।

 

साहेब बनने के लिए किसी अन्य से प्रतियोगिता करने की आवश्यकता नहीं है। यह पूरी तरह से अपने आप पर विजय प्राप्त करने का मामला है। जबकि बहनजी बनने के लिए न केवल स्वयं को मजबूत बनाना पड़ता है, बल्कि हज़ारों-लाखों प्रतिद्वंद्वियों को भी पछाड़ना आवश्यक होता है। यह ताकत और रणनीति का खेल है, जिसमें सामने वाले को कमजोर करके ही विजय पाई जा सकती है। यह राजनीति का एक प्रमुख सत्य है।

राजनीति और मिशन की वास्तविकता

भारत में राजनीति अब साम, दाम, दंड, भेद और छल-कपट का पर्याय बन चुकी है। इसमें हर कदम पर षड्यंत्र और चालाकी के साथ आगे बढ़ना पड़ता है। लेकिन मिशन की राह इससे भिन्न है। मिशन में किसी को हराकर आगे बढ़ने की बाध्यता नहीं है। यह एक प्रतियोगिता-विहीन प्रक्रिया है, जहाँ आत्म-विकास और सामाजिक परिवर्तन के लिए कार्य करना होता है।

साहेब कांशीराम मिशन का प्रतीक हैं, जबकि बहनजी संगठन की संरचना का प्रतिनिधित्व करती हैं। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। साहेब के बिना बहनजी बन पाना लगभग असंभव है, क्योंकि साहेब ने उस मिशन की नींव रखी है, जिसके बिना संगठनात्मक राजनीति का ढाँचा खड़ा नहीं हो सकता।

 

सबक और चुनौती

विडंबना यह है कि समाज में काम कर रहे कई साथी बहनजी की तरह बनना चाहते हैं, जबकि साहेब की तरह बनने की कोशिश कम ही लोग करते हैं। यह आंदोलन के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। बिना साहेब की तरह बने, बहनजी बनना असंभव है। यहां तक कि खुद बहनजी भी किसी को राजनीति के शिखर तक नहीं पहुंचा सकतीं क्योंकि वह खुद साहेब नहीं हैं।

इसलिए, यह जरूरी है कि हम साहेब बनने के रास्ते को पहले समझें, क्योंकि वहीं से नेतृत्व की वास्तविक शुरुआत होती है। मिशन और राजनीति की इस सच्चाई को जितनी जल्दी स्वीकार कर लिया जाएगा, उतना ही बहुजन आंदोलन के लिए बेहतर होगा।

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