जगदेव प्रसादः भागीदारी के सवाल को पुरजोर तरीके से उठाने वाले नायक

 भागीदारी की बात आज की नहीं है। इसका पूरा इतिहास है। आजाद भारत में पहली बार भागीदारी के सवाल पर बात संविधान की प्रस्तावना से शुरू हुई थी। उसके पहले अंग्रेजों ने सवाल उठाया था। मध्ययुग में रैदास ने उठाया(ऐसा चाहूं राज मैं, जहां मिले सबन को अन्न, छोट-बड़े सब सम बसे, रैदास रहे प्रसन्न),इनके पहले बुद्ध के पास जा सकते हैं। उन्होंने भी समानता की बात की है। इस प्रकार बुद्ध पहले व्यक्ति थे जिन्होंने भागीदारी की बात को उठाया था। आधुनिक काल में संविधान निर्माण करने वालों के मन में यह बात थी कि भारत में भागीदारी समान नहीं है। इसलिए उन्होंने संविधान में सामाजिक न्याय की बात की।

बुद्ध से चार्वाक, आजीवक, रैदास, फूले, शाहू आदि सब लोग लगातार भागीदारी का प्रश्न उठा रहे थे। इसी परंपरा को बाबा साहब आंबेडकर ने स्वीकार किया और अपने आंदोलन को आगे लेकर चले। इसी समय जगदेव प्रसाद (जन्म 2 फरवरी 1922- परिनिर्वाण- 5 सितंबर 1974) ने भी अपने दर्शन में इस परंपरा को समायोजित किया था।जगदेव बाबू को अलग करके देखने की जरूरत नहीं। वह इसी परंपरा का हिस्सा थे। वह 90 प्रतिशत की बात कर रहे थे। ‘दस का शासन 90 पर नहीं चलेगा’।’
जगदेव प्रसाद सहित हमारे सभी सामाजिक चिन्तक समस्या के मूल को समझ रहे थे। वह जान गए थे कि किसी भी देश की संरचना वहां के भूगोल और इतिहास के साथ जनमानस के सरोकरों से बनती है। भारत एक ऐसा देश है जहां जनमानस आपस में कई स्तरों पर विभाजित है। मसलन जाति-धर्म, ऊंच-नीच, छुआ-छूत, अमीर-गरीब आदि। यह विभाजन किसी की ‘जागीरदारी सोच’ को संरक्षण देता है तो किसी की ‘गुलामी और शोषण का कारण’ बनता है। इन कारणों की पड़ताल करने वालों की पहली पीढ़ी के व्यक्ति थे बाबू जगदेव प्रसाद। उनके पिता शिक्षक थे। परिवारिक स्तर बहुत उन्नत तो नहीं था, लेकिन शिक्षित होने के कारण हालात ठीक थे। अरवल के जिस कुर्था गांव (बिहार) में उनका जन्म हुआ था वहां सामंती मानसिकता वाले लोग उनके साथ जातिगत भेद-भाव करते थे। यह व्यवहार जगदेव प्रसाद को नागवार लगता था। जगदेव बाबू का परिवार आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर था। आर्थिक आत्मनिर्भरता व्यक्ति को सबल बनाती है। सबलता से चेतना और स्वतंत्रता निर्मित होती है। जगदेव प्रसाद का ‘नई धोती पहनना’ और उस पर गांव के द्विज का सवाल उठाना, उनके जीवन को ही नहीं पूरे देश को दिशा दे गया। वह ऐसे चिंतक थे, जिसने बिना किसी पार्टी और स्वार्थ के मोह में फंसे शोषित समाज को एकजुट करने का प्रयास किया। उनका ‘विचार’ बहुजन की ‘नई पीढ़ी की वैचारिकी’ गढ़ रहा है।
जगदेव प्रसाद अपने जीवन से सीख कर भ्रांतियों से बाहर निकले थे।उनके पिता जब बीमार पड़े तो डॉक्टर को दिखाने के बजाय उनकी तीमारदारी के लिए ‘देवी-देवताओं की उपासना’ की गई। लेकिन जब ‘देवता’ उनके पिता को नहीं बचा सके, तब आस्था और परंपरा के नाम पर होने वाले ढोंग से उनका भ्रम टूटा। तमाम पूजा-पाठ के बाद भी पिता नहीं रहे और उपरोहिता, पंडा आदि ने जगदेव प्रसाद को इसका दोषी बताया। उस मानसिकता के बारे में आप सोचिए जिसमें जगदेव प्रसाद के घर श्राद्ध के लिए आये पंडित ने यह आरोप लगाया था कि ‘जगदेव प्रसाद का कार्य है खेती-बारी करना और यह पढ़ाई कर रहा है।’ इसीलिए यह मौत हुई है। उस ब्राह्मण ने कहा था कि ‘जे अपन धरम छोड़ी ओकर यही हाल होई।’ जगदेव प्रसाद का यहां से जो मोहभंग हुआ, चेतना जगी, वही आज हमारे लिए चिंतन का केंद्र है। सत्ता और नेतृत्व का महत्व वह समझते थे। तभी पार्टी बनाकर सरकार बनाने तक पहुंचे।

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पिता की मृत्यु के बाद व्यवस्था से निराश जगदेव प्रसाद डॉ. रामस्वरूप वर्मा के ‘अर्जक संघ’ से जुड़ गए। अर्जक संघ से जुड़कर सांस्कृतिक जागरण का कार्य प्रारंभ किया। उनको समझ आ गया था कि अब सांस्कृतिक टकराहट राजनीतिक जागरूकता के साथ चलेगी। उन्होंने समझ लिया था कि समाज में बहुत ‘भेद-भाव’ है और इसकी परिकल्पना के पीछे ‘षडयंत्र’ है। उसको खत्म करने के लिए वह सक्रिय राजनीति में आये। यहां से उनके जीवन की धारा पूरी तरह बदल गई। अपने अनुभव से सीख लेकर सामाजिक न्याय को परिभाषित करते हुए वह कहते थे, ‘दस प्रतिशत शोषकों के जुल्म से छुटकारा दिलाकर नब्बे प्रतिशत शोषितों को नौकरशाही और ज़मीनी दौलत पर अधिकार दिलाना ही सामाजिक न्याय है।’ तभी उन्होंने जनता से आह्वान किया कि ‘पढ़ो-लिखो, भैंस पालो, अखाड़ा खोदो और राजनीति करो।’ उनको पता था कि बदलाव की चाभी ‘मार्क्सवाद और समाजवाद में नहीं सत्ता के पास’ है। जबतक सत्ता में भागीदारी नहीं होगी, बदलाव नहीं आएगा।

व्यवस्था से टकराने के बाद जगदेव प्रसाद को यह समझ आ गया था कि सत्ता कुछ नहीं, बंदरबांट का ही दूसरा नाम है। पार्टी कोई भी हो, विचारधारा कोई भी हो, ज्यादातर कुछ लोगों के कब्जे में है और वही लोग उसका संचालन कर रहे हैं। मुखौटा अलग-अलग है, अंदर सब एक जैसे हैं। तभी उन्होंने ‘शोषित समाज दल’ नाम से अलग पार्टी बनाई। उस दौर में ‘समाजवाद और मार्क्सवाद का विचार समस्याओं के निदान का कैप्सूल’ बनाकर पेश किया जा रहा था। जगदेव प्रसाद शोषितों की समस्याओं का निदान समस्या की जड़ में जाकर करने के पक्ष में थे। उनका कहना था कि ‘आज का हिंदुस्तानी समाज साफ तौर पर दो भागों में बंटा हुआ है- दस प्रतिशत शोषक और नब्बे प्रतिशत शोषित। दस प्रतिशत शोषक बनाम नब्बे प्रतिशत शोषित की इज्जत और रोटी की लड़ाई हिंदुस्तान में समाजवाद या कम्यूनिज्म की असली लड़ाई है।’ उनकी नज़र में भारत का ‘असली वर्ग-संघर्ष’ यही था। उनके अनुसार इस ‘नग्न यथार्थ’ को नहीं मानने वाले ‘द्विज समाज के पोषक और जालफरेबी’ थे।
आर्थिक असमानता और भागीदारी के अभाव को वह समझ गए थे। इस बात का खुलासा उन्होंने 31 जुलाई 1970 को अमरीकी अर्थशास्त्री एफ. टॉमसन को दिए साक्षात्कार में किया था। उन्होंने कहा था कि ‘अभी जो व्यवस्था है उसमें दलों का नहीं अपनी जातीय संरचना का समन्वय है। क्योंकि ‘समन्वय से शोषक को फायदा है’। लेकिन शोषित को समन्वय से नहीं ‘संघर्ष’ से फायदा होगा’। उन्होंने दो दलों की कार्यप्रणाली का उदाहरण देते हुए समझाया है कि किस तरह विभिन्न दलों और विचारधाराओं के नाम पर शोषितों को उलझाया जा रहा है और संविधान में किए गए प्रावधानों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। यह जो आपसी फूट है वह हमारी ताकत को संगठित नहीं होने देती।
जगदेव प्रसाद अर्थशास्त्र के विद्यार्थी थे। वह जानते थे कि ‘हिंदुस्तान में आर्थिक गैरबराबरी के साथ सामाजिक गैरबराबरी भी है। सामाजिक गैबराबरी की लड़ाई इज्जत की लड़ाई है।उनका विश्वास था किसामाजिक क्रांति के बिना आर्थिक क्रांति नहीं हो सकती।जब शोषितों के हाथ में सत्ता आएगी तब ‘आर्थिक गैरबराबरी’ खत्म होगी। हालांकि मंडल कमीशन के बाद उत्तरप्रदेश और बिहार में जिन दलों की सत्ता आयी, वह अर्जक और शोषित समाज के ही थे। उन लोगों ने भी काफी हद तक निराश ही किया। बहुजन व्यक्तियों द्वारा संचालित पार्टियों के दौर में भी ‘सत्ता का सुख और भोग’ उन लोगों ने ही किया, जिन पर सदियों से ‘शोषक’ होने का आरोप लगता रहा है।

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जगदेव प्रसाद के विचार की उस जड़ को समझना जरूरी है जिसे वह 50 वर्ष पहले समझा रहे थे। सिर्फ समझा नहीं रहे थे, बल्कि उसे बिहार में अमल में ले आए थे। उनको साजिशन नहीं मारा गया होता तो संभव है कि आज की भारतीय राजनीति का परिदृश्य कुछ और होता। जब मुल्क आजाद हुआ तब यह उम्मीद लगाई गई थी कि ‘आजाद हिंदुस्तान में न कोई शोषित रहेगा और न कोई शोषक रहेगा और न कोई जुल्म बर्दाश्त करने वाला। बराबरी कायम होगी और हर इंसान को आगे बढ़ने का मौका मिलेगा।गैरबराबरी को देखते हुए बाबासाहेब आंबेडकर ने ‘समता और समानता’ जैसे प्रावधान संविधान में करवाने की लड़ाई लड़ी थी। इसके बाद भी भागीदारी नहीं मिली। कारण साफ है। जब आम चुनाव हुए और टिकट बंटवारे की बात आई तो उन्हीं ज़मींदारों/नवाबों को मौका दिया जो पहले शोषक थे। नतीजा यह हुआ कि पुरानी व्यवस्था आगे भी कायम रही।

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पश्चिम के देशों में जिस समानता की लड़ाई की शुरुआत हुई, वह अमीर-गरीब (बुर्जुआ-सर्वहारा) की लड़ाई थी। वहां सिर्फ अर्थ-भेद की समस्या थी। आर्थिक गैर बराबरी को ठीक करना था। भारत की स्थिति बिल्कुल अलग थी और है। यहां जाति प्रथा, ऊंच-नीच की भावना प्रबल है। अर्थात् ‘आर्थिक गैरबराबरी के साथ सामाजिक गैरबराबरी भी है। सामाजिक गैरबराबरी इज्जत की लड़ाई है। हमें विश्वास है, जबतक सामाजिक क्रांति नहीं होगी, तबतक आर्थिक क्रांति नहीं हो सकती।जगदेव बाबू का मानना था कि ‘जबतक शोषित समाज के हाथ में बागडोर नहीं आएगी तबतक आर्थिक गैरबराबरी नहीं मिटेगी।’ हिंदुस्तान का सर्वहारा हरिजन, आदिवासी, नीची जाति और पिछड़ी जाति के लोग हैं। यह आबादी में नब्बे प्रतिशत हैं। इनकी आजादी अभी तक नहीं आई है।

जगदेव प्रसाद का प्रयास इतने लंबे समय के बाद भी किसी अंजाम तक नहीं पहुंचा तो इसका कारण यह है कि मान्यवर कांशी राम को छोड़कर कोई भी राजनीतिक दल (जातिवादी या बहुजन केंद्रित) इस भेद को नहीं समझ पाया। हालांकि कांशी राम का प्रयास भी उनके रहने तक ही था। उनके बाद के लोग ‘आत्म मुग्धता’ के कारण कांशी राम के विचारों को आगे नहीं बढ़ा सके। आगे न बढ़ा सकने के कारणों में एक प्रमुख कारण यह दिखता है कि शोषितों के बीच जो नेतृत्व उभरा उनमें मसीहा होने का बोध तो था लेकिन उस बोध को स्थायित्व देने वाला विचार बिल्कुल नहीं था। विचार होता तो लोगों को चेतना के सांचे में ढाला जा सकता था। स्वतंत्रता का बहुप्रतीक्षित इंतजार ख़त्म हो जाता, लेकिन ऐसा हो नहीं सका। बहुजनों के नाम पर सत्ता पाने वाली पार्टियां भी कांग्रेस, वामपंथ और जनसंघ (अब बीजेपी) के ढर्रे को तोड़ नहीं सकीं। किसी न किसी रूप में वह भी पुरानी व्यवस्था का पोषक बनकर रह गईं। तमाम सुधारों के बाद भी सम्राट अशोक ने जिस व्यवस्था को सालों तक इस देश में चलाया, उसका आना अभी बाकी है।
समाज में ‘वह चेतना ही नहीं आ सकी है जो शोषितों को स्वतंत्रता तक’ ले जा सके। हम बात इस उम्मीद के साथ कर रहे हैं कि वह आएगी।क्योंकि जबतक सबकी स्वतंत्रता नहीं आएगी, यह देश मुकम्मल राष्ट्र नहीं बनेगा।जब तक प्रतिनिधित्व नहीं होगा, कोई संस्था या राष्ट्र मुकम्मल नहीं होगा।प्रतिनिधित्व केवल संस्थानों में नहीं, उन सभी जगहों पर होना जरुरी है जहां से एक व्यक्ति में स्वतंत्रता का एहसास पैदा होता है। इनमें सत्ता, समानता, बंधुत्व, आर्थिक/सामाजिक गैरबराबरी आदि सब शामिल है। यही हमारे नायकों का सपना था।

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