जयंती विशेषः खूब लड़ी मर्दानी वो तो झलकारी बाई थी

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1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम और बाद के स्वतन्त्रता आन्दोलनों में देश के अनेक वीरों और वीरांगनाओं ने अपनी कुर्बानी दी. किन्तु बहुत से ऐसे वीर और वीरांगनाये है जिनका नाम इतिहास में दर्ज नहीं हो सका. किन्तु उन्हें लोक मान्यता इतनी अधिक मिली कि उनकी शहादत बहुत दिनों तक गुमनाम नहीं रह सकी. अपने शासक झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के प्राण बचाने के लिए स्वयं बलिदान हो जाने वाली वीरांगना झलकारी बाई ऐसी ही एक अमर शहीद वीरांगना हैं, जिनके योगदान को जानकार लोग बहुत दिन बाद रेखाकित कर पाये.

अपनी मातृभूमि झांसी और राष्ट्र की रक्षा के लिए झलकारी बाई के दिये गये बलिदान को तब के इतिहासकार भले ही अपने स्वार्णिम पृष्टों में न समेट सके हों किन्तु झांसी के लोक इतिहासकारों, कवियों एवं लेखकों ने वीरांगना झलकारी बाई के स्वतंत्रता संग्राम में दिये गये योगदान को श्रद्धा के साथ स्वीकार किया.

वीरांगना झलकारी बाई का जन्म 22 नवंबर 1820 ई० को झांसी के समीप भोजला नामक गांव में एक सामान्य कोरी परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम सदोवा था. सामान्य परिवार में पैदा होने के कारण झलकारी बाई को औपचारिक शिक्षा ग्रहण करने का अवसर तो नहीं मिला किन्तु वीरता और साहस झलकारी में बचपन से विद्यमान था. थोड़ी बड़ी होने पर झलकारी की शादी झांसी के पूरनलाल से हो गयी जो रानी लक्ष्मीबाई की सेना में तोपची था. प्रारम्भ में झलकारी बाई विशुद्ध घेरलू महिला थी किन्तु सैनिक पति का उस पर बड़ा प्रभाव पड़ा. धीरे–धीरे उसने अपने पति से सारी सैन्य विद्याएं सीख ली और एक कुशल सैनिक बन गयी.

इस बीच झलकारी बाई के जीवन में आई कठिनाइयों के दौरान उनकी वीरता और निखर कर सामने आई. इनकी भनक धीरे – धीरे रानी लक्ष्मीबाई को भी मालूम हुई जिसके फलस्वरूप रानी ने उन्हें महिला सेना में शामिल कर लिया और बाद से उसकी वीरता साहस को देखते हुए उसे महिला सेना का सेनापति बना दिया.

उन्हें सेनापति बनाने के पीछे वीरांगना झलकारी बाई की शक्ल थी, जो झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से हू-ब-हू मिलती थी. झांसी के अनेक राजनैतिक घटनाक्रमों के बाद जब रानी लक्ष्मीबाई का अग्रेंजों के विरूद्ध निर्णायक युद्ध हुआ उस समय रानी की ही सेना का एक विश्वासघाती दूल्हा जी अग्रेंजी सेना से मिल गया था और झांसी के किले का ओरछा गेट का फाटक खोल दिया. उसी गेट से अंग्रेजी सेना झांसी के किले में कब्जा करने के लिए घुस पड़ी थी. उस समय रानी लक्ष्मीबाई को अंग्रेजों की सेना से घिरता हुआ देख महिला सेना की सेनापति वीरांगना झलकारी बाई ने बलिदान और राष्ट्रभक्ति की अदभुत मिशाल पेश की थी.

झलकारी बाई की शक्ल रानी लक्ष्मीबाई से मिलती थी ही उसी सूझ बुझ और रण कौशल का परिचय देते हुए वह स्वयं रानी लक्ष्मीबाई बन गयी और असली झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को सकुशल बाहर निकाल दिया और अंग्रेजी सेना से स्वयं संघर्ष करती रही और शहीद हो गई. बाद में दूल्हा जी के बताने पर पता चला कि यह रानी लक्ष्मीबाई नहीं बल्कि महिला सेना की सेनापति झलकारी बाई है जो अंग्रेजी सेना को धोखा देने के लिए रानी लक्ष्मीबाई बन कर लड़ रही है. वीरांगना झलकारी बाई के इस बलिदान को बुन्देलखण्ड तो क्या भारत का स्वतन्त्रता संग्राम कभी भुला नहीं सकता.

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