
विश्व भर में पुनर्जागरण के केंद्र में तर्क, विवेक और न्याय पर आधारित प्रबुद्ध समाज का निर्माण रहा है। यूरोप में पुनर्जागरण के पुरोधा लोगों ने सामंती श्रेणीक्रम यानी उंच-नीच की ईश्वर निर्मित व्यवस्था को चुनौती दी। भारत में सामंती श्रेणीक्रम वर्ण-जाति के व्यवस्था के रूप में सामने आई थी। इसी का हिस्सा ब्राह्मणवादी पितृसत्ता थी। वर्ण-जाति और पितृसत्ता की रक्षक विचारधारा को ही फुले और डॉ. आंबेडकर ने ब्राह्मणवादी विचाधारा कहा। फुले और डॉ. आंबेडकर ने भारतीय सामंतवाद को ब्राह्मणवाद कहा। इस ब्राह्मणवाद को आधुनिक युग में सबसे निर्णायक चुनौती जोतीराव फुले ने दी थी।
राजा राममोहन राय, देवेन्द्र नाथ टैगोर, विवेकान्द और दयानन्द सरस्वती जाति व्यवस्था और ब्रह्मणवादी पिृतसत्ता के कुपरिणामों से चाहे जितना दु:खी रहे हों,चाहे जितना आंसू बहाएं और उसे दूर करने के लिए जो भी उपाय सुझाएं, लेकिन इन लोगों ने वर्ण-जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को खत्म करने कोई आह्वान नहीं किया। जो इस देश में पुनर्जागरण का केंद्रीय कार्यभार था। बिना वर्ण-जाति और पितृसत्ता के खात्में के समता आधारित आधुनिक भारत का निर्माण किया ही नहीं जा सकता है और बिना समता के न्याय की स्थापना संभव नहीं है। न्याय और समता की स्थापना जोतीराव फुले के संघर्ष का केंद्रीय बिंदु था।
बंगाली पुनर्जागरण के पुरोधा लोगों के बरक्स जोतीराव फुले, सावित्री बाई फुले, ताराबाई शिन्दे और डॉ. आंबेडकर ने भारतीय सामंतवाद यानी ब्राह्मणवाद की जड़ वर्ण-जाति और पितृसत्ता को अपने संघर्ष का केंद्र बिन्दु बनाया, लेकिन आधुनिक युग में इसे दुश्मन में सबसे पहले जोतीराव फुले ने चिन्हित किया और उसके खिलाफ संघर्ष का बिगुल बजाया और भारत के आधुनिकीकरण का रास्ता खोला।
महाराष्ट्र के पुनर्जारण की एक बड़ी बिशेषता यह है कि यहां पुरुषों के साथ तीन महान महिला यथा, सावित्रीबाई फुले, ताराबाई शिंदे और पंडिता रमाबाई भी हैं, जिन्होंने ब्राह्मणवाद यानी सामंतवाद को सीधी चुनौती दी और जीवन के सभी क्षेत्रों में स्त्री-पुरूष समता के लिए संघर्ष किया और साथ में वर्ण-जाति व्यवस्था को भी चुनौती दी।
इस तथ्य की ओर भी ध्यान देने जरूरी है कि बंगाली या हिंदी भाषी समाज के पुनर्जागरण के पुरोधा कहे जाने वाले लोग द्विज जातियों के हैं, जबकि महाराष्ट्र के पुनर्जागरण के पुरोधा शूद्र-अतिशूद्र जातियों के हैं या महिलाएं हैं, जिसके अगुवा जोतीराव फुले थे।
भारतीय इतिहास को देखने का द्विजवादी नजरिया ही प्रभावी रहा है। यह बात आधुनिक इतिहास कें संदर्भ में भी लागू होती है। अकारण नहीं है, पुनर्जारण के असली पुरोधा किनारे लगा दिये गये और ब्राह्मणवाद में ही थोड़ा सुधार चाहने वाले पुनर्जागरण के पुरोधा बन बैठे या उन्हें इतिहासकारों ने बना दिया। जब तक हम भारत के बहुजनों की बहुजन-श्रमण परंपरा के असली पुरोधा जोतीराव फुले के साथ अपने को नहीं जोड़ते, तब तक न्यायपूर्ण भारत के निर्माण के वैचारिक औजार नहीं जुटा सकते।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार और बहुजन विचारक हैं। हिन्दी साहित्य में पीएचडी हैं। तात्कालिक मुद्दों पर धारदार और तथ्यपरक लेखनी करते हैं। दास पब्लिकेशन से प्रकाशित महत्वपूर्ण पुस्तक सामाजिक क्रांति की योद्धाः सावित्री बाई फुले के लेखक हैं।