मैंने हरियाणा के सोहना स्थित धम्मा सेंटर में भिक्षु के रूप में दस दिन बिताए। यहां न बोलना था, न आंखें मिलानी थी किसी से, जो मिल जाए वो खाना था। काम के नाम पर दिन भर ध्यान करना साधना करना। बाहरी दुनिया से एकदम कट कर जीना।
इन्हीं दिनों में कश्मीर और हरियाणा में चुनाव हुए, रिजल्ट आए लेकिन हम लोगों के कानों तक केवल तेज पटाखों के फटने की आवाजें आईं। जीते चाहें जो, पटाखे तो फूटने ही थे। पटाखों के फूटने से कौन जीता कौन हारा, इसका अंदाजा नहीं लगा सकते। हमें अंदाजा लगाना भी नहीं था क्योंकि हमारा दिमाग बाहर की दुनिया की गतिविधियों हलचलों से बिलकुल डिटैच कर दिया गया था। हम जब चलने को होते तो धीरे धीरे चलते क्योंकि ऐसा हमसे कहा गया था। किसी जीव की हत्या न हो जाए। ये देखना था। चींटी चूंटा टाइप कोई छोटा और विजिबल जीव हमारे कदमों के तले न दब जाए। हर कदम संभले हुए थे। हर पल हमें अपने मन की खबर थी क्योंकि हम मन को काबू में करने का खेल खेल रहे थे।
हर एक के जीवन को नियंत्रित करता है मन। मन बेकाबू और मतवाला घोड़ा होता है। वो हमें डिक्टेट करता है, हमें गाइड करता है। इसी मन को हमें काबू में करना था। सांस का आलंबन लेकर मन पर लगाम लगाना शुरू किया गया। पहले दिन सिर्फ सांस की आवाजाही पर खुद को केंद्रित करना था। ऐसे ही अलग अलग दिनों में अलग अलग टास्क। तीसरे दिन मेरी आंखों से पानी गिरा। अंदर आलोड़न हुआ। लगा सिर के सिरे से कुछ निकलने को आतुर है। कुछ मथ रहा है सिर के आर-पार होने को। पांचवें दिन मेरे बगल वाले साधक को भयानक भय लगा। वह एकदम पिन ड्राप साइलेंस के दौरान हड़बड़ाकर उठा और आचार्य के कदमों के तले बैठ गया। सन्नाटा पहले जैसा ही कायम रहा। सब डूबे हुए अपने अंदर की दुनिया में। ध्यान खत्म हुआ तो आचार्य जी ने पूछा- क्या हुआ? उसने धीरे से बोला- रीढ़ की हड्डी में ऐसी हलचल मची, ऐसी सनसनाहट हुई कि लगा जैसे कोई स्ट्रोक पड़ने वाला हो, मैं डर गया, भाग कर आपके सामने आ गया कि कहीं कुछ हुआ तो आप देख लेंगे उसे। आचार्य बोले- जाइए अपनी सीट पर, कहीं कुछ न होगा, पुराने विकार हैं जो निकल रहे हैं, बस समता भाव बनाए रखिए, सूक्ष्म संवेदना या स्थूल संवेदना, किसी भी स्थिति में आप द्रष्टा भाव बनाए रखेंगे, उसमें शरीक नहीं होंगे।
मुझसे बहुत लोग पूछ चुके क्या हुआ। कैसे हुआ। कैसा लग रहा है। क्या चेंज पा रहे हैं। मैं उन्हें कैसे वो सब पूरा पूरा बताऊं जो मैं फील कर रहा रहूं, जो हासिल कर ले आया हूं। चलिए, थोड़ा कोशिश करता हूं बताने की।
हम सब लोग भागे जा रहे हैं। अचानक एक दिन हमारी बेकाबू स्पीड पर ब्रेक लगाया गया। रोका गया, फिर उलटी दिशा में चलने के लिए कह दिया गया। तो ये जो ब्रेक लगना था, रोकना था, वह शुरुआती दो दिन में घटित हुआ। बाहर की दुनिया और उसकी दिनचर्या से फिजिकली-मेंटली डिटैच होने में दो दिन लगे। पैर बांधकर लगातार देर तक बैठने और इसके चलते होने वाले दर्द को साधने में दो दिन लगे। फिर हमें अंदर प्रवेश कराया गया। पहले स्थूल मन को सूक्ष्म बनाने की प्रक्रिया शुरू कराई गई। ये बड़ा विकट काम है। मन बार बार सांसों से छिटक कर बाहर की दुनिया में कूद पड़े। उसे पकड़ पकड़ कर लाना पड़ता। बताया गया कि अगर एक मिनट तक लगातार सांसों पर कंसंट्रेट कर लेते हैं तो ये अच्छी प्रगति है क्योंकि मन एक मिनट तक सांसों पर रुक ही नहीं सकता, शुरुआत में। वो आपकी सारी कुंडली सारे इतिहास सारे अतीत सारे भविष्य में कूदफांद कर आपको उकसाता रहेगा कि कहां फंसे हो चक्कर में। लेकिन हमें मन के चक्कर में नहीं फंसना है बल्कि उसे अपने चक्कर में फांसना है। उसे सांसों से बांधे रखना है।
सूक्ष्म मन को स्कैनर बनाकर अगले कुछ दिन शरीर के अंग प्रत्यंग को विविध तरीके से स्कैन करने का कार्यक्रम हुआ। इसी दरमियान हर एक को अलग अलग अवस्था में कुछ खास किस्म की अनुभूतियां हुईं। हम जो कसा हुआ एकल सुगठित शरीर लेकर विपश्नयना सेंटर आए थे, वह अब अलग अलग हिस्सों में तब्दील होने लगा था। मन को समझ में आने लगा कि ये शरीर कोई एक नहीं है बल्कि ये खुद में एक ब्रह्मांड है। जगमग करते संवेदना देते एटम से निर्मित। सिर से लेकर पांव तक हर इंच पर एक धड़कन है, एक संवेदना है। लगा जैसे कोई असेंबल्ड सिस्टम है जो सांसों के सहारे चल रहा है।
हमने हरामी मन को हमेशा बाहरी दुनिया की दुनियादारी में लगाए रखा। उसे आंतरिक दुनिया में ले जाना और साध पाना बड़ा मुश्किल था। मन ही मन में मन को गरियाता रहा कि आखिर वो सांसों को छोड़ कहां कहां जाकर क्या क्या बातें याद दिलाता बताता रहता है। कभी कभी उब जाते। पैरों का दर्द, पीठ का दर्द, मन की खदबदाहट सब मिलाकर ऐसा माहौल बनाता कि हे भाई ये कहां तुम आकर फंस गए हो। पर ये समझ में आ रहा था कि आगे कुछ नई और अलग अनुभूतियां हैं, बस इस स्टेज को धैर्य से झेल लो, पार कर लो।
स्वर्गीय सत्यनारायण गोयनका के निर्देशन में ये विपश्यना शिविर चला। उनके आडियो वीडियो निर्देशों संवादों गायन उदबोधन प्रवचन के जरिए सब कुछ संचालित होता रहा। इस पूरे आयोजन के लिए एक माडरेटर की जरूरत पड़ती है जिसके लिए एक जिंदा आचार्य जी को काम पर रख लिया जाता है। हमारे बैच वाले शिविर को आचार्य कौशल भारद्वाज माडरेट किए। माडरेशन में भी काम सिर्फ इतना कि सत्यनारायण गोयनका के प्रवचन के आडियो वीडियो का बटन आन आफ करना।
हम लोग इंतजार करने लगे कि भवतु सब्ब मंगलम कब बजे और शिविर खत्म हो। क्योंकि बैठे बैठे पैर दुख जाते। सांस और देह को मन से स्कैन करते करते मन भर जाता। ज्यों भवतु सब्ब मंगलम बजने लगता, सब समझ जाते कि अब साधु साधु साधु कह कर शिविर खत्म करने का वक्त हो गया है। मन में प्रसन्नता होती।
सुबह चार बजे सायरन बजता। उसके बाद धम्म सेवक घंटी लेकर कमरे कमरे के बाहर बजाते घूमते। धम्म सेवक वो बनाए जाते जो पहले विपश्यना शिविर अटेंड कर चुके होते हैं और भविष्य के विपश्यना शिविरों में धम्म सेवक बनने के लिए लिखित रूप से लिखकर देते। हर शिविर के खात्म पर एक फीडबैक फार्म मिलता जिसमें एक कालम भविष्य के शिविरों के लिए धम्म सेवक के रूप में सेवा देने पर सहमति असहमति देने का भी होता है।
साढ़े चार बजे तक हम सबको धम्मा हाल सामूहिक साधना के लिए पहुंचना होता। साढ़े छह बजे नाश्ता के लिए सायरन बजता। स्नान और आराम के बाद आठ बजे से फिर धम्मा हाल के लिए सायरन बज जाता। ग्यारह बजे लंच के लिए सायरन बजता। एक बजे से पांच बजे तक धम्मा हाल में साधना करते। पांच बजे डिनर के लिए सायरन बजता। पुराने साधकों को डिनर में सिर्फ नीबू पानी दिया जाता।
खाने पीने का प्रबंध गजब लाजवाब। बहुत विविधता। अनार, सेब, केला, पनीर की सब्जी, पोहा, मिठाई, हलवा, तरह तरह की सब्जियां, दूध… मतलब ये कि आप को न प्रोटीन की कमी होगी न किसी किस्म के खाने की कमी महसूस होगी। मैं सुबह शाम खाने के बाद लास्ट में एक गिलास दूध में हल्दी डालता, इसबगोल डालता, केला काट काट डालता, चीनी मिलाता और इसे खा पी जाता। ये कार्यक्रम दसों दिन चला। बड़ा आनंद आया। मेरा वजन दो से तीन किलो बढ़ गया इन दस दिनों में। दस दिन में किस किस तरह का स्वीट डिश मिला, देखिए लिस्ट- पेठा, इमरती, स्पंज वाला रसगुल्ला, खीर, हलवा, बेसन लड्डू, लौकी की देसी घी वाली मिठाई और सेवई।
सुबह से शाम तक एक एक घंटे तीन बार ऐसा ध्यान किया जाता जिसमें सबसे अपेक्षा की जाती कि वे इस एक एक घंटे में अपने शरीर को तनिक न हिलाएंगे, एकदम बुत बन जाएंगे। सब लोग ये कर नहीं पाते। मैं तीन चार बार ऐसा कर पाया। इस काम को अधिष्ठान बोला जाता है।
इन दस दिनों में दुनिया मेरे लिए म्यूट मोड पर चली गई थी। मैं सीख रहा था कि सब कुछ अनित्य है। अनिच्च! हम जीवन भर भूत काल या भविष्य काल में जीते हैं और इन दो भावों को जीते हैं- राग और द्वेष।
राग में सारी आकांक्षाएं मोह माया बंधन शामिल है। द्वेष में समस्त घृणा गुस्सा साजिश! इन दो भावों के हम भोक्ता होते हैं। भोक्ता भाव से जीते हैं। हमे सिखाया गया कि भोक्ता भाव नहीं, द्रष्टा भाव साक्षी भाव सम भाव समता भाव में जीना है रहना है और ऐसा सांसों के जरिए मन को स्थूल से सूक्ष्म करके किया जा सकता है। इसे लगातार अभ्यास से कर लिया जाएगा तो नए पुराने संस्कार उर्फ संखारा नष्ट होने लगते हैं। हमारे मन के अनकांसस माइंड में पत्थर के लकीर की तरह दर्ज राग द्वेष की रेखाएं खत्म होने लगती हैं।
विपश्यना शिविर में नब्बे प्रतिशत प्रैक्टिकल होता है। विपश्यना शिविर में हर धर्म के लोग शामिल होते हैं। धर्म की यहां व्याख्या ये की गई कि असली धर्म व्यक्ति केंद्रित नहीं बल्कि गुण केंद्रित होता है। विपश्यना असली धर्म है। बाकी सारे कथित धर्म सिर्फ संप्रदाय भर हैं जो व्यक्ति पूजक हैं। गौतम बुद्ध से पहले भी विपश्यना थी जो लुप्त हो गई थी। ऋग्वेद में विपश्यना का जिक्र मिलता है। गौतम बुद्ध ने विपश्यना को पुनर्जीवित किया। पांच सौ साल विपश्यना की धूम रही। फिर ये विद्या लुप्त होती गई। इस विद्या में मिलावट की जाने लगी। इस विद्या में भी विकार पैदा किए जाने लगे। बर्मा उर्फ म्यांमार में कुछ गुरुओं ने गुरु शिष्य परंपरा के जरिए इस विद्या की ओरिजनिलिटी को जिंदा रखा। उसी विद्या को म्यांमार के गुरु से सीखकर आचार्य सत्यनारायण गोयनका भारत ले आए और छा गए।
ये अदभुत विद्या है। ये मन के संसार में देह के संसार में प्रवेश कराने की अद्भुत विद्या है। ये देह और मन को नियंत्रित करने की अद्भुत विद्या है। ये विकारों को दूर कर साक्षी भाव द्रष्टा भाव डेवलप करने की अद्भुत विद्या है। कहा जाता है कि सिद्ध विपश्यना साधक अगर इस विद्या के माध्यम से बहुत गहरे उतर जाता है तो वह भूत भविष्य अपने पहले के जन्मों के दर्शन साक्षात्कार कर सकता है। मुझे भी ऐसा लगता है कि मन देह दिमाग एक पूरा ब्रह्मांड होता है। इसे समझने का एक पूरा आंतरिक विज्ञान होता होगा। विपश्यना उन्हीं में से एक है। ये प्रामाणिक है, ये पच्चीस सौ वर्षों की परंपरा लिए हुए हैं, ये किसी संप्रदाय के खिलाफ नहीं है, ये आपकी किसी आस्था को दरकिनार करने को नहीं कहता है। ये बस ये कहता है कि आप मुझे समझो, मुझे एक बार आजमाओ, फिर जो चाहे मन करे, करो!
एक बार आपको भी विपश्यना में जाना चाहिए। vipassana 10-day course registration गूगल पर लिखेंगे तो एक वेबसाइट आएगी, उसके जरिए आप अप्लाई कर सकते हैं। देश भर में इनके सेंटर हैं। मैं सोहना (हरियाणा) सेंटर में गया था। मुझे बहुत मजा आया। मैं पहले से ही देश दुनिया से थोड़ा डिटैच किस्म का आदमी रहा हूं। आंतरिक यात्रा को महसूस करता रहा हूं। तो विपश्यना ने मेरी आंतरिक यात्रा की गति को बढ़ा दिया है। भविष्य में फिर विपश्यना करने जाऊंगा। एक बार धम्म सेवक बनकर जाऊंगा। एक बार पचास दिन वाला कोर्स करूंगा। जब आंतरिक यात्रा पर निकल ही लिए हैं, तो ठीक से आगे बढ़ा जाए। वैसे भी, ये जो शिविर करने का मौका मिला है, वो कोई इत्तफाक नहीं हो सकता। शायद प्रकृति का कुछ बड़ा संकेत है इसके पीछे।
आखिरी दिन सुबह साढ़े छह बजे पूड़ी तरकारी खीर खिलाकर विदा किया गया। उसके पहले दो घंटे तक चले ध्यान और प्रवचन में सत्यनारायण गोयनका ने आगाह किया कि अगर बाहर निकल कर रोजाना सुबह शाम एक एक घंटे ये इसी विद्या से ध्यान नहीं किया तो फिर ये सब छूट जाएगा, भूल जाएगा और मन फिर बाहरी दुनिया के राग द्वेष में भोक्ता भाव से रम जाएगा। फिर करते रहिए हाय हाय। मैं हर सुबह शाम एक एक घंटे विपश्यना करता हूं। कैसे करता हूं, ये मैं आपको बता नहीं सकता और न ही बताया जा सकता है। इसके लिए आपको विपश्यना सेंटर जाना ही पड़ेगा। वहां आपको भिक्षु बनना पड़ेगा। उनका दिया हुआ भोजन करना होगा। मौन रखना होगा। झूठ नहीं बोलना होगा। जीव हत्या न करेंगे। और सबसे बड़ी बात, आप समता भाव से, राग द्वेष से परे रहकर, शरीर की सूक्ष्म और स्थूल संवेदनाओं को महसूस करने का अभ्यास करते रहेंगे। ये करना आंतरिक यात्रा का क ख ग घ सीखना है। साक्षर बनना है। फिर जब लिखना आ जाएगा तो फिर आप अदभत लिखेंगे, अद्भुत रचेंगे, अद्भुत महसूसेंगे, अद्भुत देखेंगे।
भड़ास4मीडिया वेबसाइट पर यह आलेख यशवंत ने लिखा है। वहां से साभार। आप भड़ास पर भी यह खबर पढ़ सकते हैं।
यशवंत सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं। तमाम अखबारों में काम करने के बाद पिछले एक दशक से ज्यादा समय से मीडिया की खबर ले रहे हैं। भड़ास4मीडिया के संस्थापक हैं।