ज्योतिबा फुले के जन्मदिन पर आप एक बात गौर से देख पाएंंगे। गैर बहुजनों के बीच में ही नहीं बल्कि बहुजनों अर्थात ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के लोगों के बीच भी ज्योतिबा फुले को उनके वास्तविक रूप में पेश करने में एक खास किस्म की कमजोरी नजर आती है। ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के जितने भी महानायक हुए हैं लगभग उनके सभी के साथ यह समस्या नजर आती है।
भारत में ब्राह्मणवाद का जो षड्यंत्र सदियों से चला आ रहा है यह समस्या उस यंत्र से जुड़ती है। भारत के वे विद्वान और महापुरुष जो तथाकथित ऊंची जातियों में जन्म लेते हैं वे अखिल भारतीय स्तर के महानायक मान लिए जाते हैं। और ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति से आने वाले महानायक उनके अपनी जातीय श्रेणी के अंदर विद्वान या महान माने जाते हैं। इस बात को ज्यादातर ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग ठीक से समझते नहीं हैं। इसीलिए भारत में इतनी शिक्षा, इंटरनेट और टेक्नोलॉजी के आने के बावजूद भारत का ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति का बड़ा समुदाय अपने नेरेटिव और ग्रैंड नेरेटिव का निर्माण नहीं कर पा रहा है।
आप बाबा साहेब आंबेडकर का उदाहरण लिजिए, गैर बहुजन समाज ही नहीं बल्कि बहुजन समाज भी ज्यादातर उन्हें संविधान के निर्माता के रूप में देखता है। डॉक्टर आंबेडकर ने अपनी महान विद्वता का इस्तेमाल करते हुए सिर्फ संविधान की रचना नहीं की थी। संविधान और कानून के अलावा ना केवल उन्होंने अर्थशास्त्र और भारत के इतिहास के बारे में बहुत कुछ लिखा है बल्कि उन्होंने पूरे भारत के लिए ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के लिए एक नए बौद्ध धर्म को भी जन्म दिया है। लेकिन दुख की बात है कि खुद बहुजनों में इस बात को ज्यादातर लोग नहीं जानते। आज आप किसी भी शहर में या गांव में किसी बस्ती में जाकर पूछ लीजिए कि बाबासाहेब आंबेडकर ने क्या काम किया था? ज्यादातर लोग यह जवाब देंगे कि उनका सबसे बड़ा काम संविधान की रचना करना था।
अगर आप पूछें कि बाबा साहब अंबेडकर ने कोई नया धर्म बनाया था क्या? तो ज्यादातर लोग इस तथ्य से अंजान मिलेंगे। जो लोग यह जानते हैं कि बाबा साहेब ने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी, वे भी यही कहते हैं कि उन्होंने किसी पुराने रंग रूप के बौद्ध धर्म को अपना लिया था। इस तरह बाबा साहेब का जो वास्तविक विराट स्वरूप है वह ना सिर्फ दुनिया के सामने नहीं आ पाता बल्कि अपने ही प्रेम करने वाले लोगों के बीच में भी बहुत छोटा होकर और सिकुड़ कर रह जाता है।
कल्पना कीजिए कि बाबासाहेब आंबेडकर को भारत में धम्मक्रांति का जनक कहकर प्रचारित किया जाए। या धम्म चक्र प्रवर्तन करने वाले महापुरुष या नए बौद्ध गुरु की तरह प्रचारित किया जाए तो क्या होगा?
आप सीधे-सीधे दो तरह के प्रचार की कल्पना कीजिए। मैं एक राज्य में पचास हजार बच्चों के बीच दस सालों तक यह प्रचारित करूं कि बाबासाहेब आंबेडकर भारत में धर्म क्रांति के जनक हैं और उन्होंने भारत के संविधान का भी निर्माण किया है। और कोई दूसरा आदमी दूसरे राज्य में दस सालों तक पचास हजार बच्चों के बीच तक यह प्रचारित करें कि बाबासाहेब केवल एक वकील और संविधान के निर्माता थे। आप आसानी से समझ सकते हैं कि मैं जिस राज्य में मैंने बाबा साहब को धम्मक्रांति का जनक और संविधान निर्माता दोनों बता रहा हूं वहां के बच्चों के मन में अपने भविष्य के निर्माण की कितनी विराट योजना अचानक से प्रवेश कर जाएगी। और जिस राज्य में दस सालों तक केवल उन्हें संविधान का निर्माता बताया जा रहा है उस राज्य के बच्चे धर्म संस्कृति इतिहास और राजनीति के महत्व के बारे में बिल्कुल भी जागृत नहीं हो पाएंगे।
जैसे ही धर्म के निर्माण की बात आती है, धर्म के साथ इतिहास संस्कृति कर्मकांड और सब तरह की सृजनात्मक प्रक्रियाएं अचानक जुड़ जाती है। लेकिन अपने महापुरुष को अगर सिर्फ संविधान और कानून तक सीमित कर दिया जाए, बाबा साहेब को आप सिर्फ एक काले कोट पहने वकील के रूप में ही कल्पना कर पाएंगे। आज भारत के ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के बच्चों में बाबा साहेब की जो कल्पना है वह सिर्फ काला कोट पहने और मोटी सी किताब पकड़े एक बैरिस्टर की कल्पना है। यह छवि और यह कल्पना भी बहुत अच्छी है, लेकिन पर्याप्त नहीं है। अगर बाबा साहेब को भारत के भविष्य के ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के लिए एक नए धर्म के जन्मदाता के रूप में या धम्म चक्र प्रवर्तन करने वाले आधुनिक बौद्ध गुरु की तरह चित्रित किया जाए तो क्या प्रभाव होगा आप सोच सकते हैं।
अब आप ज्योतिबा फुले पर आइए। ज्योतिबा फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले को सिर्फ शिक्षा और समाज सुधार से जोड़कर देखा और दिखाया जाता है। न केवल गैर बहुजनों में बल्कि ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के अधिकांश लोगों में भी उन्हें सिर्फ शिक्षक और शिक्षिका बताने की बीमारी पाई जाती है। जिस तरह भारत के ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति बाबासाहेब आंबेडकर को उनके विराट रूप में प्रस्तुत नहीं करते, उसी तरह ज्योतिबा फुले को भी बहुत ही सीमित रूप में पेश किया जाता है। ज्योतिबा फुले के साथ शिक्षा और ज्ञान को जोड़ देना अच्छी बात है, लेकिन पर्याप्त नहीं है। ज्योतिबा फुले ने शिक्षा के अलावा और भी बहुत सारे काम किए हैं जिसका कि लोगों को पता नहीं है। उन्होंने एक नई सत्यशोधक समाज जैसा संगठन बनाया था जिसका धर्म, जिसकी संस्कृति कर्मकांड और प्रतीक बहुत ही अलग थे और नए थे। उन्होंने लगभग एक नए पंथ की ही रचना कर डाली थी।
ज्योतिबा फुले ने ना सिर्फ शिक्षा के लिए काम किया था बल्कि, अनुसूचित जाति जनजाति और ओबीसी की महिलाओं के लिए और बच्चियों के लिए स्कूल खोला था। इतना ही नहीं बल्कि तथाकथित ऊंची जाति की विधवा एवं गर्भवती महिलाओं के लिए मुफ्त में बच्चा पैदा करने और बच्चा पालने के लिए एक आश्रम भी खोला था। उन्होंने महिलाओं के अधिकार के लिए सरकार से लड़ाई की और स्थानीय संस्थाओं से भी लड़ाई की। उस जमाने में ब्रिटिश गवर्नमेंट जब हंटर कमीशन लेकर आई थी तब ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के लिए स्कूल एवं शिक्षा का प्रावधान करने के लिए उन्होंने आवाज उठाई थी। उस समय उन्होंने शराबबंदी को लेकर महिलाओं का एक आंदोलन चलाया था। उन्होंने मजदूरों और किसानों के लिए आंदोलन चलाए थे। अपने लेखन में उन्होंने ना सिर्फ अंधविश्वासों का विरोध किया था बल्कि ब्राह्मणों और बनियों के बीच जिस तरीके का षड्यंत्र बनाया जाता है और जिस तरीके से भारत की ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति को लोगों का शोषण होता है, उस पूरी तकनीक को उन्होंने उजागर किया था।
ज्योतिबा फुले ने जिस तरीके से भारत के पौराणिक शास्त्रों और उनकी कहानियों का विश्लेषण किया था, वह बिल्कुल डांटे की डिवाइन कॉमेडी के महत्व से मिलता-जुलता है। यूरोप मे डांटे की डिवाइन कॉमेडी एक बहुत महत्वपूर्ण रचना मानी जाती है जिसने की सेमेटिक परंपराओं में ईश्वर स्वर्ग नर्क और इस तरह की अंधविश्वासों का खूब मजाक उड़ाया गया है। आज भी यूरोप में डांटे को एक महान पुनर्जागरण के मसीहा के रूप में देखा जाता है। लेकिन भारत के ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग अपने ही सबसे बड़ी मसीहा को सिर्फ एक शिक्षक बनाकर छोड़ देते हैं। यह भारत की तथाकथित ऊंची जाति के लोगों का षड्यंत्र भी हो सकता है। लेकिन भारत के ओबीसी समाज एवं बहुजन समाज के लोगों को तो कम से कम हजार बार सोच कर निर्णय लेना चाहिए। ज्योतिबा फुले खुद माली समाज से आते थे, खेती किसानी फूलों का धंधा और फूल सजाकर बेचना उनका पुश्तैनी काम था। इस तरह माली ओबीसी समाज से आने वाले इतने विराट महापुरुष को स्वयं ओबीसी समाज ने ही भुला दिया है।
जो समाज अपने ही पिता को, अपने ही महान पूर्वज को अपने हाथों से बौना बनाकर पेश करता है वह दूसरों से क्या उम्मीद कर सकता है? कल्पना कीजिए कि आप स्वयं अपने पिता को अनपढ़ और गंवार साबित कर देते हैं, तो आपका पड़ोसी जो आपका शोषण कर रहा है वह आपके पिता को विद्वान साबित क्यों करना चाहेगा? इस बात को ध्यान से समझने की कोशिश कीजिए। अगर आप अपने पिता और अपने पूर्वजों को महान साबित नहीं करना जानते तो आपके बच्चे भी कभी महान नहीं हो पाएंगे। इसलिए सारी संस्कृतियों में उन सभी धर्मों में आप देखेंगे कि वे अपने पूर्वजों को महानतम रूप में पेश करते आए हैं। भारत में एक विचित्र की परंपरा है। भारत के काल्पनिक और या पौराणिक इतिहास में जिन लोगों ने यहां के मूल निवासियों की बड़े पैमाने पर हत्या की है, उन्हे जगत का पिता और पूरी दुनिया का पालनहार बताया जाता है। कम से कम इसी बात से भारत के ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को कुछ सीख लेना चाहिए।
ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को अपने पूर्वजों को सम्मान देना सीख लेना चाहिए। भारत के ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के पूर्वजों ने कभी भी बड़े पैमाने पर हत्याकांड नहीं किए, ना ही बलात्कार किए, ना ही महिलाओं का अपमान किया और ना गांव और शहरों को जलाया। इसके विपरीत इन श्रमशील जातियों से आने वाले महानायकों ने महिला सशक्तिकरण, शिक्षा, स्वास्थ्य, कानून व्यवस्था, जागरूकता, आधुनिकता इत्यादि के लिए अनेक अनेक काम किए हैं। ज्योतिबा फुले बाबासाहेब आंबेडकर परियार जैसे लोग भारत को आधुनिक जगत में ले जाने वाले सबसे बड़े नाम हैं। इन जैसे लोगों ने काल्पनिक देवी देवताओं की तरह ना तो बड़े हत्याकांड रचे न ही नगरों और राजधानियां को जलाया बल्कि आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की तरफ पूरे देश को ले जाने का बड़ा काम किया।
बहुजन और गैर बहुजन की बात निकलते ही अक्सर लोग कहने लगते हैं कि यह तो अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों की समस्या है। उन्हें यह पता ही नहीं है कि भारत के ओबीसी जो कि यादव किसान काश्तकार कुम्हार विश्वकर्मा कुर्मी कुनबी सुतार इत्यादि जातियों के लोग होते हैं लोग भारतीय धर्मशास्त्रों में शूद्र कहे गए हैं। ज्योतिबा फुले स्वयं माली समाज से आते थे और स्वयं को शूद्र कहते थे, भारत के दलित लोग अतिशूद्र या पंचम माने जाते हैं। शूद्र का मतलब ओबीसी होता है और दलित का मतलब अस्पृश्य होता है, ज्यादातर बहुजन लोगों को इस बात की जानकारी नहीं है। इसीलिए ज्यादातर ओबीसी अपने आप को किसी ना किसी तरीके से क्षत्रिय या वैश्य सिद्ध करने में लगे रहते हैं। हालांकि जो क्षत्रिय और वैश्य समुदाय हैं वे इन ओबीसी लोगों के साथ न शादी करते हैं न खाना खाते हैं और ना इनके घर में आना-जाना करते हैं।
ऐसे में भारत के ओबीसी लोगों को अपने भीतर छुपा आत्मसम्मान जगाते हुए इस तरह के नाटक बंद कर देना चाहिए। जिस तरह ज्योतिबा फुले ने अपनी अस्मिता और आत्मसम्मान से समझौता ना करते हुए अपने आपको शूद्र मानकर अपने इतिहास की खोज की थी, उसी तरह भारत के शेष ओबीसी अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को अपनी महान परंपरा और शास्त्रों का फिर से अध्ययन करना चाहिए। बाबासाहेब आंबेडकर ने भी यही काम किया था। उत्तर भारत में ललई सिंह यादव ने पेरियार के शिक्षाओं पर चलते हुए यही काम किया था, बाबू जगदेव प्रसाद कुशवाह ने भी यही काम किया था। झारखंड से आने वाले महान जयपाल सिंह मुंडा ने भी यही काम किया था। उनके पहले महान टंट्या भील और महान बिरसा मुंडा ने भी यही काम किया था।
ज्योतिबा फुले के जन्मदिन पर हमें यह बात गौर करते हुए नोट करनी चाहिए। ज्योतिबा फुले को सिर्फ शिक्षक या समाज सुधारक बताने वाले लोग मासूम या फिर गलत लोग हैं। इन लोगों को मालूम नहीं है कि शिक्षा से भी बड़ा योगदान ज्योतिबा फुले ने इस देश को दिया है। ज्योतिबा फुले सही अर्थों में देखा जाए तो भारत की आधुनिकता के पिता है। ज्योतिबा फुले को “फादर ऑफ इंडियन मॉडर्निटी” कहा जाना चाहिए।
संजय श्रमण गंभीर लेखक, विचारक और स्कॉलर हैं। वह IDS, University of Sussex U.K. से डेवलपमेंट स्टडी में एम.ए कर चुके हैं। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस (TISS) मुंबई से पीएच.डी हैं।
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