– डॉ. पूनम तुषामड़
अभी हम 6 जून को सम्यक प्रकाशन के कर्मठ और जुझारू प्रकाशक शांति स्वरुप बौद्ध जी की आकस्मिक मृत्यु के शोक से उबर भी नहीं पाए थे कि 15 जून की दोपहर एक बजे हमारे अभिन्न मित्र कदम प्रकाशन के प्रकाशक, कदम पत्रिका के संपादक एवं एक जिंदादिल, कर्मठ साहित्यकार कैलाश चंद चौहान के गुजर जाने की खबर आई। यह खबर भीतर तक हिला गई, एक अंतहीन पीड़ा से भर गई। उनकी मृत्यु हार्ट अटैक से हो गई।
मेरा कैलाश जी से परिचय सन् 2004 में पहली बार हुआ। तब से ही हम वैचारिक रूप से बयान पत्रिका के संपादन को लेकर मोहनदास नेमिसराय जी के साथ सक्रिय रूप में काम करने लगे थे। वे सदैव अपने सभी मित्रों की बात को बड़ी सहजता से सुनते थे और जो बात उन्हें सही नहीं लगती थी तो स्पष्ट रूप से उसपर अपनी असहमति भी ज़ाहिर कर देते थे। लेकिन सहमति असहमतियों के बीच कभी भी किसी प्रकार का मन मुटाव वे किसी से नहीं रखते थे।
कैलाश बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। सामूहिक परिवार की आजीविका चलाने की जिम्मेदारी, बच्चों की शिक्षा दीक्षा के तमाम खर्चों का वहन करते हुए उन्होंने आयुर्वेदिक और होम्योपैथिक दवाओं का प्रयोग का कोर्स भी किया। वे अपने आस-पड़ोस के जरुरतमंद लोगों को फ्री में दवाएं देते थे, अनेक मरीज़ उनकी इन सेवाओं का लाभ भी उठा चुके थे। उन्होंने अपने बच्चो को भी ये सभी कार्य सिखाए। कैलाश जी एक जगह रुकने वाले इंसान नहीं थे।
समय के बदलाव और साहित्यिक अभिरुचि ने उन्हें प्रकाशन के कार्य की और उन्मुख किया। जिसका पहला सफल परिणाम ‘कदम’ पत्रिका के प्रकाशन के रूप में सामने आया, जिससे उत्साहित हो कर उन्होंने पुस्तक प्रकाशन के लिए ‘कदम प्रकाशन’ प्रारम्भ किया। जिसे अपने अथक प्रयासों और आत्मविश्वास के बल पर बहुत कम समय में खड़ा भी कर दिखाया। कदम प्रकाशन का स्टॉल इस बार के अंतराष्ट्रीय पुस्तक मेले में काफी चर्चा में रहा। पुस्तक मेले के दौरान ही उन्होंने ‘कदम लाइव’ के नाम से एक यु-ट्यूब चैनल भी बनाया, जिस पर दलित आदिवासी एवं अल्पसंख्यक वर्ग से आने वाली कई जानी मानी साहित्यिक हस्तियों के साक्षात्कार भी लिए गए। अनथक कार्य करने के कारण ही कुछ समय से वो खुद पर ध्यान नहीं दे रहे थे।
कैलाश जी एक सरल सीधे व्यक्तित्व के धनी इंसान थे। वे बहुत साहित्य पढ़ते थे। वे कहने से ज्यादा करने में विश्वास रखने वाले लोगों में से थे। उन्होंने कहानियों से अपने साहित्यिक जीवन की शुरुआत की और बाद में वे दलित साहित्य में एक उपन्यासकार के रूप में चर्चित हुए, जिनमें सबसे पहला उपन्यास ‘सुबह के लिए’ था, जो पाठकों में बेहद चर्चित रहा। उसके बाद, ‘भंवर’ तथा ‘विद्रोह’ प्रकाशित हुए। इन तीनों ही उपन्यासों पर कई शिक्षण संस्थानों में शोध हो रहे हैं।
कैलाश जी से हमारा सालों का साथ रहा है। आज जो जिस कैलाश चंद चौहान को आप और हम जानते हैं, उनका जीवन बचपन से ही बेहद कठिन स्थितियों में बीता। वे अक्सर बात करते-करते अपने अनुभव बताने लगते थे। वे बताते थे कि किस तरह वे दोनों भाई बचपन में अपनी माँ के साथ मैला उठाने, सफाई करने जाते थे। किन्तु उनकी माँ के रोबीले व्यक्तित्व के कारण उन्हें कोई बोलने का साहस नहीं करता था। दोनों भाई बहुत कम उम्र में ही गोल मार्केट के आस-पास दोपहरी में लोगों को भाग-भाग कर पानी बेचा करते थे। अन्धविश्वास इतना था कि घर में पिता की बीमारी को देवी का प्रकोप मानकर दिन-रात होने वाली पूजा उन्होंने देखी। दरअसल उनके पिता मानसिक बीमारी से पीड़ित थे। घोर गरीबी और मानसिक रोग से पीड़ित पिता की बीमारी का सही इलाज न करा पाने का दुःख उन्हें सदैव रहा।
घर में पूरी रात डेरु और नगाड़े बजते थे। इसका कैलाश जी पर इतना प्रभाव पड़ा कि वे हनुमान के भक्त हो गए। अंधविश्वास के कारण टोना टोटकों और गनडे-ताबीज आदि में उनका विशवास इतना हो गया की वे अपने आपको लोगों का ‘भूत’ उतारने वाले ‘भगत’ समझने लगे। लेकिन एक संगठन ‘दिशा’ के संपर्क में आने से उनकी जिंदगी बदल गई।
वे अक्सर कहा करते थे कि ‘काश! दिशा संगठन वालों के संपर्क में पहले आ जाते। दरअसल ‘दिशा संगठन के अंजलि और सुभाष गाताड़े उन दिनों दलित बस्तियों में जा-जा कर लोगों के बीच में जनजागृति की बातें करते थे। अंधविश्वास और पाखंड के बारे में लोगों को समझाते थे। कैलाश जी पर धीरे धीरे उनकी बातों का प्रभाव हुआ और एक दिन उन्होंने अपने घर में एलान कर दिया कि आज से घर में किसी तरह का पूजा-पाठ और अंधविश्वास का काम नहीं होगा। उस दिन से कैलाश जी के घर में भगत सिंह सहित बाकी क्रांतिकारियों की बातें और चर्चाएं होने लगी। कैलाश जी बताते थे कि कैलाश जी की माता उनके घर में आने वाले बुद्धिजीवियों की बातें बड़े ध्यान से सुनती थी। उनकी माँ ने एक दिन कैलाश जी से कहा था “सही बात कहते तेरे दोस्त, कुछ नहीं रखा इस धोक पूजा में। तेरे पिता के पीछे कितनी पूजा करवाई, धरम करम करा, कुछ न हुआ ..बस्स! अब से कुछ नहीं करेंगे, जो होगा देखी जाएगी।” वे कहते थे कि पिता को खो देने के बाद माँ ने बड़े ही साहस से हर काम में हमारा साथ दिया कभी विरोध नहीं किया। उन्होंने अनपढ़ होते हुए भी कोशिश की कि वे सभी पुरानी परम्पराओं को तोड़ेंगी और हमारी शादी गाँव में की। और साफ़ कह दिया कि मेरी बहुएं किसी से पर्दा न करेंगी। कैलाश जी माँ के इस फैसले और उसके बाद परिवार वालों के विरोध को बताते हुए अक्सर माँ के साहस से अभिभूत नज़र आते थे।
घर में बड़ा होने के कारण परिवार की जिम्मेदारियों ने उन्हें असमय बड़ा बना दिया था। वे अपने बारे में कुछ भी बड़ी सहजता से बता देते थे। फिर चाहे माँ के साथ सफाई का काम हो, पानी बेचने का, वाशिंग पावडर बनाना, परचून की दुकान, प्रॉपर्टी डीलिंग साथ-साथ ओपन से जैसे तैसे बारहवीं पास की। बी ए में एडमिशन लिया, हालांकि ग्रेजुएशन पूरी नहीं कर सके। साथ में कंप्यूटर मैकैनिक का काम सीख लिया, फिर कंप्यूटर सॉफ्टवेयर की दुकान में काम किया। मालिक ने कैलाश जी की ईमानदारी देख कर उन्हें वह दुकान सौंप दी, किन्तु उन्ही दिनों कैलाश जी को दुकान के साथ-साथ दुकान पर आने वाली कुछ पत्रिकाओं को पढ़ने का शौक हो गया। ये पत्रिकाएं सरिता, मुक्ता, गृह शोभा थी। इनमें आने वाली कहानियों से प्रेरित हो कर उन्होंने कहानियां लिखनी शुरू की, जो उन्होंने सरिता पत्रिका जो कि उन दिनों खासी चर्चित थी में अपनी कहानी ‘गाँव कि दाई’ भेजी, जो संपादक को पसंद आई और उसने छाप दी। इसके पश्चात् कैलाश जी कि रूचि लेखन की और हुई, फिर उन्होंने नियमित रूप से सरिता में अपने लेख और कहानियां भेजी जो छपती रही। फिर इसी दौरान उन्होंने अन्य साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ना और उनमें लिखना प्रारम्भ किया, जिसके कारण उनकी एक साहित्यिक पहचान बनी। कथादेश, हंस, बयान, युद्धरत आम आदमी आदि अनेक पत्रिकाओं में उनके लेख और कहानियां प्रकाशित होने लगे।
परिवार की आजीविका सुचारु रूप से चलती रहे इसके लिए ऑन लाइन बिज़नेस शुरू कर दिया था। जो कोरोना महामारी से पहले अच्छा चल निकला था। किन्तु जैसे-जैसे लॉक डाउन बढ़ा बिज़नेस में भी फर्क पड़ने लग गया। इन दिनों वे कहते थे कि पहले जैसा काम नहीं है। पिछले कुछ समय से अस्वस्थ रहने लगे थे, किन्तु न तो सामाजिक प्रतिबद्धता कम हुई थी और न काम करने की गति। बस अपने विषय में स्वयं कभी किसी को कुछ नहीं कहते थे। उनसे आत्मीयता का रिश्ता ऐसा था कि हम उनकी कई बातों को उनके बिना कहे ही समझ जाते थे, और वे हमारी।
कैलाश जी और उनके परिवार के साथ मेरा सम्बंध घरेलु था। कम्प्यूटर की छोटी छोटी समस्याओं से लेकर कदम के कामों तक, हमारी अनेक मुलाकातें होती थी और साहित्यिक चर्चाएं भी। कभी मैं बेहद मायूस होती तो वे अपने ही अनोखे अंदाज़ में कुछ ऐसा कह देते की मैं हंस पड़ती और एक क्षण में वे सब भुला देते। ऐसे दोस्त ऐसी अच्छे सुलझे सहज इंसान दुनिया में बेहद कम होते हैं जो बिलकुल ज़मीं से उठकर वो मुकाम हांसिल करते हैं जो दूसरो के लिए प्रेरणा बने। अनेक प्रतिभाओं के धनी, हरफन मौला इंसान हमारे अभिन्न मित्र कैलाश जी, आप हमारी यादों में सदैव रहेंगे।
डॉ. पूनम तुषामड़ एक लेखिका हैं। कैलाश चंद चौहान और कदम प्रकाशन से जुड़ी हैं।
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कैलाश जी के बारे में पूनम तुशामड जी का संस्मरण दलित दस्तक में पढ़ा। सबसे पहले रामचन्द्र जी ने बताया कि कैलाश जी हमारे बीच नहीं रहे। बहुत ही हृदय विदारक थी खबर। एकाएक विश्वाश नहीं हुआ। हमारा इतना अच्छा दोस्त अचानक हमे छोड़कर कैसे जा सकता है! इन दिनों मैं भी बीमार चल रहा हूं। एक सदमे में छोड़कर चले गए आप कैलाश जी। आपको जाना नहीं था अभी! – राज वाल्मीकि।😢