Monday, February 24, 2025
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क्या दलितों की हितैषी पार्टियां कानपुर दुष्कर्म काण्ड का राष्ट्रव्यापी विरोध करेंगी?

भारत 15 अगस्त, 1947 को राजे-रजवाड़ों, बादशाहों-नवाबों, ठाकुरों-जागीरदारों और ब्रिटिश राज की गुलामी से आजा़द हो गया. बाबा साहेब चाहते थे कि राजनैतिक आजादी से पहले सामाजिक आजादी मिले, लेकिन तत्कालीन नेताओं ने उनकी बातों पर ध्यान नहीं दिया. इसका नतीजा यह रहा कि न केवल आज भी सामाजिक असमानता मौजूद है, अपितु छूआछूत भी मौजूद है.

इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं वे अखबार जो इन घटनाओं को जनता तक रोज पहुँचा रहे हैं.

ऐसा कोई दिन, सप्ताह या माह नहीं जाता जिस दिन दलित का अपमान नहीं हुआ हो, चाहे दबंगों द्वारा अपमानित करने के रूप में हों, चाहे इनके घर-खेतों पर कब्जा करने को लेकर हो, इनके सामाजिक-राजनैतिक अधिकारों के हनन के रूप में हो अथवा दलित समाज की बालिकाओं-स्त्रियों की इज्जत पर हमले के रूप में हो, आज भी बेरोकटोक जारी है.

इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ता कि शासन किस पार्टी का है, क्योंकि दोनों ही प्रमुख पार्टियों में दबंगों का वर्चस्व है और दलितों के हितों का दावा करने वाली तथा दलितों के वोटों के बल पर उत्तर प्रदेश में, जहाँ यह काण्ड हुआ, सरकार बनाने वाली बहुजन समाज पार्टी आज बहुजन को भूलकर सर्वजन के पीछे लगी हुई है.

आज दलित अपने को ठगा-सा महसूस कर रहे हैं क्योंकि इन्होनें जिस पार्टी को वोट दिया, उसने इनका जमकर उपयोग किया और काम निकल जाने के बाद दूध की मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया और जिस पार्टी को वोट और नोट दिया, आज वह भी वोट के खातिर इनको भूल ब्राह्मण, बनियों और राजपूतों अर्थात् दबंगों के साथ हाथ मिला चुकी है. ऐसे में दलित चैराहे पर खड़ा है कि आखिर जाये तो कहां जाये? यह लिखते कोई संकोच नहीं कि दलितों के नेता या तो बिकाऊ होते हैं या दल-बदलू. थोड़ा सा भी फायदा देखा कि डगमग डोल जाते हैं और अपने सिद्धान्तों को ताक में रख देतें हैं.

बाबा साहेब के सिद्धान्त त्रयी में उक्त घटनाओं का समाधान नजर आता है. शिक्षा के जरिये हमें अपने-पराये की पहचान होनी चाहिये. प्रयास यह करना चाहिये कि जो लोग किसी भी प्रकार के लालच अथवा दबाव में आकर अपने वर्ग के हितों को छोड़ रहे हैं, उनको समाज से जोड़े रखा जाये. इसके बाद जो सबसे महत्त्वपूर्ण बात है वो यह कि दलित समाज के प्रबुद्ध जनों को जातीय हितों की अपेक्षा वर्ग हितों को प्राथमिकता देना चाहिये.

आज भी दलित जातियों में संगठन का भारी अभाव है और इसके नतीजे सामने हैं. संगठन के ही अभाव में अत्याचारियों को उचित सबक नहीं मिल पाता, रिपोर्ट तक दर्ज नहीं हो पाती, ढंग से तफ्तीश नहीं होती और कई मामलों में तो एफ आर लगा दी जाती है. दलितों में आज तक जो संगठन हुआ है वह सतही और अधिकतर राजनैतिक फायदे के लिये है. जो संगठन है वह स्वार्थों के चलते इतने खण्डों में बंट गया है कि दलितों का ही विश्वास नहीं जीत पा रहे हैं. आज दलित समाज के दुख-दर्द को विश्व पटल पर रखने वाला और इनके पक्ष में खड़ा होकर दोषियों को सजा दिलवाने वाला कोई संगठन नहीं है. जो संगठन हैं वे अपने-अपने दायरे में सीमित हैं. इसी कारण आज भी पुरानी वर्जनायें जारी हैं, दलितों को दोयम दर्जे का नागरिक समझा जाता है और मनचाहा दुव्यर्वहार कर लिया जाता है. चूंकि सारे मीडिया पर कब्जा भी इनका ही है, अतः इस प्रकार की घटनाओं को बहुत कम प्रकाश में लाया जाता है अथवा तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाता है. कहीं गौवध का संभावित आरोपी मानकर हत्या कर दी जाती है तो कही दूल्हे को घोड़ी पर से उतारा और पीटा जाता है. कहीं बहिन-बेटियों की इज्जत से खिलवाड़ किया जाता है तो कहीं जमीनें हड़प ली जाती है और ट्रैक्टर के पहियों तले रौंद दिया जाता है. जैसे कि यह रोज का नियम हो गया है.

इन सबके पीछे कारण एक ही है कि दलित समाज संगठित नहीं है. और जो हजारों संगठन बने हुए हैं उनको अपनी-अपनी दुकानें चलाने से ही फुर्सत नहीं है. चुनावों के दिन आने वाले हैं, सबके-सब दोनों राजनैतिक पार्टियों के तलवे चाटने में व्यस्त हैं कि कहीं से टिकट मिल जाये तो जीत कर एमपी एमएलए बन जाये फिर पुश्तों का इंतजाम हो जायेगा. दलितों की कौन सोचता है?

अभी हाल ही में 11 जून, 2018 के राजस्थान पत्रिका में 12 मई, 2018 की घटना की खबर ठीक एक महीने बाद छपी है. खबर के अनुसार कानपुर देहात में दलित समाज की एक लड़की का उसी की शादी के दिन पांच रसूखदारों ने अपहरण कर बन्धक बना आठ घण्टे तक कई बार रेप किया जबकि उसकी बारात उसके दरवाजे पर पंहुच चुकी थी. उसकी मां सिर पटती रही, लेकिन दरिन्दों ने उसकी एक नहीं सुनी. उसकी शादी होने के बाद अगले ही दिन ससुराल वालों ने उसके जिस्म पर घाव देखकर मामला पूछा और उसे निकाल दिया. रसूलाबाद थाने में मुकदमा दर्ज नहीं हुआ. जब युवती ने राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग में गुहार की तब जाकर महीने भर बाद मुकदमा दर्ज हुआ और कार्रवाही शुरु हुई.

क्या दलितों के वोट और नोट के बल पर यूपी में पांच बार सरकार बनाने वाली बहुजन समाज पार्टी का दायित्व नहीं बनता कि इस घटना के विरोध में आंदोलन करे, पीड़िता को सुरक्षा दे और अपराधियों को फांसी के तख्ते तक पहुंचाये? समाजिक कार्यों में हमें मिशनरी भावना से कार्य करना होगा. वह मिशनरी भाव यह है कि दलित का वोट उसी पार्टी को जाये, जो वास्तव में हमारा भला करे. रोटी बेटी का रिश्ता दलित समाज में ही हो. समाज का हर व्यक्ति हार्दिक रूप से यथा संभव दूसरों की सहायता करे. राजनैतिक पार्टियां स्थाई नहीं होती हैं ये तो आती जाती रहती हैं. अगर सामाजिक रुप से सशक्त हो गये तो सरकारें बनाना कोई बड़ी बात नहीं है.

दलित जातियों को आपस में संगठित होकर एक वर्ग का रूप लेना चाहिये. रैगर, भाम्बा, बैरवा, मोची, जीनगर, मेघवाल, खटीक, कोली, धोबी, मेहतर आदि को यह समझना होगा कि अब पुराने विवादों को त्यागना होगा, नये विवाद खत्म करने होंगे और आपस में संगठित रहना होगा. किसी एक की विपत्ति सबकी विपत्ति समझी जाये और इसका उसी तरह विरोध हो जिस तरह कि खुद की विपत्ति का होता है. यदि आज किसी रैगर या धोबी समाज के दूल्हे को घोड़ी पर से उतारा जाता है तो अन्य जातियों का दायित्व है कि सब आपस में मिलकर विरोध करें और दोषियों को कठोरतम दण्ड दिलवायें. शक्ति प्रदर्षन करना हो तो सब साथ में करें. आश्चर्य है कि कानपुर दुष्कर्म काण्ड में अभी तक ऐसा कुछ नहीं हुआ जो कि जागृत प्रदेश कहा जाता है! शीर्ष नेतृत्व समाजिक-राजनैतिक संगठनों को करना चाहिये और विरोध प्रदर्शन सारे देश में ठीक उसी तरह हो जैसा कि 2 अप्रैल, 2018 को किया गया था. अपराधियों को नये कानून के तहत सरेआम फांसी पर लटकाया जाये, ताकि अपराधियों को सजा मिलने के साथ साथ इस तरह के विचार रखने वालों को भी नसीहत मिल सके और आगे इस प्रकार की घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो.

श्याम सुन्दर बैरवा

सहायक प्रोफेसर (वस्त्र रसायन)

माणिक्यलाल वर्मा टेक्सटाईल्ज एवं

इंजीनियरिंग कॉलेज, भीलवाड़ा

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