घटना उन दिनों की है, जब साहब नागपुर की रैली के लिए आये थे. रविभवन के सरकारी कॉटेज पर रुके थे. रैली दूसरे दिन दोपहर को होनेवाली थी. अत: आज शाम का समय साहब कार्यकर्ताओं के साथ बातचीत में गुजार रहे थे. उस कमरे में कुछ प्रमुख कार्यकर्ता उपस्थित थे. साहब कार्यकर्ताओं से उनका हालचाल पूछ रहे थे. कुछ पार्टी की बातें तो कुछ अवांतर चर्चा चल रही थी. उस समय कुछ बड़े राजनीतिक नेताओं पर जानलेवा हमले किये जाने की खबरे सुर्ख़ियों में थी. उस समय साहब पुरे देश में बगैर सेक्युरिटी से भ्रमण करते थे. इस बात पर चिंता जताते हुए एक कार्यकर्ता ने साहब से कहा,
“साहब! आपको अपनी सुरक्षा पर ध्यान देना चाहिए. वक्त अच्छा नहीं है. सिरफिरे मनुवादी आपको नुकसान पहुंचा सकते हैं”
इस पर प्रत्यक्ष जवाब न देते हुए मान्यवर कांशीरामजी ने एक कहानी सुनायी. वे बोले, “हमारे पंजाब में एक कहावत है, ‘कच्चे घड़े पर तरना तो मरने से क्या डरना’ पंजाब में जो दिवाने युवक होते थे वे अपनी नदी पार रहने वाली प्रेमिका को मिलने के लिए बेसब्र होते थे. उस समय नदी पार करने के लिए आज की तरह बोट आदि साधन नही होते थे. लकड़ी की नौका भी उस समय उपलब्ध नही होती थी. अत: दिवाने युवक नदी पार रहनेवाली अपनी प्रेमिका को मिलने के लिए कुम्हार के मटके का इस्तेमाल किया करते थे. वे कुंभार के आंगन से मटका उठाकर उसको पकड़कर नदी पार करते थे. यह मटका उन्हें डूबने से बचाता था.”
“बाबासाहब के मिशन को ईमानदारी से आगे बढ़ाया है मैंने. अब अगर मौत भी आ जाए तो मरने का गम नही होगा.”
“मगर कभी-कभी गलती से कच्चा मटका उनके हाथ लग जाता था. दिवानगी की धुन में वे कच्चे मटके की ओर ध्यान नही दे पाते थे. और कच्चे मटके के साथ नदी की धार में कूद जाते थे. जब वे मंझधार में पहुंचते थे तो कच्चे मटके की मिट्टी गलने लगती थी. मटके में पानी भर जाता था और प्रेमिका के मिलन को तरसाने वाला वह युवक नदी में डूब जाता था.”
मान्यवर कांशीरामजी ने आगे कहा, “मेरी स्थिति भी कुछ इस प्रकार है! मैं जिस बहुजन समाज को साथ लेकर सम्पूर्ण परिवर्तन के मकसद की ओर तैर रहा हूं, वह समाज कच्चे मटके की तरह है. हमारा समाज आज भी गरीब, निरक्षर और नादान है. अपने अच्छे-बुरे की उसे पहचान नहीं है. कर्तव्य के प्रति वह कठोर नहीं है. जल्द ही मनुवादियों की लालच में आ जाता है. संकुचित स्वार्थ के खातिर आपस में टूट जाता है. ऐसे समाज को साथ लेकर मै तैर रहा हूं. मैंने अपना पूरा जीवन दांव पर लगाया है. मेरी हिफाजत करने की जिम्मेदारी मेरे समाज की है. मगर मेरा समाज आज इस बात के प्रति भी अनजान है. उसमें जागृति का अभाव है. ऐसे में कभी भी मेरे साथ धोखा हो सकता है. मगर मुझे अब इसकी परवाह नहीं है. क्योंकि नदियां पार करने की धुन मेरे सिर पर सवार है. अब किनारा पार करूं या मंझधार में खो जाऊ. मुझे इसकी चिंता नही है.”
सब कार्यकर्ता गम्भीरता से साहब की बात सुन रहे थे. साहब बोलते जा रहे थे… उन्होंने आगे कहा,
“साथियों, वैसे तो मैंने काफी अंतर तैर लिया है. काफी अंतर पार कर चूका हूं. जो लक्ष्य पाना चाहता था उसके करीब पहुंच चुका हूं. इस देश के बहुजन समाज को काफी आगे बढ़ाया है मैंने. उनके पैरों में चलने की ताकत पैदा कर दी है. बाबासाहब के मिशन को ईमानदारी से आगे बढ़ाया है मैंने. अब अगर मौत भी आ जाए तो मरने का गम नही होगा.”
कहते-कहते साहब अचानक भावविभोर हो गये. अनायास उनकी आंखों में आंसू तैरने लगे. उनके साथ सारे कार्यकर्ताओं की आंखे भर आयी.
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