24 जनवरी, 1924 को बिहार के समस्तीपुर जिले के पितौझिया को अपने जन्म से धन्य करने वाले कर्पूरी ठाकुर वंचित बहुजन समाज में जन्मे उन दुर्लभ नेताओं में एक रहे, जिन्होंने स्वाधीनता संग्राम में प्रभावी योगदान के साथ स्वाधीन भारत की राजनीति में भी अमिट छाप छोड़ी। उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन से हुई थी। इस आन्दोलन को कुचलने के लिए जब अंग्रेजों ने दमनात्मक कार्यवाई की तब युवा कर्पूरी ने गोरिल्ला संघर्ष की नीति का अवलंबन किया। इस क्रम में उन्हें अपनी उच्च शिक्षा बी.ए तृतीय वर्ष में ही समाप्त कर देनी पड़ी। गोरिल्ला संघर्ष के दौरान उन्होंने नेपाल की सरहद से आन्दोलन चलाया। आन्दोलन शांत होने पर वो वापस पितौझिया लौटे और शिक्षक की नौकरी करने लगे।
उनके शिक्षण कार्य के दौरान ही जब जय प्रकाश नारायण ने हजारीबाग जेल से छूटने के बाद ‘आज़ाद दस्ता ‘गठित किया, विप्लवी कर्पूरी उसके सदस्य बन गए। इस दस्ते से जुड़कर अंग्रेजी शासन के खिलाफ अभियान चलाने के जुर्म में उन्हें 23 अक्तूबर, 1943 को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। जेल में उन्होंने अपनी मांगे मनवाने के लिए भूख हड़ताल कर दी, जो 27 दिनों तक चली। इससे जेल में बंद राजनीतिक बंदियों के बीच उन्होंने भारी सम्मान अर्जित कर लिया। तेरह माह बाद जब कर्पूरी ठाकुर जेल से रिहा हुए, तभी कई लोगों ने उनके भविष्य का नेता होने की घोषणा कर दी। मार्च 1946 में उन्होंने सोशलिस्ट पार्टी की सदस्यता ग्रहण की और 1947 तक वे इस पार्टी के जिला मंत्री रहे। इस दौरान उन्होंने यासनगर और विक्रम पट्टी के जमींदारों के खिलाफ बकारत आन्दोलन चलाकर वंचितों में 60 बीघे जमीन वितरित करवा दिया। बाद में पार्टी में उनका प्रमोशन हो गया और वे 1948 से 1953 तक सोशलिस्ट पार्टी के प्रांतीय सचिव रहकर पार्टी की विचारधारा जन-जन तक पहुंचाते रहे।
स्वाधीन भारत की राजनीति में सही मायने में उन्होंने अपनी उपस्थिति 1952 के पहले विधानसभा चुनाव में दर्ज कराया, जब वे ताजपुर विधानसभा क्षेत्र से सोशलिस्ट पार्टी के प्रार्थी के रूप में चुनाव जीतने में सफल रहे। उसके बाद तो उन्होंने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। कर्पूरी जी 1952 के बाद 1957 और 1962 में भी चुनाव जीतने में सफल रहे। बाद में जब लोहिया ने ‘कांग्रेस हराओ, देश बचाओं’ का नारा उछाला, तब कर्पूरी ठाकुर न सिर्फ एक बार फिर से चुनाव जीते, बल्कि बिहार के महामाया सरकार में उप मुख्यमंत्री भी बने। 1970 का मध्यावधि चुनाव जीतने बाद वह 22 दिसंबर, 1970 को बिहार के मुख्यमंत्री बनें। उनकी जाति को देखते हुए तब यह असंभव माना जाता था, लेकिन उन्होंने यह कारनामा कर दिखाया। खास बात यह रही कि वो कभी रबर स्टाम्प सीएम नहीं रहें, बल्कि जनता के लिए जो बेहतर फैसला था, खुल कर लिया।
1972 में बिहार विधानसभा के चुनाव हुए जिसमें कांग्रेस सत्ता पर पुनः कब्ज़ा जमाने में सफल रही। किन्तु उस प्रतिकूल राजनीतिक हालात के बावजूद कर्पूरी ठाकुर बिहार विधान सभा में पहुचने में सफल रहे। उसके बाद आया 1974 का घटना बहुल दौर। जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने 18 मार्च, 1974 को बिहार में छात्र आन्दोलन की शुरुआत की। उनके आह्वान पर जिस शख्स ने सबसे पहले विधान सभा की सदस्यता का परित्याग कर उनके साथ चलने का मन बनाया; वह कर्पूरी ठाकुर रहे।
जेपी का आन्दोलन बड़ी तेजी से विस्तार लाभ करते जा रहा था, जो देश में इमरजेंसी का कारण बना। इस दौरान 26 जून को अधिकांश नेता मीसा में गिरफ्तार कर लिए गए। इस स्थिति में गोरिल्ला संघर्ष के माहिर कर्पूरी फिर नेपाल चले गए और वहां के जंगलों में रहकर आन्दोलनकारी छात्रों और आन्दोलन समर्थक दलों के कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शन करने लगे। जल्द ही नेपाल की पुलिस को कर्पूरी ठाकुर की भूमिगत गतिविधियों की जानकारी मिल गयी। इसकी भनक लगते ही वे 5 सितम्बर, 1975 को चेन्नई के लिए निकल गए। इस नाजुक दौर में वे तरह-तरह का वेश बदलकर मुंबई, दिल्ली, गोरखपुर, लखनऊ, बनारस इत्यादि जगहों से जेपी आन्दोलन को बल प्रदान करते रहे। आखिरकार आपातकाल का दौर ख़त्म हुआ और जेपी आन्दोलन से जुड़े बहुतों की तरह कर्पूरी ठाकुर को योग्य पुरस्कार मिला।
आपातकाल की समाप्ति के बाद 1977 में लोकसभा चुनाव हुआ जिसमें कई गैर-कांग्रेसी दलों के विलय से बनी जनता पार्टी ने चुनावी सफलता के नए प्रतिमान स्थापित किये। जून 1977 में ही बिहार विधानसभा का चुनाव हुआ जिसमें जनता पार्टी लोकसभा चुनाव की भांति ही विजयी रही। मुख्यमंत्री पद की दावेदारी सत्येन्द्र बाबू और कर्पूरी ठाकुर के बीच थी, जिसमें कर्पूरी सफल रहे। मुख्यमंत्री बनने के बाद वे फुलपरास उप चुनाव में विजयी होकर एकबार फिर विधायक बने। मुख्यमंत्री बनने के बाद यूँ तो उन्होंने कई बड़े काम किये, किन्तु जिस तरह उन्होंने 1978 में पिछड़ी जातियों और कमजोर वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में 26 प्रतिशत आरक्षण लागू किया, वह सामाजिक न्याय के इतिहास में मील का पत्थर बन गया। उस जमाने में कर्पूरी ठाकुर ने पिछड़ों के लिए 26 प्रतिशत आरक्षण लागू कर कितने साहस का काम किया इसका अनुमान वे ही लगा सकते हैं, जिन्होंने मंडल उत्तर काल के इतिहास को चाक्षुष (आंखों से देखा) किया है।
स्मरण रहे 7 अगस्त, 1990 को मंडलवादी आरक्षण की घोषणा के बाद जहां सदियों के परम्परागत रूप से सुविधा संपन्न व विशेषाधिकार युक्त तबके की काबिल संतानों ने आत्म-दाह से लेकर राष्ट्र के संपदा दाह का अभियान छेड़ा, वहीं वर्तमान में देश की सबसे बड़ी पार्टी की ओर से रामजन्म भूमि मुक्ति आन्दोलन छेड़ दिया गया, जिसके फलस्वरूप असंख्य लोगों की प्राण हानि और राष्ट्र की कई हजार करोड़ की संपदा की हानि हुई। बाद में जब 2006 में पिछड़ों के लिए उच्च शिक्षण संस्थानों के प्रवेश में आरक्षण लागू हुआ। सवर्णों की काबिल संताने सरफरोशी की तमन्ना लिए मंडल-2 के खिलाफ फिर सडकों पर उतर आयीं। उसके बाद 2013 में जब उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग में त्रि-स्तरीय आरक्षण लागू हुआ, जिसे यह लेखक मंडल-3 कहता है, सवर्णों का शिक्षित युवा वर्ग फिर सड़कों पर उतर आया।
साफ है कि सत्तर के दशक में प्रतिकूल स्थिति में कर्पूरी ठाकुर ने पिछड़ों के लिए 26 प्रतिशत आरक्षण लागू करने का साहस दिखाया, उससे समाज को बहुत लाभ मिला लेकिन इस दुस्साहस की उन्हें कीमत भी अदा करनी पड़ी। उनके निर्णय के विरुद्ध सवर्ण सडकों पर उतर आए और कर्पूरी ठाकुर के खिलाफ जमकर जातिवादी नारे लगाएं। यहां सुनने में वो भले असभ्य लगें लेकिन उसे बताना इसलिए जरूरी है कि आरक्षण के खिलाफ सवर्ण किस तरह वंचित समाज के एक मुख्यमंत्री को खुलेआम भद्दे नारे गढ़ ललकार रहे थे। तब सवर्णों ने नारा लगाया- ‘आरक्षण कहाँ से आई – कर्पूरी की माँ बियाई’, ‘कर्पूरी कर्पूरा-छोड़ गद्दी पकड़ उस्तुरा’। हमेशा की तरह मीडिया भी आरक्षण विरोधी माहौल बनने में जुट गयी। फलस्वरूप 18 महीने बाद ही उन्हें आरक्षण लागू करने के कारण मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। ऐसा नहीं कि कर्पूरी ठाकुर इस अंजाम से नावाकिफ थे। उन्हें अंजाम पता था, बावजूद इसके उन्होंने वंचितों के हित में उस ज़माने में आरक्षण लागू करने का जोखिम लिया। यह बात उन्हें महान और जन नायक बनाती है।
कर्पूरी ठाकुर ने न सिर्फ सामाजिक न्याय के मोर्चे पर अद्भुत दृष्टान्त स्थापित किया, बल्कि ईमानदारी की भी दुर्लभ मिसाल कायम की। काबिले गौर है कि कर्पूरी उस नाई जाति से थे; जिस जाति का संख्या बल मतदान को प्रभावित करने की स्थिति में कभी नहीं रहा। बावजूद इसके 1952 से लेकर अपने जीवन की शेष घड़ी तक वह विधायक, एक बार सांसद, एक बार उप मुख्यमंत्री और दो बार मुख्यमंत्री बने। राजनीति की इतनी बुलन्दियाँ छूने के बावजूद कर्पूरी ठाकुर का न तो कोई अपना बंगला-गाड़ी और टेलीफोन रहा और न ही बैंक बैलेंस। रहा तो बस पितौझिया (वर्तमान में कर्पूरी ग्राम) का अपना खपरैल का पुश्तैनी मकान।
कर्पूरी ठाकुर का बेदाग़ जीवन आज के सामाजिक न्याय के नायक/नायिकाओं के लिए प्रेरणा का एक विराट विषय होना चाहिए। फुले, शाहूजी, पेरियार, बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर, कांशीराम, जगदेव प्रसाद, कर्पूरी ठाकुर जैसों के प्रयास से आज बहुजन समाज में इतनी राजनीतिक चेतना आ गयी है कि उसका उपयोग कर सामाजिक न्याय के नायक/नायिका बड़ी आसानी से केंद्र की सत्ता दखल कर सामाजिक बदलाव का सपना पूरा कर सकते हैं। किन्तु वंचित जातियों के विपुल समर्थन से पुष्ट सामाजिक न्याय के नायक/नायिका घपला-घोटालों में फंसकर अपना तेज खोकर खुद करुणा के पत्र बन चुके हैं। इससे भारत में सामाजिक न्याय का संघर्ष दम तोड़ता नजर आ रहा है। काश! बहुजन समाज के नेता सामाजिक न्याय की राजनीति के पुरोधा व ईमानदारी के एवरेस्ट कर्पूरी ठाकुर का अनुसरण किये होते तो बहुजन आंदोलन आज एक अलग मुकाम पर होता।
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डायवर्सिटी मैन के नाम से विख्यात एच.एल. दुसाध जाने माने स्तंभकार और लेखक हैं। हर विषय पर देश के विभिन्न अखबारों में नियमित लेखन करते हैं। इन्होंने कई किताबें लिखी हैं और दुसाध प्रकाशन के नाम से इनका अपना प्रकाशन भी है।