हाल ही में कुमार विश्वास ने डॉ. अम्बेडकर पर जो टिप्पणी की है उसके मद्देनजर कुछ बातें समझनी और समझानी जरुरी हैं. एक सुशिक्षित व्यक्ति द्वारा अम्बेडकर पर जातिवाद के बीज बोने का आरोप लगाना और उसकी अगली ही सांस में अपने खुद के घर में पलते आये जातिवाद और सामंतवाद को बड़े अजीब तरीके से एक अच्छा उदाहरण बनाकर पेश करना एक विचित्र बात है. वे मात्र डेढ़ मिनट के अंदर अम्बेडकर पर जातिवादी होने का आरोप लगा देते हैं और अपनी दादी से साथ दहेज़ में गुलाम की तरह आई एक दलित सफाईकर्मी महिला का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि किस तरह वह महिला हमारी मां और चाची को ठीक से घूँघट न काढ़ने पर गालियां दिया करती थीं और उस गाली के भय से ब्राह्मणी परिवार की ये महिलायें उनसे घबराती थीं.
कुमार विश्वास कहते हैं कि आजकल यह बदल गया है. गांव पहले जैसे नहीं रहे हैं. कोई नेता आरक्षण और जातिवाद की राजनीति करने आया और कुमार विश्वास के गांव और परिवार में जो ‘आदर्श स्थिति’ बनी हुई थी उसे भंग करके चला गया. ये व्यक्ति या नेता कौन है जिसने कुमार विश्वास के राम-राज्य को नष्ट कर दिया? वे स्वयं इसका उत्तर देते हैं- कहते हैं “एक व्यक्ति आया जिसने आरक्षण की जातिवाद की राजनीति शुरू की” निश्चित ही ये आदमी डॉ. अम्बेडकर हैं.
अब सवाल ये उठता है कि क्या कवि कुमार विश्वास किसी भूल चूक में ऐसा वक्तव्य दे रहे हैं? या वे बीजेपी आरएसएस स्टाइल ध्रुवीकरण की राजनीति कर रहे हैं? या क्या वे सच में अपनी नैतिकताबोध और सभ्यताबोध का परिचय दे रहे हैं? इन तीनों संभावनाओं को समझिये, वे किसी भूल चूक में वक्तव्य नहीं दे रहे हैं. ये कोई स्टिंग ओपरेशन की सीडी नहीं है बल्कि वे सार्वजनिक रूप से एक जिम्मेदार मंच से और सोच समझकर बोल रहे हैं. दूसरी संभावना ये है कि क्या वे ध्रुवीकरण की राजनीति कर रहे हैं? कुमार संभवतया आम आदमी पार्टी की तरफ से दलित और हिन्दू ध्रुवीकरण की राजनीति नहीं कर सकते.
ठीक से देखें तो अभी के हालात में कोई भी पार्टी दलित-हिन्दू ध्रुवीकरण करके जीत नहीं सकती क्योंकि राजनीतिक रूप से सफलता तय करने की स्थिति में अभी भी हिन्दू मुस्लिम ध्रुवीकरण ही जरुरी बना हुआ है, अभी इसी गाय में इतना दूध बचा हुआ है कि इससे अगले कई चुनाव जीते जा सकेंगे, इसलिए इस मुद्दे को छोड़कर कोई नये ध्रुवीकरण की कल्पना केजरीवाल या कुमार विश्वास नहीं कर सकते. दलित –हिन्दू ध्रुवीकरण को चुनावी राजनीति की सफलता की रणनीति बनाना अभी कम से कम आम आदमी पार्टी के लिए असंभव है.
तीसरी संभावना को देखिये, क्या वे इमानदारी से अपने सभ्यताबोध और नैतिकताबोध का परिचय दे रहे हैं? मेरा मानना है कि यही बात सच है. वे एक बहुत गहरी ब्राह्मणवादी मानसिकता को सहज ही उजागर कर रहे हैं. उनके मन में कभी ये बात नहीं उठती कि कोई स्त्री किसी दुसरी स्त्री के साथ आजीवन गुलाम की तरह दहेज़ में कैसे दी या ली जा सकती है? फिर वे ये भी नहीं सोच पाते कि उस महिला को आजीवन सफाई का काम ही क्यों करना है? आगे वे ये भी नहीं सोच पा रहे कि अपने ही ब्राह्मण परिवार की स्त्रियों को घुंघट क्यों करना है? आगे वे ये भी नहीं सोच पा रहे हैं कि उस ‘गुलाम’ दलित महिला को किस स्त्रोत से इतना साहस मिल जाता है कि वह एक ब्राह्मण स्त्री को घुंघट न कर पाने की स्थिति में उसी के पति के सामने चुनौती दे दे?
इन बिन्दुओं को ध्यान से समझिये. ये असल में भारत में फैले ब्राह्मणवाद और उसके गर्भ से निकले बर्बर धर्म के जहर का असली स्वरुप है जिसने इस मुल्क को गुलाम अन्धविश्वासी और असभ्य बनाये रखा है. इन बिन्दुओं में प्रवेश करते हुए आप एक विशेष तरह की नैतिकता, न्याय और सभ्यता को देख पायेंगे जो आपको सिर्फ भारत के ब्राह्मणवादियों के घर में ही मिलेगी.
संजय श्रमण गंभीर लेखक, विचारक और स्कॉलर हैं। वह IDS, University of Sussex U.K. से डेवलपमेंट स्टडी में एम.ए कर चुके हैं। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस (TISS) मुंबई से पीएच.डी हैं।