‘साहित्य की छन्नी’ शीर्षांकित अपने लेख में संजय कुंदन जी लिखते है, “फेसबुक और व्हॉट्सऐप सोशल मीडिया के वो भाग हैं जो साहित्यिक प्रवृत्ति वाले लोगों को सबसे ज्यादा रास आए हैं. फेसबुक पर सार्वजनिक रूप से और व्हॉट्सऐप पर निजी स्तर पर अपने आपको प्रतिष्ठित किया जा सकता है. फेसबुक और व्हॉट्सऐप के जरिए आप कुछ ही दिनों में राष्टीय और अंतरराष्टीय स्तर पर ख्यातिलब्ध कवि अथवा लेखक बन सकते हैं.” चन्दन जी के इस आकलन में सच्चाई साफ झलकती है. फेसबुक और व्हॉट्सऐप सोशल मीडिया पर देखी जाने वाली पोस्टस से पता चलता है कि न जाने कितने ही नए-पुराने कवि रोतोंरात ‘राष्ट्र कवि’ ही नहीं अपितु ‘विश्व कवि’ तक बन गए या फिर बना दिए गए.
मेरे दिमाग में भी कुन्दन जी के विचार के समकक्ष यह विचार आया है कि कभी साहित्य में छायावाद, प्रगतिवाद आदि आदि वाद आते रहे और जाते रहे किंतु फेसबुक और व्हॉट्सऐप के इस जमाने में साहित्य में एक और वाद ने जन्म लिया है और वह है “बधाईवाद”. किसी को कुछ अच्छा लगे न लगे फेसबुक और व्हॉट्सऐप पर अपने मित्रों या अमित्रों द्वारा की गई पोस्ट्स पर “बधाई” टंकित करना इसलिए जरूरी हो गया लगता है कि यदि किसी अमुक फेसबुक फ्रेंड ने अपने फेसबुक फ्रेंड को “लाइक” अथवा “बधाई” नहीं दी तो वह भी उसे “लाइक” अथवा “बधाई” नहीं देगा. वैसे ये परम्परा कोई नई परम्परा नहीं है. फेसबुक और व्हॉट्सऐप के जमाने से पहले भी लोग एक-दूसरे से रूबरू हो अथवा मंचों पर, एक-दूसरे की इसी आश्य से प्रसंशा करते होंगे.
साहित्य जगत में ‘तू मुझे पंडा कह, मैं तुझे पंडा कहूँ’ की परम्परा कोई नई नहीं, पुरानी है. फेसबुक और व्हॉट्सऐप ने तो इसे और आगे बढ़ाने का काम किया है, ऐसा मेरा मानना है. यहाँ यह जानना बहुत जरूरी है कि बधाईवाद वो परम्परा है, जिसमें बेचारे साहित्यकार एक – दूसरे बेचारे साहित्यकार को इच्छा-अनिच्छा से बधाई देने को मजबूर होते हैं. सोशल मीडिया पर आजकल ये चलन जोरों से फल-फूल रहा है. किताब आती नहीं, उसका कवरपेज फेसबुक और व्हॉट्सऐप पर प्रसारित हो जाता है. और बधाईयों का तांता लग जाता है. कल तक का गुमनाम लेखक/कवि रातोंरात सुर्खियों में आ जाने के भ्रम में झूम उठता है. यहीं से ये सिलासिला भी जारी होता है कि मुझे किसने लाइक किया, किसने नहीं.
अब जिसने भी अमुक लेखक/कवि को लाइक किया है, जाहिर है वो भी उन लेखकों/कवियों को इच्छा-अनिच्छा से बधाई देने का मन बना लेता है. और् जिन्होंने उसके हक में कुछ भी नहीं किया, उसे नकारने या उपेक्षा का पात्र समझने का उपक्रम करता है. देखा यह भी गया है कि प्राय: फेसबुकिया मित्र अपने मित्रों द्वारा की गई टिप्पणियों को बिना पढ़े ही लाइक करने के अलावा कोई और टिप्पणी नहीं करते. क्योंकि किसी भी पोस्ट पर टिप्पणी करने के लिए पोस्ट को पढ़ना भी पड़ेगा और दिमाग पर जोर भी देना पड़ेगा. …. हाँ! अतार्किक टिप्पणी करने वालों की भरमार जरूर देखी जाती है. किंतु उनमें अक्सर राजनीतिक मूड के छुटभैये नेता ही ज्यादा होते हैं या फिर तथाकथित धार्मिक कट्टरवाद के समर्थक.
यह तर्क बिला वजह ही नहीं दिया जाता है कि आज बाजार में जब प्रचार के बगैर कुछ भी नहीं चलता तो क्यों न रचनाकार भी अपनी कृतियों का प्रचार करे. इससे उसकी किताबें बिकें न बिकें किंतु रचनाकार विशेष साहित्यकारों की पंक्ति में तो दर्ज हो ही जाएगा. इस युक्ति को आधार बनाकर हिंदी के रचनाकार अब खुद अपनी कृतियों के प्रचार में खुद ही जुट गए हैं. किंतु कोई माने न माने ऐसे लेखक\कवि अपनी रचनाओं का प्रचार करते-करते खुद ही घोर आत्मप्रशंसा के गर्क में चले जाते हैं. किसी ने कहा है कि दरअसल विज्ञापन और आत्मप्रशंसा में एक बारीक रेखा है, जिसे समझने की जरूरत है. जब कोई लेखक बताता है कि उसकी अमुक किताब आई है, तो यह एक विज्ञापन है. इसमें कुछ भी गलत नहीं है. लेकिन जब वह रोज-रोज यह बताना शुरू कर देता है कि अमुक आलोचक ने इसे महान बताया, तो यह एक तरह से खुद ही मूल्यांकन करना हुआ. कई लेखक तो यह बताना शुरू कर देते हैं कि फलां कस्बे से एक पाठक का फोन आया और उसने कहा कि ऐसी रचना तो मैंने आज तक पढ़ी ही नहीं थी. क्या यह आत्मप्रशंसा नहीं? मेरा मानना है कि इस प्रकार की गतिविधियों से बचना चाहिए.
हद तो जब पार हो जाती है तब कुछ लेखक अपनी किताब के साथ जानेमाने अफसरों, खिलाड़ियों और नेताओं की तस्वीरें पोस्ट करना शुरू कर देते हैं. ऐसा करना अपनी रचना के प्रति सम्मान न करने बराबर है. समर्थ साहित्य को किसी की बैसाखियों की जरूरत नहीं होती. कबीर, रैदास, अब्दुल रहिम खानखाना, मीरा, सूरदास, रसखान आदि का वो जमाना था कि जब फेसबुक और व्हॉट्सऐप जैसा कोई सोशल मीडिया नहीं होता था किंतु ऐसे रचनाकार अपने कथन के बल पर आज तक भी जिन्दा है और रहेंगे. छायावादी और प्रगतिवादी साहित्यिक काल के अनेक साहित्यकार अपने साहित्य के लिए सर्वत्र जाने जाते हैं.
कोई माने न माने, सच तो यह है कि सोशल मीडिया ने लोगों को आत्ममुग्ध बनाया है, जिनमें लेखक ही नहीं, समाज का हर वर्ग भी शामिल है. कमाल तो ये है कि मैंने बहुत कम लेखकों को दूसरे साहित्यकारों की रचनाओं के बारे में यह बात करते हुए देखा है कि फलां की रचनाएं उसे बहुत अच्छी लगीं. बस! ‘लाइक’, ‘बधाई’, ‘उम्दा’, ‘क्या कहने’, ‘ प्रयासजारी रखें’ जैसी टिप्पणीयां ही फेसबुक और व्हॉट्सऐप पर अक्सर देखने को मिलती हैं. इससे सिद्ध होता है कि हिंदी के लेखकों में आत्मविश्वास और धैर्य में कहीं न कहीं कुछ न कुछ कमी तो जरूर है. स्मरण रहे कि खूब शोर मचाकर अपनी रचना को महान साबित नहीं किया जा सकता. अनावश्यक कूद-फांद कर ऐसा करने वाले कवि/लेखक साहित्यिक जमात में खुद को ढलान पर ले जाने का काम कर रहे हैं. इससे उभरने की जरूरत है. साहित्यकारों को समझ लेना चाहिए कि विज्ञापन व्यापार और राजनीति का हथियार है, साहित्य का नहीं.
लेखक: तेजपाल सिंह तेज (जन्म 1949) की गजल, कविता, और विचार की कई किताबें प्रकाशित हैं- दृष्टिकोण, ट्रैफिक जाम है, गुजरा हूँ जिधर से आदि ( गजल संग्रह), बेताल दृष्टि, पुश्तैनी पीड़ा आदि (कविता संग्रह), रुन-झुन, खेल-खेल में आदि ( बालगीत), कहाँ गई वो दिल्ली वाली ( शब्द चित्र), दो निबन्ध संग्रह और अन्य. तेजपाल सिंह साप्ताहिक पत्र ग्रीन सत्ता के साहित्य संपादक, चर्चित पत्रिका अपेक्षा के उपसंपादक, आजीवक विजन के प्रधान संपादक तथा अधिकार दर्पण नामक त्रैमासिक के संपादक रहे हैं. स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर आप इन दिनों स्वतंत्र लेखन के रत हैं. हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार ( 1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से सम्मानित किए जा चुके हैं.
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