पाकिस्तानी पत्रकार हसन निसार बार बार एक शब्द दोहराते हैं “सॉफ्ट टेरोरिज्म”. इस शब्द से उनका मतलब उन वहशियाना चालबाजियों से है जिनके जरिये किसी समाज या देश मे सत्ता और धर्म के ठेकेदार अपने ही गरीबों का खून चूसते हैं.
हसन निसार बताते हैं कि ये सॉफ्ट टेरोरिज्म दूसरे रंग ढंग के किसी भी टेरोरिज्म से कहीं अधिक घातक और कारगर है. अक्सर हम हत्या, बम विस्फोट, हथियारों से हमले गोलियां चलने, तलवार चलने को ही आतंकवाद कहते हैं. लेकिन इससे भी खतरनाक एक और आतंकवाद है जो धीरे धीरे काम करता है और इस आतंक से पीड़ित आदमी या कौमें इसके खिलाफ कुछ कर भी नहीं पाती.
उदाहरण देते हुए वे कहते हैं कि गरीब और मजदूर लोगों के बच्चो के लिए स्कूल,कॉलेज, यूनिवर्सिटी, फ्री अस्पताल इत्यादि का इंतज़ाम न करते हुए उन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी जहालत और धार्मिक अंधविश्वास में कैद रखना सबसे जहरीला किस्म का आतंकवाद है.
इस आतंकवाद में इंसानों की बोटियाँ और खून बम के धमाकों में उड़ता हुआ नजर नहीं आता, लेकिन करोड़ो लोग पीढ़ी दर पीढ़ी जानवरों की हालत मे पहुँचा दिए जाते हैं.
बच्चों के लिए स्कूल नहीं हैं, स्कूल हैं तो टीचर नहीं हैं. सौ से ज्यादा तरह के स्कूल हैं जिनमें हजार तरह के सिलेबस और किताबें हैं. इन हजार तरह के स्कूलों और किताबों से पढ़कर किसी समाज के बच्चे एक-दूसरे से कोई संवाद कर सकेंगे? एक इंग्लिश मीडियम के महँगे स्कूल में पढ़ा बच्चा किसी मजदूर के सरकारी स्कूल में पढ़े बच्चे को इंसान या अपना दोस्त समझ सकेगा? क्या ये मिलकर इस मुल्क की बेहतरी के लिए कुछ कर सकेंगे?
अक्सर जब भी भारत मे किसी स्कूल बस की या किसी अन्य दुर्घटना में बच्चों की मौत होती है तब बहुत होशियारी से बच्चों की “शारीरिक मौत” तक बात को सीमित रखकर कुछ फौरी राहत के इन्तेज़ाम बाँट दिए जाते हैं. हालांकि इन इन्तेज़ामो में भी खासा अंतर होता है.
अमीर लोगों के बच्चों के साथ कुछ दुर्घटना हो जाये तो सरकार से लेकर धर्मगुरुओं तक की आंख में आंसू आ जाते हैं. अगर इन अमीरों का सरकार, प्रशासन, न्यायपालिका पुलिस आदि में दबदबा होता है. इसीलिए उनके मामले में कार्यवाही बिजली की रफ्तार से होती है.
स्कूल की बस, स्कूल की बिल्डिंग या स्कूल के मैदान में दुर्घटना होना एक मुद्दा है. लेकिन स्कूल का ही अपने आप मे एक दुर्घटना बन जाना बड़ा मुद्दा है.
भारत मे आप स्कूलों को देखिये. ये सॉफ्ट आतंकवाद के अड्डे हैं. यहां करोड़ो मासूम बच्चों को इस समाज मे उपलब्ध सबसे घटिया किताबों, सिलेबस और सबसे अयोग्य शिक्षकों के जरिये पढ़ाया जाता है. हजारों रुपये फीस देने के बावजूद उन बच्चों के बैग में जो कॉपियां और किताबें है उन्हें गौर से देखिये.
न जाने किस किस तरह के लेखक और प्रकाशक बच्चों की किताबें तैयार कर रहे हैं. मासूम और छोटे छोटे बच्चों के कंधों पर बीस से पच्चीस किताबों और कापियों का भारी बोझ होता है. होमवर्क उनके लिए एक सजा होती है और इन्हें पढाने वाले बेरोजगार और सब तरफ से ठुकराए गए शिक्षकों के लिए एकमात्र काम होता है. ये होमवर्क अक्सर बच्चो के माँ बाप करते हैं. आजकल तो होमवर्क कराने के लिए और साइंस सहित आर्ट क्राफ्ट के प्रोजेक्ट बनाने के लिए बाकायदा दुकाने भी खुल गयी हैं.
ये एक भयानक स्थिति है. भारत के गरीब और मिडिल क्लास लोगों के बच्चे इस तरह के घटिया स्कूलों में घटिया किताबो और एकदम अयोग्य शिक्षकों से पढ़ते हैं. वहीं सब तरह से इन्ही गरीबों का पीढ़ी दर पीढ़ी खून चूसने वाले अमीरों के बच्चे बेहतरीन स्कूलों में मानक किताबों और बेहतर शिक्षकों से पढ़ते हैं.
पाकिस्तान सहित भारत जैसे असभ्य समाज मे इस बात की कल्पना करना ही मुश्किल है कि कभी ऐसा समय आएगा जबकि एक कलेक्टर का बच्चा और एक गरीब ग्वाले या अहीर/यादव का बच्चा एक ही स्कूल में मानक किताबों और योग्य शिक्षकों से पढ़ सकेंगे.
जब तक इस तरह की समान शिक्षा की धारणा भारत के गरीबों पिछड़ों में नहीं आएगी तब तक वे अपने वोट का सही इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे. तब तक न ही बच्चों के साथ चल रहा ये आतंकवाद रुकेगा और न ही ये मुल्क सभ्य हो सकेगा.
-संजय श्रमण
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