वर्ग बनाम वर्ण की चर्चा इससे पहले भी होती रही है. लेकिन जब हम कार्ल मार्क्स के बरअक्स इस चर्चा को आगे बढ़ाते हैं, तो यहां पर वर्ग के मायने कुछ अलग हो जाते हैं. भारत में वर्ग के मायने होते हैं अमीर वर्ग और गरीब वर्ग. लेकिन कार्ल मार्क्स जिस वर्ग की बात कर रहे हैं, उसमें मालिक वर्ग और मजदूर वर्ग है. इसलिए हमें बहुत ही सावधानी पूर्वक इस अंतर को समझते हुए बात करनी होगी.
इसी प्रकार वर्ण की भी विभिन्न परिभाषाएं सामने आती है. कई बार वर्ण को रंगों के विभाजन के तौर पर देखा जाता है. तो कई बार वर्णों को जाति व्यवस्था की एक महत्वपूर्ण इकाई के तौर पर भी देखा जाता है. हम यहां पर चर्चा के दौरान इसे इसी परिभाषा के तौर पर आगे बातचीत करेंगे.
मार्क्स ने जिस मालिक और मजदूर की बात की और उनके संघर्ष को महत्वपूर्ण बताया तथा पूंजीवाद को इन वर्ग के सिद्धांतों के आधार पर परिभाषित किया. वह अपने स्थान पर महत्वपूर्ण है लेकिन इन सिद्धांतों को उसी वर्ग के आधार पर भारत के परिप्रेक्ष्य में लागू करना कहीं ना कहीं जल्दबाजी करने जैसा रहा है. क्योंकि भारत में वर्ग का अस्तित्व कभी भी मालिक और नौकर की तरह नहीं रहा है. भारत में पूंजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग कहा गया या फिर अमीर वर्ग गरीब वर्ग कहा गया. लेकिन जैसा रिश्ता यूरोप में मालिक और मजदूर के बीच रहा है वैसा रिश्ता भारत में अमीर और गरीब के बीच कभी भी नहीं रहा है. भारत में इन वर्गों के बीच जातीय संरचना भी है जो मालिक और नौकर के सिद्धांत पर नहीं चलती.
मुझे लगता है यह भारत के परिपेक्ष में मार्क्सवादी सिद्धांतों को मालिक और नौकर के नजरिए से नहीं बल्कि जाति व्यवस्था की जटिलताओं, उनके बीच भेदभाव उनके बीच अछूतपन और धार्मिक संहिता को ध्यान में रखते हुए देखना होगा. भारत में एक छोटी जाति का व्यक्ति अमीर तो हो सकता है. उसके कल कारखाने भी हो सकते हैं. इसके पहले भी हुए हैं. गंगू तेली का उदाहरण सामने पड़ा है. शिवाजी का उदाहरण है लेकिन इन्हें धार्मिक स्वीकृति या कहें सामाजिक राजनीतिक स्वीकृति प्रदान नहीं होती है. इस कारण राजा होने के बावजूद शिवाजी को राज तिलक करवाने के लिए पापड़ बेलने पड़ते हैं. और किसी ब्राम्हण के पैर के अंगुठे से अपने माथे पर राज तिलक करवाने के लिए मजबूर होना पड़ता है. जब हम वर्ग बनाम वर्ण की बात करते हैं यह उदाहरण बेहद महत्वपूर्ण है.
गंगू तेली और शिवाजी के उदाहरण से यह बात स्पष्ट तौर पर सामने आती है कि भारत के परिपेक्ष्य में साम्यवाद या समाजवाद, जिसकी बात कार्ल मार्क्स कहते हैं. वह और उसका आधार आर्थिक नहीं है उससे कहीं आगे है. भारत के परिपेक्ष्य में आर्थिक समानता कभी भी राजनीतिक और सामाजिक समानता का रूप नहीं ले पाती है. और ना ले पाई है. इसके तमाम उदाहरण इतिहास में मौजूद हैं. शायद मार्क्सवाद के सिद्धांत को भारत में लागू करने से पहले इन ऐतिहासिक तथ्यों को नजरअंदाज कर दिया गया.
इस कारण भारत के परिपेक्ष्य में कम्युनिस्ट विचारधारा फेल हो गई या फिर सिर्फ पूंजी की लड़ाई तक सीमित रह गई या फिर उन जगह ही रह पाई जहां पर फैक्ट्री और मजदूर रहे हैं. यह लड़ाई कभी भी किसानों तक नहीं पहुंच पाई ना ही उन दलित पिछड़ा वर्ग आदिवासियों तक पहुंच पाई जिन्हें समानता साम्यवाद या समाजवाद की जरूरत थी. उन प्राइवेट दुकानों संस्थानों तक नहीं पहुंच पाई जहां पर पढ़ा-लिखा कलम चलाने वाला मजदूर शोषण का शिकार रोज होता है.
जहां एक ओर यूरोप में पूंजीवाद के गर्भ से श्रमिक वर्ग का जन्म हुआ वहीं भारत में श्रमिक वर्ग मां के गर्भ से पैदा होता है. भारत में यूरोप का वर्ग नहीं है और जब वर्ग ही नहीं तो वर्ग संघर्ष का सवाल ही पैदा नहीं होता. बल्कि भारत में वर्ग की जगह वर्ण संघर्ष हो रहा है. जिसे मार्क्स ने भी भूल स्वीकार करते हुए कहा कि भारत में वर्ण संघर्ष ही संभव है और उसके बाद ही वर्ग संघर्ष हो सकता है. इसे इमीएस नम्बूदरीपाद ने भी स्वीकार किया, जिनके नेतृत्व में केरल में पहली बार कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनी थी. बी. टी. रणदीवे ने भी स्वीकार किया, क्योंकि भारत में सत्ता और संपत्ति पर सवर्ण वर्ग का ही कब्जा है.
दरअसल हमें मार्क्स के साम्यवाद को नए सिरे से भारत के परिपेक्ष्य में परिभाषित करना पड़ेगा. यहां पर आर्थिक समानता से कहीं ज्यादा जरूरी सामाजिक और राजनीतिक समानता की बात है. कार्ल मार्क्स ने जिन स्थानों पर काम किया वहां पर आर्थिक विषमता तो थी लेकिन सामाजिक तथा राजनीतिक विषमताएं नहीं रही. इसीलिए उन्होंने यह सिद्धांत दिया की पूंजी का समान वितरण होने पर साम्यवाद स्थापित हो सकेगा.
डॉ आंबेडकर अपनी किताब बुद्ध अथवा कार्ल मार्क्स में कार्ल मार्क्स की अवधारणा को 10 बिंदुओं में रेखांकित करते हैं. जिन पर कार्ल मार्क्स के सिद्धांत खड़े हुए हैं.
- दर्शन का उद्देश्य विश्व का पुनः निर्माण करना है ब्रह्मांड की उत्पत्ति की व्याख्या करना नहीं है.
- जो शक्तियां इतिहास की दिशा को निश्चित करती है वह मुख्यतः आर्थिक होती हैं.
- समाज दो वर्गों में विभक्त है मालिक तथा मजदूर.
- इन दोनों वर्गों के बीच हमेशा संघर्ष चलता रहता है.
- मजदूरों का मालिकों द्वारा शोषण किया जाता है. मालिक उस अतिरिक्त मूल्य का दुरुपयोग करते हैं जो उन्हें अपने मजदूरों के परिश्रम के परिणाम स्वरुप मिलता है.
- उत्पादन के साधनों का राष्ट्रीयकरण अर्थात व्यक्तिगत संपत्ति का उन्मूलन करके शोषण को समाप्त किया जा सकता है.
- इस शोषण के फलस्वरुप श्रमिक और अधिकाधिक निर्बल व दरिद्र बनाए जा रहे हैं.
- श्रमिकों की इस बढ़ती हुई दरिद्रता व निर्बलता के कारण श्रमिकों की क्रांतिकारी भावना उत्पन्न हो रही है और परस्पर विरोध वर्ग संघर्ष के रूप में बदल रहा है.
- चूंकि श्रमिकों की संख्या स्वामियों की संख्या से अधिक है. अतः श्रमिकों द्वारा राज्य को हथियाना और अपना शासन स्थापित करना स्वाभाविक है. इसे उसने सर्वहारा वर्ग की तानाशाही के नाम से घोषित किया है.
- इन तत्वों का प्रतिरोध नहीं किया जा सकता इसलिए समाजवाद अपरिहार्य है. पृष्ठ क्रमांक 346 वॉल्यूम 7
यहां पर आप देख सकते हैं कि कंडिका 9 में इस बात का जिक्र किया गया है कि श्रमिकों द्वारा उनकी संख्या ज्यादा होने के कारण बलपूर्वक अपना शासन स्थापित करना स्वाभाविक है. जिसे उन्होंने सर्वहारा वर्ग की तानाशाही नाम घोषित किया है. यानी कार्ल मार्क्स श्रमिकों के द्वारा तानाशाही शासन की अनुमति देते हैं, जबकि डॉ आंबेडकर कहते हैं बलपूर्वक प्राप्त किया गया शासन वह भी तानाशाही वाला शासन ज्यादा दिन तक नहीं टिक सकता. इससे भविष्य में भी संघर्ष की संभावनाएं बनी रहती है. वह कहते हैं, “मार्क्सवादी सिद्धांत को 19वीं शताब्दी के मध्य में जिस समय प्रस्तुत किया गया था उसी समय से उसकी काफी आलोचना होती रही है. इस आलोचना के फलस्वरुप कार्ल मार्क्स द्वारा प्रस्तुत विचारधारा का काफी बड़ा ढांचा ध्वस्त हो चुका है इसमें कोई संदेह नहीं कि मार्क्स का यह दावा कि उसका समाजवाद अपरिहार्य है पूर्णतया असत्य सिद्ध हो चुका है. सर्वहारा वर्ग की तानाशाही सर्वप्रथम 1917 में उनकी पुस्तक ‘दास कैपिटल’ समाजवाद का सिद्धांत के प्रकाशित होने के लगभग 70 वर्ष के बाद सिर्फ एक देश में स्थापित हुई थी यहां तक कि साम्यवाद जो कि सर्वहारा वर्ग की तानाशाही का दूसरा नाम है और उसमें आया तो यह किसी प्रकार के मानवीय प्रयास के बिना किसी अपरिहार्य वस्तु के रूप में नहीं आया था. वहां एक क्रांति हुई थी और इसके रूस में आने से पहले भारी रक्तपात हुआ था तथा अत्यधिक हिंसा के साथ वहां सोद्देश्य योजना करनी पड़ी थी. शेष विश्व में अभी भी सर्वहारा वर्ग की तानाशाही के आने की प्रतीक्षा की जा रही है.
मार्क्सवाद का कहना है कि समाजवाद अपरिहार्य है. उसके इस सिद्धांत के झूठ पर जाने के अलावा सूचियों में वर्णित अन्य अनेक विचार भी तर्क तथा अनुभव दोनों के द्वारा ध्वस्त हो गए हैं. अब कोई भी व्यक्ति इतिहास की आर्थिक व्याख्या को केवल एक मात्र परिभाषा स्वीकार नहीं करता इस बात को कोई स्वीकार नहीं करता कि सर्वहारा वर्ग को उत्तरोत्तर कंगाल बनाया गया है और यही बात उसके अन्य तर्क के संबंध में भी सही है” पृष्ठ क्रमांक 347 वॉल्यूम 7
भारत के परिप्रेक्ष्य में वर्ग की लड़ाई
जब आप वर्ग की लड़ाई लड़ते हैं तो आप सिर्फ आर्थिक समानता की बात करते हैं दरअसल भारत में जो वर्गीय अंतर है वह सिर्फ आर्थिक नहीं है. यह समझना होगा. यहां पर जातीय असमानता है. राजनीतिक असमानताएं गहरे पैठ बनाए हुए हैं. और इन जटिलताओं को सुलझाने के लिए समानता लाने के लिए आर्थिक गैरबराबरी को खत्म करना काफी नहीं है. जातीय एवं राजनीतिक असमानता को खत्म करने के लिए तमाम क्षेत्रों में प्रतिनिधित्व देना जरूरी है . यह प्रतिनिधित्व राजनीति, धार्मिक, समाजिक पदवी में, प्रशासन में, न्यायालय में देना होगा. डॉ अंबेडकर ने इसी प्रतिनिधित्व को रिजर्वेशन का नाम दिया. रिजर्वेशन कभी भी गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम के तौर पर नहीं तैयार किया गया. दरअसल यह भारत में फैली असामान्यताओं को खत्म करने के लिए बेहद जरूरी कार्यक्रम है. इसीलिए डॉक्टर अंबेडकर ने आजादी के पहले गोलमेज सम्मेलन में प्रतिनिधित्व के अधिकार की मांग की थी.
यह बात सही है कि डॉ आंबेडकर और मार्क्स दोनों समाज में समानता चाहते थे. लेकिन दोनों के समानता के उद्देश्य में बुनियादी फर्क है.
एक वर्ण व्यवस्था में समानता की बात करते हैं तो दूसरे वर्ग व्यवस्था में समानता की बात करते हैं.
एक वर्ग व्यवस्था में समानता के लिए संघर्ष की बात करते हैं. चाहे इसके लिए सर्वहारा तानाशाही ही क्यों ना करनी पड़े.
दूसरे वर्ण व्यवस्था में समानता लाने के लिए लोकतांत्रिक उपाय किए जाने की बात करते हैं जिसमें खूनी संघर्ष और तानाशाही के लिए कोई जगह नहीं है. वे जाति व्यवस्था का उन्मूलन में सबको साथ लेकर चलने की बात करते है. डॉं अंबेडकर कहते है एक ऊंच नीच वाली प्रणाली को खत्म करने के लिए नई ऊंच नीच वाली प्रणाली का निर्माण नही किया जाना चाहिए.
जब आप वर्ण यानी जाति व्यवस्था की लड़ाई लड़ते हैं तो आप सामाजिक आर्थिक राजनैतिक तीनों प्रकार की समानता की बात करते हैं.
यह बात शायद भारतीय मार्क्सवादियों ने नजरअंदाज कर दिया होगा. क्योंकि बीमारी डायग्नोसिस करना किसी भी बीमारी के इलाज का पहला चरण होता है. डायग्नोज करने के बाद ही उसी हिसाब से उसका इलाज किया जा सकता है. जहां पर वर्ग की समस्या नहीं है वहां पर आप वर्ग के हिसाब से उसका इलाज करेंगे तो रिजल्ट्स नहीं आने वाले. जहां पर वर्ण की समस्या है, वर्ण संघर्ष की समस्या है वहां पर वर्ण के हिसाब से ही उसका इलाज करना होगा. तब कहीं जाकर उसके परिणाम सामने आ सकेंगे. यही जो बुनियादी फर्क है. वर्ग और वर्ण में. उसे समझना होगा. तब कहीं जाकर हम मार्क्सवाद और अंबेडकरवाद के समानता के सिद्धांत को अमलीजामा पहना पाएंगे.
लेखक- संजीव खुदशाह
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