वाह, क्या शानदार काम किया है आपलोगों ने. अब ‘भद्र समाज’ के लोगों को अपनी ‘औकात’ का पता चल जाएगा. मार-पीट तो आपके साथ काफी पहले से होती रही है. थानगढ़ और मेहसाना जैसी जगहों से तो आपकी पीड़ा हर रोज सामने आती है. पिछले साल की ही तो बात है, थानगढ़ में हमारे कितने नौजवान भाईयों को पुलिस ने गोली से भून दिया था. मेहसाना में तो आपके साथ अत्याचार की इंतहा हो गई. हाल ही की रिपोर्ट है कि आपके राज्य गुजरात में 108 गांवों में दलित समाज के हमारे भाई लोग पुलिस के पहरे में जी रहे हैं. आपलोग अक्सर फोन पर उद्वेलित होकर हमें अपना दुखड़ा सुनाते हैं. हमलोग दिल्ली में बैठकर सुनते रहते हैं. सच कहूं तो आप लोगों की पीड़ा सुनकर एक बार मन करता है कि बस अभी गुजरात पहुंच कर आपलोगों की सारी समस्याओं को खत्म कर दें. लेकिन खुद को रोक लेना पड़ता है, क्योंकि मुझे पता है कि मैं आपकी मदद दिल्ली से ही कर सकता हूं.
शायद थोड़ा लिखकर, थोड़ा आपकी आवाज में अपनी कलम की आवाज को मिलाकर. हां, जब इस तरह की खबरों को लिखने बैठता हूं तो की-बोर्ड पर हाथ तेज चलने लगता है. शायद उसी पर गुस्सा उतारता हूं, या फिर शायद यह सोचकर हर शब्द को पूरी ताकत के साथ लिखता हूं कि यह आवाज उन अत्याचारियों के कानों तक तो पहुंचे. सत्ता के गलियारों तक तो पहुंचे और हमारे भाईयों को इंसाफ मिले. मुझे नहीं पता मैं कितना सफल हो पाता हूं. मुझे यह भी नहीं पता कि मेरे लिखने से आपलोगों को कुछ लाभ हो पाता है या नहीं. लेकिन फिलहाल हमारी सीमा यही है.
जब आपलोगों को गाड़ी के साथ बांध कर पीटे जाने की विडियो आई थी तो मैं उसे पूरा नहीं देख पाया था. मैं सिहर गया था. लग रहा था जैसे हर चोट मेरे शरीर को जख्मी कर रहा है और वो गालियां मेरे कानों में उतर रही है. आपलोगों ने व्हास्टएप और फेसबुक पर हमारे उन चारों भाईयों की फोटो भेजी थी. मैंने उनकी आंखों में दर्द और दहशत को महसूस किया था. उनकी लाचारगी पर रुलाई फूट गई थी. और विडियो ने तो जैसे सब्र का इम्तहान ले लिया. कलेजा चीर दिया इसने. उतना दर्द कैसे सह लिया आपने. सच कहूं तो बहुत कम मौकों पर मैंने खुद को इतना बेबस पाया था.
लेकिन सोमवार को जब यह खबर आई कि आपलोगों ने ट्रकों में मरी हुई गायों को लादकर जिला कलेक्ट्रेट पर रखना शुरू कर दिया है तो जैसे हौंसला आ गया. छुपाऊंगा नहीं. बस मन से एक ही शब्द निकला था….. शाबास। क्या पता यह आईडिया किसका है, लेकिन जिसका भी है; उसे मैं दिल्ली से दलित दस्तक का सलाम भेजता हूं. एक बात पूछूं आपलोगों से? क्यों सहते हो इतना अपमान? एक बार हो गया चलता है, लेकिन यहां तो यह हर दिन की बात हो गई है. एक बात गांठ बांध लो. अगर आपके अपमान सह लेने से, मार खाकर चुप रह जाने से और गालियों को अनसुना कर देने से वो दरिंदे सुधरने वाले होते तो सुधर गए होते. असल में वो इंसान नहीं हैं, वो हैवान हैं. और ये हैवान आप पर तब तक जुल्म करते रहेंगे, जब तक आप सहते रहेंगे. इसलिए आपलोगों ने जो आर-पार की लड़ाई छेड़ दी है, उसे जारी रखना. पीछे मत हटना. सारे समाज की निगाह आपकी तरफ है. अगर इंसाफ चाहते हो तो कोई भी उन गायों को नहीं छुवेगा, जिसे आपलोगों ने जिला मुख्यालयों पर डाला है. तब तक नहीं छुवेगा, जब तक इंसाफ नहीं मिल जाता. और ख्याल रहे कि किसी को उठाने भी नहीं देना है. लेकिन विरोधाभास स्वरूप जहर पी लेना बुजदिली और बेवकूफी का काम है, ऐसा मत करिए प्लीज. अगर अपमान से छुटकारा चाहते हो तो कसम खा लो कि आज के बाद किसी भी मरे हुए जानवर को हाथ नहीं लगाओगे. अबकी आर-पार की लड़ाई है. किसी से भी डरना नहीं है, लड़ना है, क्योंकि बिना लड़े आजादी संभव नहीं है. स्वतंत्रता दिवस आने को है, हे गुजरात के भाईयों….. अबकी आजाद हो जाओ.
विगत 17 सालों से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय अशोक दास अंबेडकरवादी पत्रकारिता का प्रमुख चेहरा हैं। उन्होंने साल 2012 में ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ की नींव रखी। वह दलित दस्तक के फाउंडर और संपादक हैं, जो कि मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यू-ट्यूब के जरिये वंचितों की आवाज को मजबूती देती है। उनके काम को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई में सराहा जा चुका है। वंचित समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं, जिनमें DW (जर्मनी) सहित The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspapers (जापान), The Week (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत), फारवर्ड प्रेस (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
अशोक दास दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में साल 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता (Investigative Journalism) के सबसे बड़े संगठन Global Investigative Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग में आयोजित कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है। वह साल 2023 में कनाडा में आयोजित इंटरनेशनल कांफ्रेंस में भी विशेष आमंत्रित अतिथि के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दुबई के अंबेडकरवादी संगठन भी उन्हें दुबई में आमंत्रित कर चुके हैं। 14 अक्टूबर 2023 को अमेरिका के वाशिंगटन डीसी के पास मैरीलैंड में बाबासाहेब की आदमकद प्रतिमा का अनावरण अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर नाम के संगठन द्वारा किया गया, इस आयोजन में भारत से एकमात्र अशोक दास को ही इसकी कवरेज के लिए आमंत्रित किया गया था। इस तरह अशोक, दलित दस्तक के काम को दुनिया भर में ले जाने में कामयाब रहे हैं। ‘आउटलुक’ मैगजीन अशोक दास का नाम वंचितों के लिए काम करने वाले भारत के 50 दलितों की सूची में शामिल कर चुकी है।
उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
अशोक दास एक लेखक भी हैं। उन्होंने 50 बहुजन नायक सहित उन्होंने तीन पुस्तकें लिखी है और दो पुस्तकों का संपादक किया है। ‘दास पब्लिकेशन’ नाम से वह प्रकाशन संस्थान भी चलाते हैं।
साल 2006 में भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC), दिल्ली से पत्रकारिता में डिप्लोमा लेने के बाद और दलित दस्तक की स्थापना से पहले अशोक दास लोकमत, अमर-उजाला, देशोन्नति और भड़ास4मीडिया जैसे प्रिंट और डिजिटल संस्थानों में आठ सालों तक काम कर चुके हैं। इस दौरान वह भारत की राजनीति, राजनीतिक दल और भारतीय संसद की रिपोर्टिंग कर चुके हैं। अशोक दास का उद्देश वंचित समाज के लिए एक दैनिक समाचार पत्र और 24 घंटे का एक न्यूज चैनल स्थापित करने का है।