
फातिमा शेख और सावित्री बाई बनी शिक्षिका: 1 जनवरी को खोला स्कूल
जोतिराव फुले सावित्री बाई फुले के जीवनसाथी होने के साथ ही उनके शिक्षक भी बने। जोतिराव फुले और सगुणा बाई की देख-रेख में प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करन के बाद सावित्री बाई फुले ने औपचारिक शिक्षा अहमदनगर में ग्रहण की। उसके बाद उन्होंने पुणे के अध्यापक प्रशिक्षण संस्थान से प्रशिक्षण लिया। इस प्रशिक्षण स्कूल में उनके साथ फातिमा शेख ने भी अध्यापन का प्रशिक्षण लिया। यहीं उनकी गहरी मित्रता कायम हुई। फातिमा शेख उस्मान शेख की बहन थीं, जो जोतिराव फुले के घनिष्ठ मित्र और सहयोगी थे। बाद में इन दोनों ने एक साथ ही अध्यापन का कार्य भी किया।
फुले दंपत्ति ने 1 जनवरी 1848 को लड़कियों के लिए पहला स्कूल पुणे में खोला। जब 15 मई 1848 को पुणे के भीड़वाडा में जोतिराव फुले ने स्कूल खोला, तो वहां सावित्री बाई फुले मुख्य अध्यापिका बनीं। इन स्कूलों के दरवाजे सभी जातियों के लिए खुले थे। जोतिराव फुले और सावित्री बाई फुले द्वारा लड़कियों की शिक्षा के लिए खोले जा रहे स्कूलों की संख्या बढ़ती जा रही थी। इनकी संख्या चार वर्षों में 18 तक पहुंच गई।
फुले दंपत्ति के ये कदम सीधे ब्राह्मणवाद को चुनौती थे। इससे उनके एकाधिकार को चुनौती मिल रही थी, जो समाज पर उनके वर्चस्व को तोड़ रहा था। पुरोहितों ने जोतिराव फुले के पिता गोविंदराव पर कड़ा दबाव बनाया। गोविंदराव पुरोहितों और समाज के सामने कमजोर पड़ गए। उन्होंने जोतिराव फुले से कहा कि या तो अपनी पत्नी के साथ स्कूल में पढ़ाना छोड़ें या घर। एक इतिहास निर्माता नायक की तरह दुखी और भारी दिल से जोतिराव फुले और सावित्री बाई फुले ने शूद्रों-अति शूद्रों और महिलाओं की मुक्ति के लिए घर छोड़ने का निर्णय लिया।
जब सावित्री बाई पर फेंका गया गोबर और पत्थर
परिवार से निकाले जाने बाद ब्राह्मणवादी शक्तियों ने सावित्री बाई फुले का पीछा नहीं छोड़ा। जब सावित्री बाई फुले स्कूल में पढ़ाने जातीं, तो उनके ऊपर गांव वाले पत्थर और गोबर फेंकते। सावित्री बाई रुक जातीं और उनसे विनम्रतापूर्वक कहतीं, ‘मेरे भाई, मैं तुम्हारी बहनों को पढ़ाकर एक अच्छा कार्य कर रही हूं। आप के द्वारा फेंके जाने वाले पत्थर और गोबर मुझे रोक नहीं सकते, बल्कि इससे मुझे प्रेरणा मिलती है। ऐसे लगता है जैसे आप फूल बरसा रहे हों। मैं दृढ़ निश्चय के साथ अपनी बहनों की सेवा करती रहूंगी। मैं प्रार्थना करूंगी की भगवान आप को बरकत दें।’ गोबर से सावित्री बाई फुले की साड़ी गंदी हो जाती थी, इस स्थिति से निपटने के लिए वह अपने पास एक साड़ी और रखती थीं। स्कूल में जाकर साड़ी बदल लेती थीं।
शिक्षा के साथ ही फुले दंपत्ति ने समाज की अन्य समस्याओं की ओर ध्यान देना शुरू किया। सबसे बदतर हालत विधवाओं की थी। ये ज्यादातर उच्च जातियों की थीं। इसमें अधिकांश ब्राह्मण परिवारों की। अक्सर गर्भवती होने पर ये विधवाएं या तो आत्महत्या कर लेतीं या जिस बच्चे को जन्म देती, उसे फेंक देतीं। 1863 में फुले दंपत्ति ने बाल हत्या प्रतिबंधक गृह शुरू किया। कोई भी विधवा आकर यहां अपने बच्चे को जन्म दे सकती थी। उसका नाम गुप्त रखा जाता था।
इस बाल हत्या प्रतिबंधक गृह का पोस्टर जगह-जगह लगाया गया। इन पोस्टरों पर लिखा था कि ‘विधवाओं! यहां अनाम रहकर बिना किसी बाधा के अपना बच्चा पैदा कीजिए। अपना बच्चा साथ ले जाएं या यहीं रखें, यह आपकी मर्जी पर निर्भर रहेगा।’ सावित्री बाई फुले बालहत्या प्रतिबंधक गृह में आने वाली महिलाओं और पैदा होने वाले बच्चों की देखरेख खुद करती थीं। इसी तरह की एक ब्राह्मणी विधवा काशीबाई के बच्चे को फुले दंपत्ति ने अपने बच्चे की तरह पाला। जिनका नाम यशवंत था।
सत्यशोधक समाज का नेतृत्व
सामाजिक परिवर्तन के लिए जोतिराव फुले ने 1873 में सत्यशोधक समाज की स्थापना की थी। उनकी मृत्यु के बाद सत्यशोधक समाज की बागडोर सावित्री बाई फुले के हाथों में सौंपी गई। 1891 से लेकर 1897 उन्होंने इसका नेतृत्व किया। सत्यशोधक विवाह पद्धति को भी अमलीजामा पहनाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी।
सावित्री बाई फुले आधुनिक मराठी की महत्वपूर्ण कवयित्री भी थीं। उनका पहला काव्य संकलन 1854 में काव्य फुले के रूप में प्रकाशित हुआ, जब उनकी उम्र 23 वर्ष थी। 1892 में उनकी कविताओं के दूसरा संग्रह ‘बावन काशी सुबोध रतनाकर’ प्रकाशित हुआ। यह बावन कविताओं का संग्रह है। इसे उन्होंने जोतिराव फुले की याद में लिखा है और उन्हीं को समर्पित किया है। सावित्री बाई फुले के भाषण भी 1892 में प्रकाशित हुए। इसके अतिरिक्त उनके द्वारा लिखे पत्र भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। ये पत्र उस समय की परिस्थितियों, लोगों की मानसिकता, फुले के प्रति सावित्री बाई की सोच और उनके विचारों को सामने लाते हैं।
1896 में एक एक बार फिर पुणे और आस-पास के क्षेत्रों में अकाल पड़ा। सावित्री बाई फुले ने दिन-रात अकाल पीड़ितों को मदद पहुंचाने लिए एक कर दिया। उन्होंने सरकार पर दबाव डाला कि अकाल पीड़ितों को बड़े पैमाने पर राहत सामग्री पहुंचाए। शूद्रों-अति शूद्रों और महिलाओं की शिक्षिका और पथप्रदर्शक मां सावित्री बाई का जीवन अनवरत अन्याय के खिलाफ संघर्ष करते और न्याय की स्थापना के लिए बीता। उनकी मृत्यु भी समाज सेवा करते ही हुई।
1897 में प्लेग की वजह से पुणे में महामारी फैल गई। वे लोगों की चिकित्सा और सेवा में जुट गईं। स्वंय भी इस बीमारी का शिकार हो गईं। 10 मार्च 1897 को उनकी मृत्यु हुई। उनकी मृत्यु के बाद भी उनके कार्य और विचार मशाल की तरह देश को रास्ता दिखा रहे हैं।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार और बहुजन विचारक हैं। हिन्दी साहित्य में पीएचडी हैं। तात्कालिक मुद्दों पर धारदार और तथ्यपरक लेखनी करते हैं। दास पब्लिकेशन से प्रकाशित महत्वपूर्ण पुस्तक सामाजिक क्रांति की योद्धाः सावित्री बाई फुले के लेखक हैं।