लोगों को लगता है कि हमारे बीच यह कौन रहने आ गया- रमेश भंगी

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गांव के एक कोने में पड़ा हुआ व्यक्ति जब शहर में रहने के लिए आता है और कथित तौर पर सभ्य समाज के बीच में रहना शुरू करता है तो आसपास के लोगों के बीच में हलचल मच जाती है। उसे परेशान किया जाता है। लोग यह पचा नहीं पाते हैं कि कल तक जो व्यक्ति हमारे यहां चाकरी करता था, वह हमारे बराबर में रहने आ गया है। यह कहना है रमेश चंद गहलोत यानी रमेश भंगी का।

वाल्मीकि समाज के रमेश भंगी दलित साहित्य की दुनिया में एक जाना-पहचाना नाम हैं और इन दिनों वकालत कर रहे हैं। जब वो गाजियाबाद की एक सोसाइटी में रहने आएं तो आस-पड़ोस में खुसर-फुसर शुरू हो गई। उन्हें परेशान किया गया। उनके पानी की टंकी में गंदगी डाली गई। पड़ोसी चाहते थे कि रमेश भंगी सोसाइटी छोड़ दें, लेकिन हम मुश्किल को झेलते हुए वह वहां जमें रहें।

ऐसा नहीं है कि रमेश भंगी ने अपनी जाति का प्रचार किया था। रमेश भंगी कहते हैं मेरा सर्टिफिकेट का नाम रमेश चंद गहलोत है। सामान्य नाम है, इससे जाती का पता नहीं चलता, लेकिन भारतीय समाज में आपसे आगे आपकी जाति चलती है। जैसे किसी फूल की खुशबू आगे चलती है, वैसे ही आपकी जाति भी आगे चलती है। जाति से बच नहीं सकते। मेरा तो कहना है कि भारत का मतलब ही जाति है। भारत की पहचान ही जाति से ही है।

रमेश गहलोत से रमेश भंगी कैसे बन गए, और क्यों? पूछने पर रमेश कहते हैं, “समाजशास्त्र की जितनी किताबें हैं, सब सब की सब जाति से शुरू होती हैं। भारत के ऊपर जितनी किताबें लिखी गई हैं, सभी जाति से ही शुरू होती है। तो भारत की जो इस सच्चाई है वह जाति है इससे बचना मुश्किल है इसलिए मैंने अपने नाम के साथ ही अपनी जाति जोड़ ली।”

रमेश भंगी ने गांव की दलित बस्ती से दिल्ली आने के क्रम में काफी संघर्ष किया। दिल्ली के किनारे पर बसे उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के मलकपुर गांव में सन् 1968 में उनका जन्म हुआ। यहीं से उन्होंने प्राइमरी तक की शिक्षा ली। जब वो पांचवी में पढ़ते थे, तब स्कूल में उनसे और उनकी जाति के बाकी बच्चों से स्कूल में झाड़ू लगवाया जाता था। टीचर तब दलित समाज के बच्चों के लिए अलग से डंडे रखता था। एक बड़ा सा डंडा, ताकि वो दलित समाज के बच्चों को पीट भी दे और उनसे दूर भी रहे।

बाद के दिनों में रमेश भंगी दिल्ली आ गए। इस दौरान उन्होंने कबाड़ी का काम भी किया। वो शहर में घूम-घूम कर कागज चुना करते थे। संघर्ष के दिनों में कई छोटे-मोटे काम करने के बावजूद रमेश भंगी ने आगे बढ़ने की चाह नहीं छोड़ी। उनके प्रेरणा बने थे- बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर, जिनकी एक जीवनी उन्हें बचपन में ही पढ़ने को मिल गई थी। बाबासाहेब के जीवन संघर्ष ने रमेश भंगी में यह विश्वास पैदा किया कि संघर्ष किया जाए तो जीवन सफल हो सकता है। जाति किस तरह काम करती है इसका अहसास रमेश को तब हुआ, जब वो नौकरी के लिए एक्सचेंज ऑफिस में नाम लिखवाने गए। बस कंडक्टर के लिए वेकैंसी थी। लेकिन वहां बैठे क्लर्क ने उनसे कहा कि वह सफाई कर्मचारी का काम कर लें, बस कंडक्टर की नौकरी कर वह क्या करेंगे?  हालांकि बाद में उन्हें बस कंडक्टर की नौकरी मिल गई और फिर बाद में वह गृह मंत्रालय के केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो में अनुवादक के तौर पर उनकी नियुक्ति हुई। जिसके बाद रिहायशी कॉलोनी में रहने के दौरान दलित समाज के व्यक्ति को क्या-क्या झेलना पड़ता है, उन्होंने इसे करीब से देखा।

अलग-अलग सरकारी और निजी फ्लैट में रहने के दौरान उन्होंने जातिवाद को नजदीक से देखा। और जब वो दिल्ली के मुहाने पर बसे गाजियाबाद के वसुंधरा इलाके में रहने आएं तब तो सोसाइटी में भूचाल आ गया। रमेश भंगी याद करते, “मैं 2001 में वसुंधरा की एक सोसायटी में आ गया। कुछ सालों तक सब ठीक चला। फिर साल 2006 की बात है, मेरी पड़ोसी ने मेरी पत्नी से जाति के बारे में पूछा। तब पत्नी ने अपनी जाति बता दी। तब से वह हमसे कटने लगी और धीरे-धीरे आस-पड़ोस के दूसरे लोगों को भी हमारी जाति पता चल गई।”

रमेश भंगी की जाति का सच सामने आने के बाद कई बार पड़ोसियों ने उनसे तू-तू मैं-मैं की। उनको तरह-तरह से परेशान किया गया। रमेश कहते हैं- “सब चाहते थे कि हम वहां से चले जाएं। लेकिन हम अपनी पहचान के साथ डटे रहें तो पड़ोसी हमें अप्रत्यक्ष रूप से परेशान करने लगे। जैसे कि मेरी छत पर रखी कुर्सियां तोड़ दी। हमारे गमले तोड़ देते हैं, उसमें लगे पौधे तोड़ देते हैं। वाटर टैंक के अंदर लगे वाटर बॉईल को तोड़ देते हैं। हम चूकि देखते नहीं है कि यह किसने किया है, इसलिए हम कुछ बोल भी नहीं पाते हैं। तो इस तरह हमें परेशान करने की कोशिश की जाती है।”

आखिर जिस समाज में सभी लोग पढ़े-लिखे हैं, समझदार हैं, जिन्हें सभ्य कहा जाता है, वो लोग ऐसा क्यों करते हैं? मेरे पूछने पर रमेश भंगी कहते हैं कि शहरों के रिहायशी इलाकों में दलित समाज के लोगों को अब भी पूरी तरह से एक्सेप्ट नहीं किया जा रहा है। सामने वाला वाल्मीकि समाज का हो तो उसके साथ भेदभाव और बढ़ जाता है। लोग हमारी परछाई से भी बचना चाहते हैं। यह एक मानसिक रोग है और मानसिक रोग सामने वाले को है तो इलाज भी उसे करना चाहिए। मैं तो विक्टिम हूं।

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