विदित हो कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति व अन्य पिछड़े वर्ग को सरकारी नौकरियों व शिक्षा में प्रदत्त संवैधानिक आरक्षण का सवर्णों के अनेकानेक संगठनों द्वारा देश के हर कौने में हमेशा नाना प्रकार से विरोध किया जाता रहा है. ऐसे में कुछ ही दिन पूर्व संघ् प्रमुख मोहन भागवत कहते हैं, ‘सामाजिक विषमता हटाने के लिए संविधान के तहत सभी प्रकार के आरक्षण को संघ का समर्थन है…और रहेगा. उनका कहना है कि आरक्षण नहीं, बल्कि आरक्षण की राजनीति समस्या है. ऐतिहासिक – सामाजिक कारणों से समाज का एक अंग पीछे है. बराबरी तब आएगी, जब जो लोग ऊपर हैं, वो झुकेंगे. समाज के सभी अंगों को बराबरी में लाने के लिए आरक्षण जरूरी है. हजार वर्ष से यह स्थिति है कि हमने समाज के एक अंग को विफल बना दिया है. जरूरी है कि जो ऊपर हैं वह नीचे झुकें और जो नीचे हैं वे एड़ियां उठाकर ऊपर हाथ से हाथ मिलाएं. इस तरह जो गड्ढे में गिरे हैं उन्हें ऊपर लाएंगे. समाज को आरक्षण पर इस मानसिकता से विचार करना चाहिए. सामाजिक कारणों से एक वर्ग को हमने निर्बल बना दिया. स्वस्थ समाज के लिए एक हजार साल तक झुकना कोई महंगा सौदा नहीं है. समाज की स्वस्थता का प्रश्न है, सबको साथ चलना चाहिए.’..
भागवत जी के इस कथन को पढ़ने के बाद तो जैसे लगा कि संघ भारत का सबसे आदर्श संगठन है, किंतु संघ की कथनी और करनी में जमीन और आसमान का अंतर है. कहना अतिशयोक्ति न होगा कि आरक्षण के विरोध में जितने भी आन्दोलन हो रहे हैं अथवा किए जाए जा रहे हैं, सब के सब संघ और सत्ता द्वारा प्रायोजित ही लगते हैं… राजनीतिक लाभ लेने के लिए इन आन्दोलनों के पीछे विपक्षी दलों का हाथ भी हो सकता, इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता.
आर एस एस और भाजपा की नीयत और निति में वैसे तो अंतर नहीं है क्योंकि आर एस एस भाजपा की पैत्रिक संस्था है। किंतु एक दूसरे को अलग-अलग दिखाने के प्रयोग हमेशा करते रहे हैं। इसका ताजा उदाहरण ये कि जब आर एस एस के प्रमुख मोहन भागवत अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति व अन्य पिछड़े वर्ग को सरकारी नौकरियों व शिक्षा में प्रदत्त संवैधानिक आरक्षण का समर्थन कर रहे हैं तो भाजपा सरकार में लोकसभा में अध्यक्ष पर विराजमाज माननीय सुमित्रा महाजन आरक्षण का विरोध कर रहीं हैं। हिन्दी न्यूज – 01.0.2018 के माध्यम से यह जान पड़ा है कि सुमित्रा जी ने कहा है कि डा. आंबेडकर भी सिर्फ 10 साल के लिए आरक्षण चाहते थे. सुमित्रा महाजन ने पार्लियामेंट की भूमिका को भी कठघरे में खड़ा करते हुए कहा कि संसद भी आरक्षण को सिर्फ आगे बढ़ाता रहा. हर बार दस साल के लिए आरक्षण बढ़ा दिया जाता रहा है. लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने सवाल किया है कि क्या शिक्षा और नौकरियों में हमेशा के लिए आरक्षण दिया जाना ठीक है? उन्होंने कहा, “बी आर आंबेडकर भी केवल 10 साल के लिए आरक्षण चाहते थे.” देश को आगे बढ़ाने और सामाजिक समरसता के लिए उन्होंने बी आर आंबेडकर के पदचिह्नों पर चलने का आह्वान करते हुए कहा, “जब तक हम देशभक्ति की भावना को नहीं बढ़ायेंगे तब तक देश का विकास संभव नहीं है.” यहाँ सुमित्रा जी को यह जानने की खासी जरूरत है कि डा. अम्बेडकर ने ‘सामाजिक समरसता’ की बात कभी भी नहीं अपितु ‘सामाजिक समानता’ की बात थी।
सुमित्रा महाजन ने पार्लियामेंट की भूमिका को भी कठघरे में खड़ा करते हुए कहा कि संसद भी आरक्षण को सिर्फ आगे बढ़ाता रहा. हर बार दस साल के लिए आरक्षण बढ़ा दिया गया. एक बार तो इसे 20 साल के लिए आगे बढ़ा दिया गया, आखिर ऐसा कब तक चलेगा. इसे आगे बढ़ाते रहने के पीछे क्या सोच है? उन्होंने कहा, “हमारे लिए सभी धर्म समान हैं. आज देश और समाज को तोड़ने वाली ताकतें सक्रिय हैं. सरल स्वभाव वाले आदिवासियों का धर्म परिवर्तन किया गया. लेकिन, हमारी सरकार ने धर्म परिवर्तन विरोधी कानून बनाया है.” इससे पहले उन्होंने कहा था कि आरक्षण को लेकर सभी दलों को मिलकर विचार विमर्श करना चाहिए.
मैं विनम्र भाव से सुमित्रा महाजन जी को अवगत कराना चाहता हूँ कि संविधान के तहत अनुसूचित/अनुसूचित जनजातियों को नौकरियों में प्रदत्त आरक्षण की कोई नियत समय सीमा नहीं है. हाँ! संविधान के तहत अनुसूचित/अनुसूचित जनजातियों को राजनीति में प्रदत्त आरक्षण की समय सीमा जरूर दस वर्ष थी. इस समय सीमा के बाद इसे भी समाप्त करने की व्यवस्था नहीं है, अपितु इसे जारी रखने के लिए समीक्षा करने का प्रावधान है जिसके आधार पर वर्चस्वशाली राजनीतिक दल अपने राजनीतिक लाभ के लिए इसे निरंतर बढ़ाते आ रहे हैं.
अफसोस कि बात तो ये है देश की लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन जैसे विद्वान लोग भी यदि तथ्यों की जानकारी किए बिना ही ऐसे-वैसे भ्रामक बयान देकर जनता को गुमराह करने का काम करते हैं तो देश की बाकी जनता क्या करेगी. उन्हें मालूम होना चाहिए कि संविधान के तहत अनुसूचित/अनुसूचित जनजातियों को नौकरियों में आरक्षण की प्रदत्त व्यवस्था इन लोगों की गरीबी हटाने के लिए नहीं अपितु शासन-प्रशासन में समुचित भागीदारी के भाव से की गई थी. संविधान में अनेक ऐसे प्रावधान भी समाविष्टश किए गए हैं जिससे कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लोग राष्ट्रा की मुख्या धारा से जुड़ने में समर्थ हो सकें. भारतीय समाज में उसी सम्मान और समानता के साथ रह सकें जैसे कि समाज के अन्य संप्रभु समाज जी रहा है.
इन्हें जान लेना चाहिए कि संविधान का अनुच्छे द 46 प्रावधान करता है कि राज्यत समाज के कमजोर वर्गों में शैक्षणिक और आर्थिक हितों विशेषत: अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का विशेष ध्यारन रखेगा और उन्हेंक सामाजिक अन्यावय एवं सभी प्रकार के शोषण से संरक्षित रखेगा. शैक्षणिक संस्थाजनों में आरक्षण का प्रावधान अनुच्छे्द 15(4) में किया गया है जबकि पदों एवं सेवाओं में आरक्षण का प्रावधान संविधान के अनुच्छे्द 16(4), 16(4क) और 16(4ख) में किया गया है. विभिन्न् क्षेत्रों में अनुसूचित जनजातियों के हितों एवं अधिकारों को संरक्षण एवं उन्न(त करने के लिए संविधान में कुछ अन्या प्रावधान भी समाविष्टं किए गए हैं जिससे कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लोग राष्ट्र की मुख्यय धारा से जुड़ने में समर्थ हो सके. भारतीय समाज में उसी सम्मान और समानता के साथ रह सकें जैसे कि समाज के अन्य संप्रभु समाज जी रहा है.
किंतु क्या ऐसा आजतक संभव हो पाया है? सच तो ये है कि आज तक अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को नौकरियों में प्रदत्त आरक्षण का एक बड़ा भाग रिक्त ही पड़ा है. यहाँ यह समझने की जरूरत है कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लोगों को नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था केवल आर्थिक अवस्था को सुधारने भर के लिए नहीं की गई थी अपितु जाति प्रतिशत के आधार पर समाज और शासन में भागीदारी के लिए की गई थी. संविधान के अनुच्छेपद 23 के तहत और भी जन हितकारी प्रावधान किए गए, जिनका यहाँ उल्लेख करना विषयांतर ही कहा जाएगा. गौरतलब है कि संविधान के 117वें संविधान संशोधन के तहत समाज के एस सी और एस टी को सरकारी नौकरियों में पदोन्नत्ति में आरक्षण की वकालत की गई किंतु सरकारी नौकरियों में पदोन्नत्ति की बात तो छोड़िए, उच्च शिक्षा तक में आरक्षण पर छुरी चलती जा रही है. वैसे भी सरकारी नौकरिय़ां तो ना के बराबर रह गई हैं.
ज्ञात हो कि निजी क्षेत्र में आरक्षण की व्यवस्था नहीं है. ऐसे में भाजपा के शीर्ष नेता सुब्रहमनियम स्वामी का यह कहना, ‘सरकारी नौकरियों में एस सी और एस टी को मिलने वाले आरक्षण के नियमों को इतना शिथिल कर दिया जाएगा कि आरक्षण को किसी भी नीति के तहत समाप्त करने की जरूरत ही नहीं होगी, धीरे-धीरे स्वत: ही शिथिल हो जाएगा.’…आजकल यह सच होता नजर आ रहा है. इस पर भी दलित समाज सामाजिक हितों को आँख दिखाकर अपने – अपने निजी हितों के लिये राजनीतिक खैमों में बँटता ही जा रहा है, जबकि जरूरत तो सामाजिक और राजनीतिक पटल पर एक होने की है. और इस सबके लिए दलित समाज का तथाकथित बुद्धिजीवी और राजनीतिक वर्ग ही जिम्मेवार है.
हाल के दिनों में ही नहीं दसकों से विभाजनकारी ताकतें देश में आरक्षण की ‘मियाद’ को लेकर चिल्लपौं कर रही है, सुमित्रा महाजन ने बिना किसी पुष्ठ जानकारी के उसे हवा देने का ही काम किया है। यानी आरक्षण ‘मियाद’ तय करने की वकालत करने में लगी हुई हैं. उनका मानना है कि ‘पिछड़ी जातियों को दिए गए आरक्षण की कोई अवधि तय नहीं की गई. इसके कारण भारतीय समाज में संतुलन तेजी से नष्ट हो रहा है.’ वास्तव में यह उन लोगों की मानसिक बौखलाहट इसलिए है कि आज उन्होंने कभी भी कोई सार्थक दलील के हक में कोई सबूत पेश नहीं किया और न किसी सन्दर्भ का हवाला दिया.
आज तक ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता जिससे आरक्षण सामाजिक ‘संतुलन’ को बिगाड़ने का काम करता है, बल्कि सामाजिक संतुलन बनाने में मदद करता है. आरक्षण जातिवाद भी नहीं फैलाता, क्योंकि जातिवाद तो पहले से ही भारतीय समाज में व्याप्त है. सच तो ये है आरक्षण जातीय भेदभाव और गैरबराबरी को दूर करने की दिशा में काम करता है. आरक्षण सैकड़ों वर्षो से वंचित रहे समुदायों को सामाजिक प्रतिनिधित्व प्रदान करता है और प्रशासन में कायम कुछ खास जातियों के एकाधिकार को खत्म करने की कोशिश करता है. इसलिए आरक्षण खत्म करने या फिर उसकी मियाद तय करने की बात करना न सिर्फ अतार्किक है, बल्कि समता-विरोधी भी है.
स्मरण रहे कि संविधान ने तीन समाजिक वर्गो को आरक्षण मुहैया कराया है. पहला वर्ग एससी (अनुसूचित जाति/दलित) का है, दूसरा एसटी (अनुसूचित जनजाति/आदिवासी) और तीसरा ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) है. एससी को आरक्षण इसलिए दिया गया, क्योंकि वे हमेशा छुआछूत के शिकार रहे हैं और वे हर क्षेत्र में वंचित रहे हैं. दूसरी तरफ एसटी जातीय समाज से पृथक जंगलों पहाड़ों व दुर्गम स्थानों में रहते रहे हैं, मगर वे भी एससी की ही तरह हर क्षेत्र में वंचित रहे हैं. ओबीसी सामाजिक और शैक्षणिक तौर से पिछड़े हैं. इन वर्गो के आरक्षण पर कुछ लोग सवाल तो उठाते हैं, मगर वे इस बात का जिक्र नहीं करते कि क्या वाकई में ये सामाजिक वर्ग समाज में बराबरी पा चुके हैं? वे लोग तर्क देते हैं कि ‘हर चीज की एक उम्र होती है, लेकिन आरक्षण की कोई उम्र तय नहीं की गई है.’
यदि उनके इस तर्क को मान भी लिया जाय तो क्या उन लोगों के पास इस बात का उत्तर है कि जातिवाद की मियाद क्या है. उनसे कौन पूछे कि जब हजारों-साल पुरानी जाति अभी तक भी जिंदा है तो उससे उम्र में कहीं छोटा आरक्षण के औचित्य पर क्यों सवाल उठाया जा रहा है? आरक्षण विरोधियों से यदि यह पूछ लिया जाए कि आरक्षण के प्रावधान क्या हैं?… तो शायद इसका उनके पास कोई उत्तर नहीं होगा. कारण यह है कि उनका विरोध किसी ज्ञान पर आधारित नहीं, केवल पूर्वाग्रही है. उनको यह भी मालूम होना चाहिए कि देश की 85 % जनता को महज 50% आरक्षण का प्रावधान है, वो भी रुग्ण मानसिकता वाले प्रशासन द्वारा पूरा नहीं किया जाता और शेष 15% भारतीय सवर्ण आवादी को 50%. फिर यहाँ मैरिट की बात को लेकर टकराव कहाँ है? एक बात और कि निजी सेक्टर में समाज के उपेक्षित वर्ग की नुमाइंदगी काफी कम है. जिसका साफ-साफ कारण है कि निजी सेक्टर में आरक्षण का प्रावधान ही लागू नहीं है.
ऐसे लोगों को यह भी जान लेना चाहिए कि आरक्षण भारतीय समाज में समता, समानता और मैत्री भाव उत्पन्न करने का एक साधन ही नहीं अपितु समाज के उपेक्षित वर्ग की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में भागीदारी निश्चित करने की एक विधि है. यह भी कि आरक्षण के संवैधानिक प्रावधान के बावजूद भी तय कोटा आज तक भी पूरा नहीं किया गया है. और तो और भाजपा के शासन में बकाया पदों को निरस्त कर अनारक्षित वर्ग को दे दिया जा रहा है. अटल सरकार से पहले एस सी/ एस टी का मिलाजुला आरक्षण 22.5% था किंतु अटल जी सरकार के दौरान इसे दो हिस्सों में बांट दिया गया… यथा एस सी को 15% और एस टी को 7.5% …. इस प्रावधान से एस सी और एस टी की न भरे जाने वाली सीटें या तो खाली रहेंगी या अनारक्षित वर्ग को दे दी जाएंगी. पहले ये होता था कि यदि एस सी और एस टी की सीटे एक दूसरे को प्रदान कर दी जाती थीं…अब नहीं. आज न तो एस सी, एस टी और ओ बी सी का कोटा शतप्रतिशत पूरा किया गया है और न इसके प्रयास ही किए जा रहे है. ऐसे में आरक्षण का जारी रहना अत्यंत ही जरूरी है.
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