सम्मान हरेक का है, किसान हो या जवान, शहरी हो ग्रामीण। 21वीं सदी में महानगरों में जी रहे उन लोगों की अज्ञानता तो समझी जा सकती है, जिनको अब फिल्मों में भी गांव और किसान देखने को नही मिलते। लेकिन बौद्धिक होने का दंभ भरने वाले और खेती बाड़ी में देश में सबसे पिछड़े इलाकों से आने वाले लोगों का क्या कहेंगे। कृषि क्षेत्र की चुनौतियों को जानते हुए भी वे शांति से दो महीने तक अपनी बात रखने के लिए गाजीपुर जैसी सरहद पर बैठे किसानों के बारे में वे क्या क्या लिखते हैं। उस गाजीपुर सीमा पर जहां से गुजरते समय लोग नाक पर कपडा लगा लेते हैं। किसी को भी अपने घर से दूर अच्छी से अच्छी जगह भी एकाध दिन ही अच्छी लगती है। किसानों को जहां रोका वहीं रुक गए। चाहे वह गाजीपुर हो या सिघु सीमा।
उनके लिए जहर भरी भाषा का उपयोग करने वाले क्या सरकार को डिक्टेट करना चाहते हैं। क्या वे पुलिस जवानों से भी अधिक किसानों के बारे में समझ रखते हैं, जिसकी ड्यूटी उनके आसपास ही है और जो खुद किसान परिवारों से ही आते हैं। किसानों का आंदोलन जिन मुद्दों को लेकर है वे भारत सरकार से संबंधित है। उनकी लड़ाई किसी राज्य सरकार से नहीं है न पुलिस प्रशासन से। भारत सरकार और किसानों के बीच 11 दौर की बातचीत के बाद भी संवाद के रास्ते बंद नहीं हुए हैं। सुप्रीम अदालत ने भी उनके धरने को हटाने के लिए नहीं कहा है। लेकिन जिनके रास्ते में भी गाजीपुर या सिंघु सीमा नहीं पड़ती, उनका रास्ता सबसे ज्यादा अवरुद्ध हो रहा है। जिन लोगों ने लाल किले पर हिंसा की वे फेसबुक पर लाइव अपनी बातें कह रहे हैं। लेकिन उनके बारे में बोलते समय डर लगता है। जैसे वे सगे हों और शांत बैठे किसान दुश्मन। अपराधी देर सबेर सलाखों के पीछे पहुंच ही जाएंगे।
मैने बोट क्लब पर लाखों की भीड़ को एक सप्ताह तक बैठे देखा है। लाल किले पर भी महेंद्र सिंह टिकैत के विशाल जमावड़े को देखा है। चांदनी चौक का एक भी कारोबारी नहीं कह सकता है कि किसानों ने उनको कोई नुकसान पहुंचाया हो। लाल किले को नुकसान पहुंचाने का तो सवाल ही नहीं। जिन लोगों ने पंजाब में उग्रवाद के दिनो में मौन रहना सीख लिया था वे अब खलिस्तान के इतिहास पर लिखते हुए इनसे जोड़ रहे हैं। जो शांति से बैठे हैं, उनके मुद्दों का विरोध करिए लेकिन वातावरण विषाक्त मत कीजिए। लोकतंत्र में जनता को वह ताकत मिली हुई है कि वह अपनी बात को मनाने के लिए आंदोलन करे। रास्ता संवाद से ही निकलना है और दोनों पक्षों में संभव है कि किसी को थोड़ा झुकना भी पडे। लेकिन यह भी सच है कि कोई आंदोलन अनंतकाल तक नहीं चलता।
अतीत में ये ही किसान संगठन जब कांग्रेस, सपा, बसपा और जनता दल की सरकारों से लड़ते थे तो आपको योद्धा लगते थे। लेकिन अब आढ़तियों का एजेंट, खलिस्तानी और दुनिया के सबसे बुरे हो गए हैं। दो महीनों से वे सरकार गिराने नहीं बैठे हैं। उनको पता है कि उनके पास चुनने का अधिकार है वापस बुलाने का नहीं। लेकिन शांति से अपनी बातों को उठाने वालों के खिलाफ जहर उगलना लोकतंत्र के खिलाफ खड़ा होना है। बेहतर होगा कि कामना करेंं कि संसद सत्र के बीच किसानों की सम्मानजनक घर वापसी के लिए रास्ता निकले और वे अपने घर लौटें। खेतीबाड़ी में बहुत काम होता है। वे किसी को किसी रूप में परेशान नहीं करना चाहते, बल्कि खुद परेशान हैं।
अरविंद कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं। राजनीतिक संवाददाता के तौर पर उनका एक लंबा अनुभव है। सामाजिक सरोकार की पत्रकारिता करने के लिए भी जाने जाते हैं।