भारतीय समाज एक ऐसे मोड़ आकर खड़ा हो गया है, जहां जो कोई पत्रकारिता करना चाहता है, तो उसके सामने वर्तमान सत्ता ने सिर्फ दो रास्ते छोड़े हैं, पहला सत्ता की दलाली। यह दो तरीके से की जा सकती है, खुले तौर पर सत्ता की दलाली, जैसे विभिन्न कार्पोरेट चैंनलों के एंकर- रिपोर्टर और अधिकांश हिंदी अखबारों के संपादक कर रहे हैं। सत्ता की दलाली में हिस्सेदारी एक दूसरी वजह है- रोजा रोटी की मजबूरी के चलते कार्पोरेट मीडिया या हिंदी अखबारों में नौकरी। भले ही ऐसे लोगों को रोटी-रोटी की मजबूरी के चलते यह काम करना पड़ रहा है, लेकिन यह उनके विवेक और आत्मा को मार रहा है, ऐसे लोगों को भी अब वैकल्पिक रास्तों की तलाश के बारे में सोचना चाहिए और कुछ लोग सोच भी रहे हैं।
भारत में दो तरह की सत्ता है- कार्पोरेट सत्ता और ब्राह्मणवादी सत्ता। सत्ता की दलाली में हिस्सेदार पत्रकारिता इनमें से किसी एक सत्ता के दलाल हैं या दोनों के एक साथ। यह दलाली सिर्फ पैसे के लिए नहीं, विचारों के चलते भी ऐसा करने वाले लोगों की अच्छी खासी तादात है- हिंदू राष्ट्र के लिए जीन-जान लगाकर पत्रकारिता कर रहे हैं। हिंदी राष्ट्र मतलब अपरकॉस्ट हिदू मर्दों के वर्चस्व वाला राष्ट्र।
दूसरे तरह की पत्रकारिता है- खुली जनपक्षधर पत्रकारिता। जिसे कार्पोरेट सत्ता और ब्राह्मणवादी सत्ता को एक साथ चुनौती देनी है। इसमें खतरा ही खतरा है- रोटी-रोटी का खतरा, जेल जाने का खतरा और गौरी लंकेश की तरह मारे जाने का खतरा। आज ब्राह्मणवादी कार्पोरेट फासीवाद के दौर में हर तरह की का जोखिम उठाकर ही सच्ची पत्रकारिता की जा सकती है। इसमें जेल जाने और जान से मार दिए जाने का जोखिम भी शामिल है। मंदीप पुनिया ने जनपक्षधर पत्रकारिता करने की कीमत चुकाई है।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार और बहुजन विचारक हैं। हिन्दी साहित्य में पीएचडी हैं। तात्कालिक मुद्दों पर धारदार और तथ्यपरक लेखनी करते हैं। दास पब्लिकेशन से प्रकाशित महत्वपूर्ण पुस्तक सामाजिक क्रांति की योद्धाः सावित्री बाई फुले के लेखक हैं।