बसपा प्रमुख सुश्री मायावती देश की इकलौती ऐसी नेता हैं, जिनकी राजनीति अन्य दलों से अलग है. मसलन, जैसे तमाम पार्टियां प्रवक्ताओं की फौज उतार कर दिन रात हर मुद्दे पर अपना बयान देती दिखती हैं, वहीं मायावती गिने-चुने मुद्दों पर सीधे खुद ही अपनी ठोस राय रखती हैं. या फिर अपने पार्टी के पदाधिकारियों के जरिए सीधे कार्यकर्ताओं तक अपनी बात पहुंचाने में यकीन रखती हैं.
जैसे तमाम पार्टियां सार्वजनिक मंचों पर एक दूसरे से हाथ जोड़े खड़ी रहती हैं, मायावती अमूमन सिर्फ बसपा के मंच पर अकेले दिखती हैं. लेकिन 23 मई की तस्वीरों ने एक झटके में काफी कुछ बदल दिया है. अलग-अलग दल के नेताओं के बीच बिना हिचक पूरी सहजता से मायावती का दिखना यह इशारा कर रहा है कि वह अब बदल रही हैं.
बीते दशक में जब तमाम विपक्षी दल अपने अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में एक-दूसरे से गठबंधन कर रहे थे, मायावती तमाम मुश्किलों के बावजूद अकेले चल रही थीं. लेकिन पहले यूपी के उपचुनाव में सपा को समर्थन देकर तो फिर कर्नाटक और हरियाणा में चुनाव पूर्व गठबंधन कर के उन्होंने यह संकेत दे दिया है कि वह अब बदल रही हैं.
एचडी कुमारस्वामी के शपथग्रहण समारोह में सोनिया गांधी के साथ दिखी उनकी आत्मीय सहजता के बाद तो इस बात पर मुहर लगाई जा सकती है कि बसपा अपने चिरपरिचित ‘अलगाववाद’ की नीति से हट रही है.
1990 के दशक की शुरुआत से बसपा खुद को दलितों की अकेली राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर पेश करती रही है. मायावती 2007 में अपने राजनीतिक करियर के शीर्ष पर पहुंची थीं जब उन्होंने उत्तर प्रदेश के चुनाव में 30 प्रतिशत वोट हासिल करते हुए विधानसभा की 206 सीटें जीती थीं. इसके बाद उन्होंने मुख्यमंत्री के रूप में पांच साल का अपना कार्यकाल भी पूरा किया. तो वहीं 2009 में बसपा को लोकसभा में 21 सीटें मिली थीं जो उसका अब तक का सबसे शानदार प्रदर्शन है.
बसपा की यह सफलता एक बेजोड़ सामाजिक गठबंधन का नतीजा थी. तब पार्टी ने उत्तर प्रदेश में अपने दलित वोट बैंक को एकजुट रखते हुए ब्राह्मणों को भी साथ कर लिया था. लेकिन इसके बाद से पार्टी लगातार कमजोर हुई है. 2014 में उसे एक भी लोक सभा सीट नहीं मिल पाई थी. वहीं 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में वह तीसरे नंबर की पार्टी बनकर रह गई और इसके साथ ही लगातार दूसरी बार राज्य की सत्ता हासिल करने से चूक गईं.
हाल के चुनाव में पिछड़ा वोटर भी बसपा से छिटका है, जिसका खामियाजा भी पार्टी को भुगतना पड़ा. बसपा अभी जिस जगह पर खड़ी है, उसके पास खुद को बदलने के अलावा और कोई चारा भी नहीं दिखता. यूपी में सपा से गठबंधन और बेंगलुरू में विपक्षी दलों के साथ गठजोड़ का इशारा यह बता रहा है कि बसपा और मायावती खुद को बदलने को तैयार हैं और उन्होंने इसकी कोशिश भी शुरू कर दी है. जाहिर है कि यह बदलाव बहुजनों के हित के लिए भी जरूरी है.
विगत 17 सालों से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय अशोक दास अंबेडकरवादी पत्रकारिता का प्रमुख चेहरा हैं। उन्होंने साल 2012 में ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ की नींव रखी। वह दलित दस्तक के फाउंडर और संपादक हैं, जो कि मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यू-ट्यूब के जरिये वंचितों की आवाज को मजबूती देती है। उनके काम को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई में सराहा जा चुका है। वंचित समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं, जिनमें DW (जर्मनी) सहित The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspapers (जापान), The Week (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत), फारवर्ड प्रेस (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
अशोक दास दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में साल 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता (Investigative Journalism) के सबसे बड़े संगठन Global Investigative Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग में आयोजित कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है। वह साल 2023 में कनाडा में आयोजित इंटरनेशनल कांफ्रेंस में भी विशेष आमंत्रित अतिथि के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दुबई के अंबेडकरवादी संगठन भी उन्हें दुबई में आमंत्रित कर चुके हैं। 14 अक्टूबर 2023 को अमेरिका के वाशिंगटन डीसी के पास मैरीलैंड में बाबासाहेब की आदमकद प्रतिमा का अनावरण अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर नाम के संगठन द्वारा किया गया, इस आयोजन में भारत से एकमात्र अशोक दास को ही इसकी कवरेज के लिए आमंत्रित किया गया था। इस तरह अशोक, दलित दस्तक के काम को दुनिया भर में ले जाने में कामयाब रहे हैं। ‘आउटलुक’ मैगजीन अशोक दास का नाम वंचितों के लिए काम करने वाले भारत के 50 दलितों की सूची में शामिल कर चुकी है।
उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
अशोक दास एक लेखक भी हैं। उन्होंने 50 बहुजन नायक सहित उन्होंने तीन पुस्तकें लिखी है और दो पुस्तकों का संपादक किया है। ‘दास पब्लिकेशन’ नाम से वह प्रकाशन संस्थान भी चलाते हैं।
साल 2006 में भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC), दिल्ली से पत्रकारिता में डिप्लोमा लेने के बाद और दलित दस्तक की स्थापना से पहले अशोक दास लोकमत, अमर-उजाला, देशोन्नति और भड़ास4मीडिया जैसे प्रिंट और डिजिटल संस्थानों में आठ सालों तक काम कर चुके हैं। इस दौरान वह भारत की राजनीति, राजनीतिक दल और भारतीय संसद की रिपोर्टिंग कर चुके हैं। अशोक दास का उद्देश वंचित समाज के लिए एक दैनिक समाचार पत्र और 24 घंटे का एक न्यूज चैनल स्थापित करने का है।