बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती ने शनिवार को पार्टी उम्मीदवारों की तीसरी लिस्ट जारी की और दावा किया कि वो प्रदेश में ”अकेले दम पर सरकार” बनाएंगी. विरोधियों ने उनके दावे पर प्रश्नचिन्ह लगाने में देर नहीं की लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों को उनके बयानों में ”गंभीरता” नज़र आती है.
अख़बार जदीद ख़बर के संपादक मासूम मुरादाबादी कहते हैं, ”मायावती की पार्टी चुनाव के लिए तैयार है. बाक़ी दलों में टिकट बंटवारों का मुहुर्त नहीं आया है. समाजवादी पार्टी में सिर फुटव्वल हो रहा है. इसका समाजवादी पार्टी को नुक़सान पहुंचने का अंदेशा है.” हालांकि, भारतीय जनता पार्टी अध्यक्ष अमित शाह और बाकी नेता लगातार कह रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में मुख्य मुक़ाबला भारतीय जनता पार्टी और समाजवादी पार्टी के बीच है. सपा का अखिलेश यादव धड़ा भी दावा कर रहा है कि मुख्यमंत्री अखिलेश के विकास कार्यों के दम पर पार्टी दोबारा सत्ता में आएगी. ये दोनों दल विभिन्न चुनाव सर्वेक्षणों का भी हवाला देते हैं तो मायावती बीजेपी और सपा के बीच ”गठजोड़” का आरोप लगाती हैं.
इस पर वरिष्ठ पत्रकार रामकृपाल सिंह कहते हैं, ”आज़ादी के बाद ये उत्तर प्रदेश का पहला चुनाव है जिसे त्रिकोणीय कहा जा सकता है. फ़िलहाल ये कहना जोखिम भरा होगा कि सपा, बीएसपी और बीजेपी में से कौन जीत सकता है?” रामकृपाल सिंह की राय है कि मायावती की पार्टी के पास तैयारी के लिहाज़ से बढ़त है. और, उनका वोट बैंक भी स्थिर है.
वो कहते हैं, ”कई बार मायावती का वोट बैंक बहुत चौंकाता है. वजह ये है कि वो चुप रहता है. यही हाल अल्पसंख्यकों का भी है. अगर सपा पुराने स्वरुप में लड़ती तो भी एडवांटेज मायावती के पास था. वो ये भी कहते हैं कि जो मिडिल क्लास का जो तबक़ा क़ानून-व्यवस्था को अहमियत देता है, वो भी मायावती का समर्थन कर सकता है.”
समाजशास्त्री प्रोफेसर बद्री नारायण भी बीएसपी की चुनाव पूर्व तैयारी को उसके लिए बढ़त की वजह बताते हैं. वो कहते हैं, ”मायावती की प्लानिंग बहुत सॉलिड है. मीडिया उसे देख नहीं पाती है. मायावती अनौपचारिक तौर पर बहुत पहले से अपने उम्मीदवार घोषित कर चुकी थीं. उनके उम्मीदवारों को काफ़ी समय मिला है.”
बीएसपी के उम्मीदवारों के चयन में जातिगत के साथ-साथ सामाजिक समीकरण को साधने की कोशिश साफ़ नज़र आती है. मायावती के मुताबिक़ उनकी पार्टी ने अनुसूचित जाति के 87, मुस्लिम समुदाय के 97, अन्य पिछड़ा वर्ग के 106 और 113 स्वर्ण उम्मीदवारों को टिकट दिए हैं.
मायावती का ख़ास ज़ोर मुस्लिम-दलित समीकरण को साधने पर है. वो कहती हैं, ”मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में अकेले मुस्लिम और दलित वोट के साथ आने से बीएसपी उम्मीदवार चुनाव जीत जाएंगे.” सुप्रीम कोर्ट के हालिया आदेश को लेकर विरोधी मायावती के ऐसे बयानों पर सवालिया निशान लगाते हैं लेकिन वो इस आपत्ति को नज़रअंदाज़ करती हैं, और वोटरों को आगाह करती हैं, ”अल्पसंख्यक वोटर सपा के दोनों धड़ों और कांग्रेस को देकर बांटे नहीं.”
लेकिन क्या अल्पसंख्यक वोटर मायावती का साथ देंगे, इस सवाल पर रामकृपाल सिंह कहते हैं, ”वर्तमान में ऐसा लगता है कि अल्पसंख्यक बीजेपी को हराने के लिए वोट देते हैं. उसके सामने जब ये तस्वीर साफ़ होती है कि बीजेपी को कौन हरा सकता है, वो उसकी तरफ़ चला जाता है, चाहे वो बीएसपी हो या फिर सपा.”
वो कहते हैं कि सपा में जारी तकरार का फ़ायदा बीएसपी को मिल सकता है. रामकृपाल सिंह की राय है, ”मायावती के यहां परिवार में कोई झगड़ा नहीं है. मायावती को ये देखना नहीं है कि बीजेपी की लिस्ट आ जाए तब हम जारी करें. लगातार वो ये संदेश देने की कोशिश कर रही हैं कि मैं ही हूं जो बीजेपी को हरा सकती हूं.”
हालांकि मासूम मुरादाबादी की राय अलग है. उनका आंकलन है कि उत्तर प्रदेश के मुसलमानों ने अभी तक अपना मन नहीं बनाया है. वो कहते हैं, ”अगर सपा बंटी तो मुसलमानों का बड़ा हिस्सा अखिलेश के साथ जा सकता है. लेकिन फ़ायदा मायावती को भी मिलेगा.”
मासूम मुरादाबादी ये भी कहते हैं, ”मायावती ने मुसलमानों को बड़ी संख्या में टिकट दिए हैं लेकिन इससे वोट मिलने की गारंटी नहीं मिलती क्योंकि वो मुसलमानों के साथ सत्ता बांटने की बात नहीं करती हैं.”
सवाल नोटबंदी का भी है. मायावती नोटबंदी को लेकर केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ लगातार आक्रामक रुख़ अपनाए हुए हैं. बीजेपी का दावा है कि नोटबंदी के बाद सबसे ज्यादा मुश्किल में मायावती की पार्टी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी लखनऊ की रैली में इस मुद्दे को लेकर मायावती पर ”हमला” कर चुके हैं. लेकिन बद्री नारायण की राय है कि नोटबंदी से परेशान हुए लोग बीएसपी का समर्थन कर सकते हैं. रामकृपाल सिंह कहते हैं, “मायावती के वोट बैंक का दृष्टिकोण बड़ा सा़फ है. जो 18 फ़ीसदी दलित हैं, उन्हें नोटबंदी और विकास से ज्यादा लेना देना नहीं है.” वो ये भी कहते हैं कि जो मिडिल क्लास का जो तबक़ा क़ानून-व्यवस्था को अहमियत देता है, वो भी मायावती का समर्थन कर सकता है.
रामकृपाल सिंह की राय है, ”क़ानून व्यवस्था के मामले में मध्यवर्ग का बड़ा तबक़ा मायावती को मानता है. लेकिन उनके शासन में भ्रष्टाचार बढ़ना मायवती का माइनस प्वाइंट है.” वहीं बद्री नारायण की राय में मायावती के ख़िलाफ़ जो बात जाती है, वो ये है कि वो अखिलेश यादव या फिर बीजेपी की तरह मध्य वर्ग तक अपनी ख़ास छवि नहीं गढ़ पाती हैं. उन्हें किसी पार्टी से गठबंधन नहीं कर पाने का नुक़सान भी हो सकता है.
वहीं, मायावती के विरोधी ये भी याद दिलाते हैं कि उनकी पार्टी लोकसभा चुनाव में कोई सीट नहीं जीत सकी थी. इसे लेकर मासूम मुरादाबादी कहते हैं, ”लोकसभा और विधानसभा चुनाव के बीच बहुत अंतर होता है. मुद्दे अलग होते हैं और नतीजे भी अलग होते हैं.” वो कहते हैं कि मायावती को भले ही कमतर करके आंका जा रहा हो लेकिन वो बढ़त बना सकती हैं.
– बीबीसी हिन्दी से साभार
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