एससी/एसटी एक्ट पर अपने पैर पीछे खिंचने को मजबूर हुई केंद्र सरकार ने पिछड़े वर्ग की ताकत को भी मान लिया है. शायद यही वजह है कि सरकार एक विधेयक लाकर पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने को तैयार हो गई है. लेकिन सवाल उठता है कि 2 अप्रैल के आंदोलन के पहले एससी/एसटी एक्ट को लेकर सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका डालने से करताने वाली सरकार अचानक इस मसले पर अध्यादेश क्यों ले आई. तो इसी तरह मंडल कमीशन की सिफारिश का जमकर विरोध करने वाली भाजपा अचानक ओबीसी समुदाय पर इतनी मेहरबान क्यों है?
जाहिर है कि सरकार का यह कदम देश की तकरीबन 80 फीसदी आबादी की ताकत को अपने पाले में लाने की एक बड़ी कोशिश है, जिसे वह दूर जाते देख रही है. क्योंकि अगर ऐसा न होता तो यह फैसला तब न लिया जाता जब देश चुनाव की देहड़ी पर खड़ा है.
सरकार की इसी रणनीति पर विपक्षी दल सवाल उठाने लगे हैं. पिछड़ा आयोग पर फैसला आते ही उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और बसपा प्रमुख मायावती ने सरकार पर सवाल उठाया है. उन्होंने इसे राजनैतिक लाभ के लिए उठाया गया कदम बताया है. बसपा अध्यक्ष का कहना है कि पिछड़े वर्ग को लुभाने के लिए सरकार पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने का विधेयक लाई है. उन्होंने भाजपा पर तंज कसते हुए कहा है कि-
देश के करोड़ों दलितों व आदिवासियों की तरह ही अन्य पिछड़े वर्गों (ओ.बी.सी.) का भी राजनीति, शिक्षा, रोज़गार, न्यायपालिका आदि के क्षेत्र में हर स्तर पर उनके हकों से वंचित रखने का प्रयास करने वाली बीजेपी अब लोकसभा व हिन्दी भाषी प्रमुख राज्यों में विधानसभा आमचुनाव के समय में इनको छलना चाहती है. यह उनकी चुनावी स्वार्थ की राजनीति के सिवाय कुछ भी नहीं है. इस मामले में लगभग पिछले सवा चार साल तक सरकार क्यों सोती रही?
हालांकि बसपा प्रमुख ने संसद में लाये गये इस विधेयक का स्वागत किया है. लेकिन इस दौरान उन्होंने यह कह कर भी सरकार को घेरने की कोशिश की है कि भाजपा को दलितों व आदिवासियों के संवैधानिक व कानूनी हक को लगातार नकारने, इनके ऊपर जुल्म-ज्यादती करते रहने की नीयत व नीति को त्याग देना चाहिए. साथ ही पिछड़े वर्ग के लोगों के हित व कल्याण के मामले में भी बीजेपी सरकारों को थोड़ी गंभीरता व ईमानदारी अवश्य दिखानी चाहिये. राजनीति के साथ-साथ शिक्षा व सरकारी नौकरियों में इनके आरक्षण के कोटा को खाली रखकर इनका हक नहीं छीनना चाहिये और सभी स्तर पर इनको आरक्षण का लाभ सुनिश्चित करना चाहिये.
जाहिर है कि एक तरफ सरकार दलितों और पिछड़ों को लुभाने के लिए ऐसे फैसले ले रही है तो वहीं विपक्ष इन फैसलों के पीछे सरकार की मंशा की पोल खोलने में लग गया है. इसका फायदा किसे मिलेगा, यह चुनाव के नतीजे बताएंगे.

अशोक दास (अशोक कुमार) दलित-आदिवासी समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले देश के चर्चित पत्रकार हैं। वह ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ के संस्थापक और संपादक हैं। उनकी पत्रकारिता को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई जैसे देशों में सराहा जा चुका है। वह इन देशों की यात्रा भी कर चुके हैं। अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं ने, जिनमें DW (जर्मनी), The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspaper (जापान), द वीक मैगजीन (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं। अशोक, दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में फरवरी, 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता के दुनिया के सबसे बड़े संगठन Global Investigation Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग मे आयोजिक कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है।