गुजरात के उना जिले में जिस तरह से गाय के नाम पर दलितों को अनादरित किया गया, खुलेआम नंगा कर के उनको मारा गया, उस पर सभी दलित नेता मौन रहें. इसी प्रकार बंबई में जिस तरह से बाबासाहेब अम्बेडकर द्वारा निर्मित प्रेस को ढाया गया, और देश के सभी दलित हितैषी नेता मौन रहे. इससे पहले रोहित वेमुला, डेल्टा मेघवाल एवं उत्तर प्रदेश में पदावनति कर दलितों को बेइज्जत किए जाने पर जिस तरह सभी नेता मौन रहे; उससे यह लग रहा था कि भारत के दलित भारतीय राजनीति में अनाथ हो गए हैं. देश की दोनों ही राष्ट्रीय पार्टी- यथा कांग्रेस और भाजपा और राज्य स्तर पर बड़ी-बड़ी पार्टियों में एक भी दलित लिडर ऐसा नहीं था जो दलित पर हो रहे अत्याचारों के इन मुद्दों को राष्ट्रीय राजनीति में उठा कर इसे राष्ट्र का मुद्दा बना सके.
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के शासनकाल में लाखों कर्मचारियों के साथ अन्याय होता रहा और समाजवादी पार्टी के 58 विधायक जो आरक्षित सीटों से चुनकर आए हैं तथा भाजपा से आरक्षित सीटों पर चुनकर आए 17 सांसदों ने चूं तक भी नहीं किया और मौन बने रहें. इस सबसे एक बार फिर यही आभाष होता रहा कि भारत के दलित राजनैतिक रूप से अनाथ हो गए हैं. परंतु ऐसे अंधेरे में आशा की किरण बनकर मायावती जी ने गुजरात एवं मुंबई के मुद्दे को राज्यसभा में पूरे दम-खम से उठा कर दलितों को भारत की राजनीति में अनाथ होने से बचा लिया. और आज गुजरात में दलितों पर अत्याचार का मुद्दा राष्ट्रीय मुद्दा बन गया है. इस मुद्दे पर संसद के दोनों सदनों में बहस हुई तथा राजनेताओं को इसकी निंदा करने के लिए मजबूर होना पड़ा. भारत के गृहमंत्री को भी इस घटना की घोर निंदा करनी पड़ी. गुजरात की मुख्यमंत्री को भी घटना के नौ दिन बाद संज्ञान लेने पर मजबूर होना पड़ा और पीड़ित परिवारों को चार लाख का मुआवजा घोषित करना पड़ा. वास्तविकता में बहन जी ने यह मुद्दा राष्ट्र मुद्दा बना दिया है.
प्रो. (डॉ.) विवेक कुमार प्रख्यात समाजशास्त्री हैं। वर्तमान में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ सोशल साइंस (CSSS) विभाग के चेयरमैन हैं। विश्वविख्यात कोलंबिया युनिवर्सिटी में विजिटिंग प्रोफेसर रहे हैं। ‘दलित दस्तक’ के फाउंडर मेंबर हैं।