Wednesday, April 16, 2025
HomeTop Newsफ्रैंक हुजुर का दुनिया से जाना

फ्रैंक हुजुर का दुनिया से जाना

कश्मीरी गेट पहुँचते ही अचानक वह बेहोश होकर पीछे की और गिरने लगे। मैंने उन्हें थाम लिया और बगल वाली सीट पर बिठा दिया। सामान्य होने के बाद झेंप मिटाने के लिए वह मुस्कुराने लगे। कुछ ही मिनटों में ट्रेन विश्वविद्यालय पहुँच गई। ट्रेन से उतरने के बाद वह कहे,’ आप प्रोफ़ेसर रतनलाल के घर निकलिये, मैं मॉडल टाउन के लिए आगे बढ़ता हूँ।’ मैंने मना करते हुए कहा कि आप मॉडल टाउन न जाकर पहले हिन्दू कॉलेज चलें और प्रोफ़ेसर रतनलाल के घर पर रेस्ट लें। वह मान गए।

नई सदी में हाशिये के समाज में जन्मे किसी लेखक के आकस्मिक तौर पर निधन से बहुसंख्य वंचित वर्गों के बुद्धिजीवी और एक्टिविस्टों को 6 मार्च, 2025 जैसा आघात कब लगा था, मुझे याद नहीं! उस दिन सुबह अपार प्रतिभा और अतुलनीय मेधा के स्वामी फ्रैंक हुजूर के निधन की अविश्वसनीय व हतप्रभ कर देने वाली खबर सुनकर लोगों में जो शोक की लहर दौड़ी, वह शायद इससे पहले नहीं देखी गई, कम से कम हिंदी पट्टी में तो नहीं ही। शोक की ऐसी लहर 2014 में विश्व कवि नामदेव ढसाल के निधनोपरांत महाराष्ट्र में देखी गई थी, तब उनकी शव- यात्रा में शोक व्हिवल 60 हजार से अधिक लोग शामिल हुए थे। 6 मार्च की सुबह 9 बजे से सोशल मीडिया पर फ्रैंक हुजूर की हृदयाघात से निधन की खबर वायरल होने के साथ उनके लिए फेसबुक और ट्विटर पर श्रद्धांजलि का सैलाब उमड़ पड़ा। सामाजिक न्याय और समाजवादी विचारधारा के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले फ्रैंक हुजुर के निधन से भारत में विविधता और समावेशन मिशन के लिए अपूरणीय क्षति हुई है, ऐसा अधिकांश लोगों ने लिखा।

ब्रिटिश शैली का सूट, बाएं हाथ में सिगार और दाहिने हाथ में कलम लिए उनकी जो एक युगांतकारी विचारक की छवि निर्मित हुई थी, लोग उसे याद कर रहे थे। उनके चाहने वाले याद कर रहे थे उनकी अद्वितीय लाइफ स्टाइल, मैनरिज्म , सलीके से उठने- बैठने, चलने और मेहमाननवाजी के लखनवी अंदाज के साथ सोशलिस्ट फैक्टर मैगजीन के जरिये बेशुमार युवाओं को समाजवादी पार्टी से जोड़ने और आगे बढ़ाने के अवदानों को। हर कोई यह बताने में होड़ लगा रहा था कि जोश, गतिशीलता और जिन्दादिली से लबरेज अद्वितीय पत्रकार, लेखक, नाटककार और पॉलिटिकल एक्टिविस्ट फ्रैंक का जीवन सोशल जस्टिस और सेकुलरिज्म के लिए समर्पित था। ह्रदय की अतल गहराइयों से श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनके चाहने वाले उनकी अभिनेत्री पत्नी फर्मिना मुक्ता सिंह और बेटे मार्कोस के भविष्य को लेकर भी चिंता जाहिर कर रहे थे। उनमें हेमिंग्वे, रुश्दी, नायपॉल बनने की संभावना देखने वाले इस बात से नाराज दिखे कि क्यों वह लन्दन छोड़कर इंडिया आ गए और समाजवादी पार्टी पर निर्भर हो गए। उन्हें लन्दन या न्यूयार्क में ही बैठकर लेखन करते रहना चाहिए था।

फ्रैंक हुजूर की प्रोफाइल बायोग्राफी
फ्रैंक हुजूर का जन्म 21 सितंबर 1977 को बिहार के बक्सर में हुआ था, जो लेखकों और विचारकों की भूमि के रूप में जाना जाता है। 1980 के दशक की शुरुआत में, जब वह केवल छह महीने के थे, उनकी माँ का निधन हो गया। इसके बाद उनका पालन-पोषण उनके पिता बब्बन सिंह ने किया, जो एक सिविल सर्वेंट (डीएसपी) थे। 1990 के दशक में उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा सेंट जेवियर्स कॉलेज से पूरी की और फिर उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली चले गए, जहाँ उन्होंने भारत के प्रतिष्ठित हिंदू कॉलेज में दाखिला लिया। पढ़ाई के दौरान उन्होंने 1990 के दशक के मध्य में ‘हिटलर इन लव विद मैडोना’ नामक एक नाटक लिखा, जो जल्द ही भारत में एक विवादास्पद विषय बन गया। इस नाटक में कट्टर हिंदुत्व की आलोचना और भारतीय धर्मनिरपेक्षता पर प्रश्न उठाए गए थे, जिसके कारण गृह मंत्रालय ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया! यही उनके जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। इस नाटक के कारण उन्हें काफी विरोध का सामना करना पड़ा और उन्हें गुमनामी में जाना पड़ा। उनकी पत्रिका ‘यूटोपिया’ भी केवल 13 अंकों के बाद बंद हो गई। इस विवाद के बाद, मई 2002 में उन्होंने ‘ब्लड इज़ बर्निंग’ नामक एक और प्रगतिशील नाटक लिखा, जो 2002 के गुजरात दंगों पर आधारित था, लेकिन इसे प्रकाशित नहीं किया गया।
कांग्रेस नेता और लोकसभा में नेता विपक्ष राहुल गांधी के साथ फ्रैंक हुजूरफ्रैंक हुज़ूर ने 2 जुलाई 2002 को आधिकारिक रूप से अपना कलमी नाम ‘फ्रैंक हुज़ूर’ अपना लिया। उन्होंने कहा था, ‘लोग कहते हैं कि मेरी माँ, जिनका निधन तब हो गया था जब मैं छह महीने का था, मुझे हुज़ूर कहकर पुकारती थीं।’ ‘ब्लड इज़ बर्निंग’ नाटक उनके व्यक्तिगत जीवन में भी महत्वपूर्ण साबित हुआ। इस नाटक के निर्माण के दौरान उन्होंने निर्देशक मुक्ता सिंह के साथ काम किया। उनका पेशेवर सहयोग धीरे-धीरे व्यक्तिगत संबंध में बदल गया, लेकिन उनकी शादी जातिगत भेदभाव के कारण विवादों में आ गई। अंततः 9 जुलाई 2002 को उन्होंने सामाजिक मान्यताओं को चुनौती देते हुए मुक्ता सिंह से प्रेम विवाह किया। विवाह के बाद वे प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार राजेंद्र यादव के पास गए, जिन्होंने उन्हें समर्थन दिया। इस कारण वे हर साल 9 जुलाई को अपनी शादी की वर्षगांठ मनाते थे।

2004-08: इस दौरान उन्होंने पत्रकारिता और साहित्य में सक्रियता से काम किया। उन्होंने ‘इमरान वर्सेज इमरान: द अनटोल्ड स्टोरी’ नामक एक जीवनी लिखी, जो पाकिस्तानी क्रिकेटर से राजनेता बने इमरान खान के जीवन पर आधारित थी’।

2008-12: इस दौरान वे लंदन चले गए और वहाँ के साहित्यिक और कलात्मक परिवेश से जुड़े। लंदन में उन्होंने अपने संस्मरण ‘सोहो’ पर काम किया, जिसमें उनकी वहां की जीवनशैली और अनुभव शामिल हैं। इसी दौरान उन्होंने समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव से मुलाकात की, जिनके साथ उनकी मित्रता हो गई। अखिलेश यादव ने उनकी राजनीतिक क्षमता को पहचानते हुए उन्हें भारत वापस बुलाया।

2014-19: भारत लौटने के बाद, उन्होंने ‘सोशलिस्ट फैक्टर’ नामक एक मासिक पत्रिका शुरू की, जो समाजवादी विचारधारा को बढ़ावा देने के लिए समर्पित थी। उन्होंने मुलायम सिंह यादव की जीवनी ‘द सोशलिस्ट: मुलायम सिंह यादव’ और अखिलेश यादव की जीवनी ‘टीपू स्टोरी’ लिखी।
अखिलेश यादव के मुख्यमंत्रित्व काल में उन्हें लखनऊ में एक बंगला आवंटित किया गया, जिसे उन्होंने सोशलिस्ट फैक्टर का कार्यालय बना दिया। वहाँ उन्होंने 50 से अधिक बिल्लियों को आश्रय दिया और उन्हें समाजवादी दर्शन का प्रतीक माना। उनकी सबसे प्रिय बिल्ली बोका (अर्जेंटीना के प्रसिद्ध फुटबॉल क्लब बोका जूनियर्स के नाम पर) थी, जिसे वह ‘दिव्य समाजवादी बिल्ली’ कहते थे। बोका की मृत्यु के बाद, उन्होंने उसके लिए एक स्मारक भी बनवाया। 2019 में, जब अखिलेश यादव की सरकार खत्म हुई, तो उन्हें लखनऊ का बंगला खाली करने के लिए मजबूर किया गया। इसके लम्बे अंतराल बाद वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़े और राहुल गांधी के साथ सामाजिक न्याय और जातिगत जनगणना जैसे मुद्दों पर काम करने लगे. उन्होंने हमेशा सत्ता को चुनौती दी, समाज में बदलाव लाने का प्रयास किया, और अपने विचारों से कभी समझौता नहीं किया। फ्रैंक हुज़ूर केवल एक लेखक या राजनीतिक विचारक नहीं थे, वे एक साहसी व्यक्ति थे, जिन्होंने हमेशा सवाल उठाए, सत्ता को चुनौती दी और सच्चाई की खोज में लगे रहे!’

फ्रैंक की मौत : राजनीतिक आइसोलेशन से उपजी एंजाइटी का नतीजा
बहरहाल फ्रैंक हुजूर के निधन की खबर वायरल होने के बाद सोशल मीडिया पर कलेजे को चीर कर रख देने वाली श्रद्धांजलियों का सैलाब ही नहीं आया। सैलाब उनकी असामयिक मौत को लेकर उठे सवालों का भी आया। उनके चाहने वाले हैरान और परेशान थे कि कैसे 48 साल का एक गबरू जवान मौत के आगोश में चला गया? जवाब जो सामने आया, वह था राजनीतिक नेतृत्व द्वारा घोरतर उपेक्षा! इसे देखते हुए ढेरों लोगों ने लिखा कि फ्रैंक की मौत उन युवाओं के लिए सबक है, जो किसी दल के पीछे अपना भविष्य दांव पर लगा देते हैं। उनके बहुत करीबी रहे मयंक यादव ने लिखा,’ फ्रैंक भाई चल बसे। साथ ही जिनके लिए जीवन खपा दिए, उनकी मानवता भी चल बसी। जाना तो दूर दो शब्द नहीं बयां हो सके। इसलिए जो नए – नए लड़के नेताओं के आगे पीछे की दुनिया को ही अंतिम मानते हैं, उन्हें बता सकूं कि सही में आपका अंत वहीं हो जाता है।’ उनके एक और करीबी अरुण नारायण ने लिखा, ‘समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के साथ फ्रैंक ने जिस मिशन के साथ काम किया, इन पार्टियों के दोनों क्षत्रप- उनकी मौत पर जिस तरह की चुप्पी साधे नजर आये, यह फ्रैंक की मौत से भी ज्यादा भयावह है। (हालांकि राहुल गांधी ने देर से ही सही फ्रैंक की पत्नी को पत्र लिखा और फ्रैंक हुजूर को श्रद्धांजलि दी) फ्रैंक की मौत हर उन पूरावक्ती सामाजिक, राजनैतिक कार्यकर्ताओं के लिए भी एक सबक है कि वे किसी भी धारा के लिए काम करें, उसके पहले अपनी आर्थिक, वैचारिक जमीन पुख्ता कर लें, क्योंकि जिन पार्टियों के लिए वे ईंट – गारा बनने जा रहे हैं वह वर्षों ऐतिहासिक अयोग्ताओं का शिकार रही है। संभव है वहां सैकड़ों फ्रैंक कुर्बान हो जाएं। इतिहास आने वाले समय का जब भी मूल्यांकन करेगा तो वह इस बात को बहुत शिद्दत से रेखांकित करेगा कि जब हिंदी बहुजन बौद्धिकता का एक बड़ा हिस्सा लगातार फासीवाद की शरण में जा रहा था, बिहार का एक स्वप्नदर्शी श्रमण अपनी ही धारा में उपेक्षित किये जाने के बावजूद समाजवाद की आवाज मुखर करता हुआ रूख्सत हुआ!’

फ्रैंक हुजूर के एक और प्रिय साथी जेनुआइट एक्टिविस्ट विनय भूषण ने इस त्रासदी को खुलकर शब्द देते हुए लिखा, ’उनकी मौत राजनीतिक आइसोलेशन से उपजी एंजाइटी का नतीजा है। ज्ञात हो कि वह समाजवादी पार्टी की माउथ पिस ‘सोशलिस्ट फैक्टर’ नामक पत्रिका के संस्थापक संपादक थे। इस पत्रिका के माध्यम से उन्होंने समाजवादी पार्टी ही नहीं, इससे जुड़ी शख्सियतों पर धारदार कलम चलाई। उन्होंने नेताजी की जीवनी लिखी, अखिलेश यादव जी पर केंद्रित अपनी पत्रिका का विशेषांक निकाला। कई और भी नामी – गिरामी हस्तियों की जीवनी लिखी। सरकार की योजना चाहे कोई भी हो, उसका महिमामंडन किया। पर, फिर भी समर्पित भाव से इतना सब करने के पश्चात् फ्रैंक भाई को दूध से मक्खी की तरह निकाल कर बाहर फेंक दिया गया। किसी पार्टी के लिए समर्पित भाव से काम करने वाला बुद्धिजीवी तबका ही इस बात को बेहतर तरीके से समझ सकता है कि ऐसी स्थिति में उस लेखक या विचारक के पास अवसाद में जाने और दर्द में तड़पने के सिवा दूसरा बचता ही क्या है। देश और राज्य स्तर की नामचीन संपन्न समाजवादी घरानों में शुमार एक परिवार द्वारा अपने विद्वान कार्यकर्ता को उसके सुर में सुर नहीं मिला पाने के कारण हाशिए पर ढकेल दिया गया। अंत के दिनों में उन्हें अपना घर चलाने के लिए फ्रीलांसिंग करनी पड़ी। उससे ज्यादा पीड़ादायक स्थिति किसी राजनीतिक विचारधारा से जुड़े शख्सियत के लिए और क्या हो सकती है?

तो क्या फ्रैंक की मौत के पीछे इलाज में नेग्लिजेंसी रही!

लेकिन पॉलिटिकल आइसोलेशन से उपजी एंजाईटी से 48 साल का कोई गबरू जवान तन और मन से तिल – तिल करके टूट तो सकता है, लेकिन उससे उपजे हालात से वह आकस्मिक मौत का शिकार नहीं हो सकता। ऐसे में राजनीतिक उपेक्षा से आगे बढ़कर जब लोग फ्रैंक हुजूर की अविश्वसनीय मौत के कारणों की तह में गए तो उन्हें नजर आई: ‘इलाज में ‘नेग्लिजेंसी!’ इसे लेकर सबसे पहले सवाल उठाये प्रखर बहुजन चिन्तक चंद्रभूषण सिंह यादव, जो कभी फ्रैंक हुजूर की पत्रिका सोशलिस्ट फैक्टर के कंट्रीब्यूटिंग एडिटर रहे। उनकी मौत पर पूरे देश में सर्वाधिक, संभवतः दर्जन भर से अधिक आलेख लिखने वाले चन्द्रभूषण सिंह यादव ने इलाज में लापरवाही पर गंभीर सवाल उठाते हुए अपने एक पोस्ट में लिखा, ’इस पूरे प्रकरण में जो महत्त्वपूर्ण बात है वह यह कि अस्वस्थ अवस्था में फ्रैंक हुजूर जी को दिल्ली बुलाया क्यों गया? यदि वे दिल्ली पहुँच ही गए तो उन्हें राहुल गांधी से मिलने के बाद प्रॉपर इलाज का इंतजाम क्यों नहीं किया गया? बीमार फ्रैंक हुजूर को देश की सबसे प्राचीन पार्टी कांग्रेस ने मेट्रो के भरोसे क्यों छोड़ दिया? क्या कांग्रेस पार्टी के पास इतनी भी सामर्थ्य नहीं कि वह बहुजन समाज के इतने बड़े थिंक टैंक को किसी ढंग के होटल, गेस्ट हाउस, वेस्टर्न कोर्ट, यूपी भवन आदि जगह पर ठहरा सके? वह बीमार अवस्था में दिल्ली आये तो राहुल गांधी जी का फर्ज नहीं बनता था कि इस अवस्था में उनका ध्यान रखा जाए? उनका इलाज कराया जाय? उन्हें टैक्सी मुहैया कराई जाय? बीमार अवस्था में उनको सुविधा मुहैया कराये? मगर नहीं, उनको तो इस अवस्था में संविधान बचाव कमेटी ने उन्हें अकेला छोड़ दिया, फिर राहुल जी आमजन का क्या ख्याल करेंगे?

दूसरा, जब वह मेट्रो में बेहोश हुए तब एच. एल. दुसाध सर, जो अपने को विद्वान् मानते व कहते हैं , उनसे यह जहमत नहीं हुई कि उन सिम्पटम को सीरियस लेकर रतनलाल जी के यहाँ न जाकर डॉक्टर या हास्पिटल जाते, मगर नहीं पहले उन्हें राहुल जी को जननेता बनाना है, फिर फ्रैंक जैसे लोग बेशक मौत की आगोश में जाते रहें! तीसरा, रतनलाल जी के घर में काफी देर तक दुसाध सर और फ्रैंक हुजूर रहे और वह सब बातों से अवगत होते हुए, सिर्फ डॉक्टर से बात करके अपना फर्ज पूरा कर लिए। मतलब खानापूर्ति कर ली क्योंकि उन्हें बहन जी के खिलाफ अनापशनाप बोलने से फुर्सत मिले तो वह दूसरों को सीरियसली लें!’ फ्रैंक हुजूर के इलाज में बरती गई लापरवाही को उजागर करता चन्द्रभूषण यादव का यह पोस्ट जहाँ कई लोगों ने शेयर किया, वहीं संभवतः उससे प्रेरित होकर कुछ लोगों ने खुली घोषणा कर दिया,‘ फ्रैंक हुजूर की मौत के लिए जिम्मेवार हैं: एच एल दुसाध, प्रो रतनलाल और अनिल जयहिंद!’

लेकिन किसी को निशाने पर न लेने के बावजूद प्रायः अधिकांश का मानना रहा कि यदि फ्रैंक राहुल गांधी से मिलने लखनऊ से दिल्ली नहीं जाते तो यह हादसा नहीं होता। खुद इस घटना से सदमे में आई मेरी पत्नी मेवाती दुसाध कई बार मेरे मुंह पर कह चुकी हैं कि फ्रैंक अगर राहुल गांधी से मिलने नहीं जाते तो यह घटना नहीं होती। बहरहाल राहुल गांधी से जुड़ना और ख़राब तबियत लेकर उनसे मिलने दिल्ली जाना ही अगर फ्रैंक के दुखद अंत का कारण है तो इसके लिए एकल रूप से कोई सर्वाधिक जिम्मेवार है तो सिर्फ और सिर्फ एच एल दुसाध यानी मैं! इसे समझने के लिए थोड़े अतीत में जाना होगा जब मैं फ्रैंक हुजूर के निकट आया।

फ्रैंक हुजूर के सीने में ताउम्र धधकती रही : सामाजिक अन्याय के खिलाफ आग

लेखन की दुनिया से जुड़े होने के बावजूद लेखकों की सभा- संगोष्ठियों में जाने से आज भी परहेज करता हूँ इसलिए बहुत ही कम लेखकों से मेरा परिचय है। संभवतः अपनी इस कमी के कारण फ्रैंक हुजूर का पहली बार नाम 2014 में उनके साहित्यिक आइकॉन राजेन्द्र यादव के निधन के बाद सुना। फेसबुक से चला कि फ्रैंक हुजूर ने ही सबसे पहले राजेन्द्र यादव के निधन की जानकारी दी। उनका यूनिक नाम भी मुझे अलग से आकर्षित किया। उसके बाद उनमें रूचि लेने लगा और ज्यों – ज्यों उनके विषय में जानकारी मिलती गयी त्यों – त्यों उनके प्रति आकर्षण भी बढ़ते गया। अंततः 2015 के जाते- जाते मैने समाजवादी पार्टी से जुड़े भाई चन्द्रभूषण सिंह यादव से निवेदन कर डाला कि वह स्टाइलिश फ्रैंक हुजूर से मिलवा दें और उन्होंने मेरे अनुरोध की रक्षा भी किया! एक दो मुलाकातों के बाद ही हम न सिर्फ एक दूसरे के बहुत निकट आ गए, बल्कि एक दूसरे के मुरीद भी बन गए। कारण दो रहे। एक तो सोच से हम दोनों हिन्दू – धर्म- संस्कृति से पूरी तरह मोहमुक्त: काफी हद तक वेस्टर्नाइज्ड रहे। दूसरे, हम दोनों के दिलों में सामाजिक अन्याय के खिलाफ समान रूप से आग धधकती रही। हमदोनों ही सामाजिक अन्याय-मुक्त भारत निर्माण के आकांक्षी रहे। रुचियों और वैचारिक साम्यता के कारण हममें जो निकटता हुई, वह दिन ब दिन प्रगाढ़ होती गई। कभी एक पल के लिए भी उसमें शिथिलता नहीं आई. हम एक दूसरे से इतना प्रभावित रहे कि 2017 के जुलाई में फ्रैंक हुजूर ने ‘सोशलिस्ट फैक्टर’ मैगजीन में भारत के सर्वकालिक 100 ग्रेटेस्ट इंडियंस की जो तालिका जारी किया, उसमें मुझे भी जगह देकर आभारी बना दिए। बाद में जीवन के शेष दिनों तक जगह – जगह उल्लेख करने के साथ लोगों से मेरा परिचय कराते हुए कहते रहे,’ दुसाध को मैं दिलीप मंडल के साथ भारत का चोम्स्की या फिर कहें तो कैटलीन जोंस्टन मानता हूँ।‘ मैंने भी उन्हें ‘बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’, जिसका संस्थापक अध्यक्ष मैं खुद हूँ, की ओर से उन्हें 2017 के दिसंबर में चन्द्रभूषण सिंह यादव और डॉ कौलेश्वर प्रियदर्शी के साथ ‘डाइवर्सिटी मैन ऑफ़ द ईयर’ खिताब से नवाजा। यही नहीं बाद में वह जीवन के शेष दिनों तक ‘बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष की जिम्मेवारी निभाते रहे। बाद में सामाजिक अन्याय के खिलाफ धधकती आग ही उनके राहुल गांधी के अभियान से जुड़ने का सबब बनी।

राहुल गांधी से जुड़ने का सबब बनी: फ्रैंक हुजूर में सीने में धधकती सामाजिक अन्याय के खिलाफ आग
लोकसभा चुनाव की पृष्ठभूमि में 2023 के 24 – 26 फरवरी तक रायपुर में आयोजित कांग्रेस के 85वें अधिवेशन में सामाजिक न्याय से जुड़े जो कई प्रस्ताव पास हुए, वह औरों की भांति मुझे भी आकर्षित किये। बाद में जब मई, 2023 में कांग्रेस ने राहुल गांधी के नेत्तृत्व में कर्णाटक चुनाव को सामाजिक न्याय पर केन्द्रित करते हुए भाजपा को गहरी शिकस्त दिया, मुझमें यह विश्वास पनपा कि कांग्रेस अगले लोकसभा को सामजिक न्याय पर केन्द्रित कर सकती है और अगर ऐसा करती है तो मोदी की सत्ता में वापसी मुश्किल हो जायेगी। यह सोच कर ही मैं राहुल गांधी के पक्ष में, जो सामाजिक न्याय को नित नई उंचाई दिए जा रहे थे, धुआंधार कलम चलाना शुरू किया। लोकसभा चुनाव करीब आते-आते मुझे राहुल गांधी में समतामूलक भारत निर्माण की आखिरी उम्मीद नजर आने लगी। ऐसे में उनका हाथ मजबूत करने के लिए सक्रिय रूप से कांग्रेस से जुड़ने का मन बनाने लगा। मैंने अपनी यह ख्वाइश और किसी के सामने नहीं, सिर्फ फ्रैंक हुजूर के समक्ष रखी। उन्होंने मेरी इच्छा का सम्मान करते हुए ऐसे किसी व्यक्ति से मिलवाने का आश्वासन दिया, जिसके जरिये मैं यूपी कांग्रेस नेतृत्व से मिल सकूं। उनका प्रयास रंग लाया और उत्तर प्रदेश के कांग्रेस अध्यक्ष अजय राय के एक बेहद करीबी से उनके ही आवास पर एक बैठक हुई। अजय राय के उस करीबी ने कुछ दिन बाद उनसे मुलाकात का समय स्थिर किया। नियत समय पर मैं फ्रैंक हुजूर के साथ ही अजय राय से मिलने कांग्रेस मुख्यालय गया। उसके बाद दो- तीन बार और कांग्रेस मुख्यालय गया। हर बार फ्रैंक मेरे साथ रहे। किन्तु एकाधिक कारणों से मैं कांग्रेस ज्वाइन करने से पीछे हट गया। इस दरम्यान धीरे – धीरे मेरे अनुरोध पर फ्रैंक भी राहुल गांधी का हाथ मजबूत करने का मन बनाने लगे।

उस समय तक संविधान बचाओ संघर्ष समिति के संयोजक डॉ. अनिल जयहिंद राहुल गांधी के करीब आ चुके थे, जिनके साथ मिलकर मैं डाइवर्सिटी केन्द्रित कई आयोजन कर चुका था। मैंने उन्हें राहुल गांधी के प्रति फ्रैंक हुजूर के आकर्षण से अवगत कराया। इसके बाद उन्होंने 13 जनवरी, 2024 को राहुल गांधी से बहुजन बुद्धिजीवियों को मिलवाने का जो कार्यक्रम तय किया, उसमें फ्रैंक को भी लाने का निर्देश दिया और 13 जनवरी को 10 जनपथ में मेरे साथ फ्रैंक हुजूर भी पहली बार राहुल गांधी से मिले। उसी दिन शायद पहली बार प्रो रतनलाल और प्रो.सूरज मंडल भी साथ राहुल गांधी से मिले। उस मुलाकात में मैंने कांग्रेस से जुड़ी अपनी पांच किताबें राहुल गांधी को भेंट की थी, जो 2023 में तैयार की गई थीं। भारत जोड़ों न्याय यात्रा के शुरू होने के एक दिन पहले हुई उस मुलाकात के बाद फ्रैंक हुजूर और डॉ. अनिल जयहिंद एक दूसरे के निकट आ गए। उनकी यह निकटता प्रगाढ़ता में तब बदल गई, जब 10 मई, 2024 को लखनऊ में संविधान सम्मेलन आयोजित हुआ। 13 जनवरी, 2024 के बाद 10 मई, 2024 को फिर हम दोनों एक साथ राहुल गांधी के प्रोग्राम में शिरकत किये। लखनऊ के संविधान सम्मलेन के बाद तो फ्रैंक हुजूर डॉ. अनिल जयहिंद के संविधान बचाओ सम्मेलनों की टीम के अभिन्न अंग बन गए। फिर तो वह कई सम्मेलनों में बढ़ चढ़कर हिस्सेदारी किये और बाद में 28 जनवरी को डॉ जगदीश प्रसाद, अली अनवर, भगीरथ मांझी इत्यादि के साथ कांग्रेस में शामिल हो गए।

उक्त अवसर पर उनका संबोधन ऐतिहासिक रहा। जिस किसी ने उनका वह संबोधन देखा, वह उनके बात रखने के अंदाज़ और कंटेंट से विस्मित हुए बिना रह सका। उन्होंने अपने छोटे, मगर यादगार संबोधन में कहा था,’ हम यहाँ भारत की सबसे पुरानी पार्टी, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की छत्रछाया में आशा की एक किरण प्रदान करने के लिए हैं। पार्टी का लगभग 140 वर्षों का समृद्ध इतिहास है। यह मेरे साथ – साथ संविधान और सामाजिक न्याय, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों में विश्वास करने वाले सभी लोगों के लिए एक बड़ा सम्मान है। मैं न्याय योद्धा राहुल गांधी जी के कारण आज यहाँ कांग्रेस पार्टी के साथ हूँ। बीजेपी आरएसएस ने उन्हें नीचे गिराने के लिए अरबों रूपये इन्वेस्ट किया है। पर, राहुल गांधी ने हिम्मत नहीं हारी। एक स्थापित मशीनरी के खिलाफ लड़ाई की है और उसे हरा दिया है। मोदी जी और उनकी टीम बुरी तरह असफल रहे और राहुल गांधी जी से हार गए हैं। न्याय योद्धा राहुल गांधी आज नब्बे फ़ीसदी इंडियंस की असली आवाज और उम्मीद बन गए हैं।‘
लखनऊ वाले संविधान सम्मलेन के बाद मैं न तो संविधान श्रृंखला के अन्य किसी आयोजन में शामिल हुआ और न ही पार्टी ज्वाइन किया। पर, मन में यह हसरत जरुर रही कि राहुल गांधी से एक बार फिर मिलकर कांग्रेस के लिए जो योजना मेरे पास है, वह उनके समक्ष रखूं। इसलिए कुछ माह पूर्व मैंने जयहिंद साहब से अनुरोध किया था कि एक बार फिर राहुल जी से मिलवा दें। यह बात उनके जेहन में थी, इसलिए जब 4 मार्च को राहुल गांधी से कुछ लोगों को मिलवाने का प्रोग्राम स्थिर किये तो मुझे भी शामिल होने न्योता दे डाले, क्योंकि उन्हें पता था इस समय मैं दिल्ली में हूँ।

फ्रैंक के साथ मेरे आखिरी साढ़े 6 घंटे
4 मार्च को राहुल गांधी से मिलने का समय 4 बजे निर्दिष्ट हुआ था। इस क्रम में डॉ जयहिंद का निर्देश था कि राहुल जी से मिलने जाने वाले 3 बजे तक प्रेस क्लब आ जाएं। मैं ठीक 3 बजे पटना से आए अमर आजाद के साथ प्रेस क्लब में प्रवेश किया तो फ्रैंक हुजूर पहले से बैठे दिखे। मैं उनके पास पहुँच कर हैण्ड शेक किया। हमलोग शायद कुछेक माह के अंतराल पर पहली बार मिलले थे। किराये के नए मकान में शिफ्ट करने के बाद एक डेढ़ माह पहले वह मुझे अपने घर आने का अनुरोध किये थे पर, समयाभाव के कारण जा न सका था। उस दिन उनके चेहरे पर पहले वाला ग्लेज नहीं दिख रहा था। कारण पूछने पर बताये कि कल कोल्ड लग गई थी। थोड़ी देर बाद भारत विख्यात ह्रदय रोग विशेषज्ञ डॉ. जगदीश प्रसाद भी आ गए और फ्रैंक के बगल में बैठ गए। उन्होंने कहा लगता है आपकी तबियत ठीक नहीं है? फ्रैंक उनको भी जवाब दिए कि कल कोल्ड लग गई थी। तबियत के बारे में पूछने पर और भी कुछ लोगों को यही बताये। बहरहाल पौने चार बजे के करीब हम सब 10 जनपथ के लिए रवाना हुए, जहां 4. 30 बजे राहुल गांधी हम लोगों के बीच आए। 13 जनवरी, 2024 के बाद यह दूसरा अवसर था, जब हम दोनों एक साथ राहुल गांधी से मिलने पहुंचे थे।

मीटिंग हॉल में हम दोनों सबसे अंत में एक दूसरे के आमने सामने बैठे हुए थे। सबकी भांति फ्रैंक भी अपना परिचय देने के बाद डेढ़ दो मिनट अपनी बात रखे और राहुल गांधी सहित सभी मुग्ध भाव से सुनते रहे। उनके बाद आखिर में मुझे अपना परिचय देने का अवसर मिला। साढ़े पांच बजे के बाद मीटिंग ख़त्म हुई। उसके बाद फोटो सेशन शुरू हुआ। फ्रैंक के जीवन की जो आखिरी तस्वीर ली गई, उसमें उनके बाएं राहुल गांधी और दाहिने मैं रहा। उनके साथ फोटी लेते हुए राहुल गांधी के चेहरे से अलग ख़ुशी झलक रही थी। शायद वह उनके व्यक्तित्व से अतिरिक्त रूप से इम्प्रेस हुए थे, जिसकी झलक उनके उस पत्र में भी दिखी, जो उन्होंने उनके निधन के बाद कुछ देर से उनकी जीवन संगिनी मुक्ता जी के नाम लिखा गया था। राहुल गांधी से मुलाकात के बाद जब सभी अपने-अपने ठिकाने के लिए रवाना होने लगे, उन्होंने मुझसे पूछा,’ आप किधर जायेंगे? जब उन्हें पता चला कि मैं प्रो रतनलाल से मिलने हिन्दू कॉलेज जा रहा हूँ, तब उन्होंने कहा, ’हम साथ–साथ चलेंगे। मुझे मॉडल टाउन अपने मित्र के घर जाना है।’ फिर हम दोनों डॉ. जगदीश प्रसाद की गाड़ी में बैठ कर केन्द्रीय सचिवालय मेट्रो स्टेशन पहुंचे। प्लेटफार्म पर पहुँचने के साथ ही ट्रेन आ गई। पर, वह विश्वविद्यालय तक के लिए थी। इसे देखकर उन्होंने कहा आप निकल लीजिये, मैं अगली ट्रेन से जाऊंगा। फिर मैंने कहा साथ में चलते हैं, आगे चलकर ट्रेन बदल लीजियेगा और वह मान गए। सीट नहीं मिली थी और हम खड़े होकर यात्रा कर रहे थे। कश्मीरी गेट पहुँचते ही अचानक वह बेहोश होकर पीछे की और गिरने लगे। मैंने उन्हें थाम लिया और बगल वाली सीट पर बिठा दिया। संग- संग एक महिला ने पानी की बोतल बढ़ा दिया। कुल मिलाकर बमुश्किल 45 सेकेण्ड में वह सामान्य हो गए। सामान्य होने के बाद झेंप मिटाने के लिए वह मुस्कुराने लगे। कुछ ही मिनटों में ट्रेन विश्वविद्यालय पहुँच गई। ट्रेन से उतरने के बाद वह कहे,’ आप प्रोफ़ेसर रतनलाल के घर निकलिये, मैं मॉडल टाउन के लिए आगे बढ़ता हूँ।’ मैंने मना करते हुए कहा कि आप मॉडल टाउन न जाकर पहले हिन्दू कॉलेज चलें और प्रोफ़ेसर रतनलाल के घर पर रेस्ट लें। वह मान गए।

मेट्रो से बाहर निकलते समय वह सामान्य तरीके से चल रहे थे, फिर भी मैं उनका हाथ थामे हुए था। ऊपर आकर मैंने ई– रिक्शा बुलाया, पर, उन्होंने पैडल रिक्शा से चलने की इच्छा जताई। रास्ते में एक जगह रिक्शा रोक कर वह एक मेडिकल स्टोर में गए और क्रोसिन के कुछ टेबलेट लिए। उन्हें साँस लेने में कुछ दिक्कत हो रही थी। इसलिए मैंने स्टोर वाले से पूछ कर उनके लिए रोटा हेलर और फोराकोर्ट – 400 कैप्सूल ले लिया। श्वांस कष्ट से बचने के लिए मैं खुद हर समय यह साथ रखता हूँ। बहरहाल 7 बजे के करीब हमदोनो प्रो. रतन के आवास पर पहुंचे। उस समय उन्हें ठण्ड लग रही थी। मैंने उन्हें जब फ्रैंक का हाल बताया, वह संग – संग अपने स्टूडियो वाले कमरे में पड़े मिनी दीवान पर आराम करने के लिए कहे। फ्रैंक कम्बल ओढ़कर रेस्ट लेने लगे। उसके बाद एक डॉक्टर को फोन कर उनकी तबियत का ब्यौरा देकर दवा लिखवाने लगे, पर वह दवा लेने से मना कर दिए। फिर वह उनके लिए काढ़ा बनवाए। कुछ देर रेस्ट लेने के बाद उन्होंने उनसे हॉस्पिटल चलने को कहा, पर उन्होंने इनकार करते हुए मॉडल टाउन जाने की इच्छा जताई। कुछ देर बाद रतनलाल भाप लेने की व्यवस्था कर दिए। यह सब करने के बाद उन्होंने जैसे एक शिक्षक छात्र को आदेश करता है, उसी तरह आदेश देते हुए कहे,’ तुम आज न तो ड्रिंक लोगे और न ही सिगरेट पियोगे!’ इसके बाद उन्हें रेस्ट लेने के लिए छोड़कर हम दोनों कमरे से बाहर आ गए और बीच- बीच में कमरे जा कर उनकी तबियत का जायजा लेते रहे।

इस दरम्यान वह अपने तबियत के बजाय ज्यादा बेचैन मॉडल टाउन अवस्थित अपने मित्र के घर जाने के लिए दिखे। अंततः मॉडल टाउन वाले उनके मित्र 9.30 के करीब अपनी गाड़ी लेकर प्रो. रतनलाल के दरवाजे पर हाजिर हो गए और पांच मिनट के अन्दर उन्हें लेकर चल दिए। जब वे दोनों जाने लगे प्रो. लाल दोनों की जेब से सिगरेट का पैकेट निकाल लिए। इससे पहले मना करने के बावजूद फ्रैंक एक सिगरेट पी चुके थे। इस तरह 3 से लेकर 9.30 बजे तक कुल साढ़े छ: घंटे साथ गुजारने के बाद फ्रैंक हमसे विदा लिए।

पांच मार्च : अपने मित्र के घर पर फ्रैंक
अगले दिन 5 मार्च की सुबह 9 बजे के करीब मैंने फ्रैंक का हाल चाल जानने के लिए फोन लगाया तो कहे तबियत तो ठीक है, पर बदन में दर्द है। यह जानकार मुझे अच्छा नहीं लगा कि 3 मार्च को उन्हें ठण्ड लगी और अब तक उनके बदन में दर्द है। कुछ चिंतित होकर मैंने डॉ. अनिल जयहिंद को फ़ोन लगाया और बताया कि फ्रैंक के बदन में अब भी दर्द है। उनका इलाज होना चाहिए। 20 – 25 मिनट बाद ही उनके सहयोगी वेद प्रकाश तंवर का फ़ोन आया। उन्होंने बताया कि बाड़ा हिंदूराव अस्पताल के तीन डॉक्टरों से बात हो चुकी है। उन्हें कहिये जाकर उनसे मिल लें। वे वहां उनका इंतजार करते मिलेंगे। फिर तंवर जी तीनों डॉक्टरों का संपर्क नंबर मुझे सुलभ करा दिए। मैंने वह नंबर जल्द ही 9.57 पर व्हाट्सप कर दिया और अनुरोध किया कि बिना आलस्य किये अस्पताल पहुँच जाएं और उन्होंने जाने के लिए आश्वस्त भी किया। उसके बाद मैं प्रो. रतनलाल से विदा लेकर नवीन शाहदरा पहुँच गया, जहाँ मेरी आने वाली तीन किताबों पर काम चल रहा था। दोपहर डेढ़ दो बजे के आसपास फोन लगाया तो पता चला वह अभी तक अस्पताल नहीं पहुंचे हैं। मैंने पुनः हिंदूराव अस्पताल जाने के लिए अनुरोध किया। जवाब मिला कि देखते हैं। प्रेस से काम निपटाकर मैं शाम 8 बजे किशनगढ़ पहुंचा, जहां ठहरा हुआ था। वहां से 8.15 के करीब उनको फ़ोन लगाया तो पता वह अस्पताल नहीं गए हैं और लखनऊ जाकर इलाज करवाएंगे। अस्पताल न जाने के लिए मैंने उन्हें हलकी सी झिड़की लगायी और पूछा इस स्थिति में लखनऊ कैसे जायेंगे। उन्होंने बताया कि किसी से बात हो चुकी है, बाई रोड उसकी गाड़ी से लखनऊ जायेंगे। मैंने कहा लखनऊ पहुँच कर बिना देर किये डॉक्टर से जरुर मिलिएगा। उन्होंने कहा,’ श्योर’! यही मेरा उनसे आखिरी वार्तालाप रहा।

6 मार्च : और फ्रैंक नहीं रहे
6 मार्च की सुबह पहला फोन डॉ. अनिल जयहिंद का आया। उन्होंने कहा कि 4 मार्च को राहुल गांधी से हमलोगों की जो मीटिंग हुई, उस पर 100 शब्दों में सबसे सुझाव माँगा गया है, जिसे बारह बजे तक लिखकर देना है। आप भी लिख डालिए। उनकी बात सुनने के बाद मैंने फ्रैंक हुजुर की तबियत के विषय में पूछा तो उन्होंने बताया कि दो बार उन्हें फोन लगाया, पर, दोनों बार ही उनका फोन स्विच ऑफ़ मिला। उनसे बात पूरी होने के बाद देखा कि प्रो रतनलाल का मिस कॉल पड़ा है। मैंने कॉल बैक किया तो उन्होंने कहा, ’फ्रैंक के विषय में कुछ पता है?’ मैंने कहा, ’नहीं!’ उन्होंने कहा, ’फ्रैंक नहीं रहे!’ सुनकर मैं सन्न रह गया। फिर वह बताये कि 4 मार्च की शाम हिन्दू कॉलेज से जाने के बाद उनके मॉडल टाउन वाले मित्र डॉक्टर के पास चलने का आग्रह करते रहे, पर वह तैयार नहीं हुए। अगले दिन आपने डॉक्टरों का नंबर भेजा, पर, वह हिंदूराव अस्पताल नहीं गए। कल शाम उनसे मिलने उनके दो मित्र आए और देर तक रहे। रात साढ़े बारह बजे के आसपास जब वे दोनों मित्र जाने लगे, उन्हें छोड़ने के लिए उनके मॉडल टाउन वाले मित्र गेट तक गए। उन्हें छोड़कर जब वापस कमरे में आए तो देखे कि फ्रैंक अचेत पड़े हैं। उसके बाद उन्हें किसी तरह लेकर फोर्टिस हॉस्पिटल गए, जहाँ डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। उन्होंने आगे बताया, ’आज सुबह जगने के बाद जब फ़ोन खोला तो देखा उनके मित्र का रात दो बजे का मिस्कॉल पड़ा हुआ है। अभी थोड़ी देर पहले जब कॉल बैक किया, तब सारी घटना की जानकारी मिली।

’प्रो. रतनलाल से बात करने के कुछ देर मैं जब थोडा सामान्य हुआ, मैंने फेसबुक खोला तो पाया कि फ्रैंक को श्रद्धांजलि देने का सैलाब आना शुरू हो चुका है। थोड़ी देर उनके विषय में जानने के लिए फोन आने का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह शाम तक लगातार जारी रहा। मैं तन और मन से टूट चुका था, इसलिए घर से बाहर नहीं निकला और प्रो. लाल और डॉ जयहिंद से फोन पर संपर्क कर आगे का हालचाल जानता रहा। पता चला उनके पिता बब्बन सिंह आ चुके हैं और बोर्ड ऑफ़ डॉक्टर्स से पोस्टमार्टम का अनुरोध किए हैं। पोस्टमार्टम अगले दिन होगा। बोर्ड ऑफ़ डॉक्टर्स से पोस्टमार्टम के निर्णय का प्रो लाल और डॉ. जयहिंद ने स्वागत किया। मैं अगले दिन 7 मार्च को भी जगजीवन राम अस्पताल नहीं गया, जहाँ पोस्टमार्टम के लिए फ्रैंक का शव पड़ा हुआ था। न जाने का कारण यह था कि शोक से जर्जरित उनके पिता और पत्नी का सामना करने की मुझमे हिम्मत नहीं थी।
बहरहाल 6 मार्च की सुबह प्रो रतनलाल से फ्रैंक हुजूर के निधन खबर पाने के बाद से एक पल के लिए भी मेरी आँखे नम नहीं हुईं। नम हुईं तब जब 8 मार्च को वह सुशांत गोल्फ सिटी अवस्थित अपने घर से अनंत यात्रा पर निकले। अपने दामाद राजीव रंजन के विडिओ कॉल के जरिये जब उनकी शव – यात्रा का दृश्य देखा तब दो दिनों से थमे आंसू सैलाब बनकर बह चले। वह सैलाब आज भी पूरी तरह से नहीं थमा है। ये पंक्तियाँ लिखते हुए, कई बार आंसूओं की धारा बही। मैं कुछ अत्याज्य कारण वश उनकी शेष यात्रा में भी शिरकत न कर सका। लखनऊ पहुंचा 11 मार्च को। लखनऊ पहुँचने के बाद उनके पिता; बब्बन सिंह से विडियो कॉल पर लगभग 40 मिनट बात हुई। बातों के दौरान मैंने फ्रैंक से पहली मुलाकात के बाद विकसित हुए संबंधों से लेकर बीते 4 मार्च को गुजारे गए छः घंटों के विषय में विस्तार से जानकारी दिया। मैं भले ही उनसे अनजान था पर, वह नहीं! फ्रैंक के जरिये वह बहुत पहले से मेरे विषय में वाकिफ थे. शायद इसीलिए वह बार – बार दोहराते रहे: फ्रैंक के सपनों को पूरा करना है. अगले दिन अपनी मिसेज के साथ फ्रैंक के आवास पर गया। उनकी तस्वीर पर पुष्प अर्पित कर नम आँखों से उन्हें नमन किया। करीब डेढ़ घंटे रहा,लेकिन मुक्ता जी से मिलने साहस नहीं जुटा पा रहा था पर, चलने के पहले उनके कमरे में गया। वह पत्थर बनी चुपचाप मुझे देख रही थीं। किसी तरह आधे मिनट उनके सामने रहा पर, मुंह से एक शब्द भी नहीं निकले। विदा लेते वक्त फ्रैंक के पिता फिर एक एक बार कहे, ’फ्रैंक का सपना पूरा करना है!’ मैंने उन्हें आश्वस्त किया। कोई और करे या न करे, मैं अपनी और से कोई कसर नहीं छोडूंगा।

फ्रैंक के सपनों को पूरा करने के क्रम में पहला निर्णय लिया हूँ उन पर एक स्मृति ग्रन्थ लाने का जिसका लोकार्पण उनके अगले जन्मदिन: 17 सितम्बर, 2025 को होगा। कोटि – कोटि नमन फ्रैंक। मैं आपके सपनों के सामाजिक अन्याय-मुक्त भारत निर्माण के काम में और शिद्दत के साथ लगूंगा।

लोकप्रिय

अन्य खबरें

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Skip to content