नई दिल्ली- कहते हैं कि बच्चे कच्ची मिट्टी के उस घड़े की तरह होते हैं जिसे जिस सांचे में ढाला जाए वो उसी का आकार ले लेते हैं इसलिए बच्चों को आदर्श सांचे में ढालने की जिम्मेदारी परिवार के ऊपर होती है, लेकिन क्या हो जब यही परिवार बच्चों के दिमाग में जातीयता का जहर भरने लगे और उन्हें ऊंची और नीची जाति में भेद करना सीखा दें।
ऐसा ही कुछ उत्तराखंड के स्कूल में पढ़ रहे बच्चों में देखने को मिला है। उत्तराखंड के चंपावत जिले के सुखीढांग के एक स्कूल में करीब 230 छात्र–छत्राएं पढ़ाई करते हैं। इस कॉलेज में कक्षा 6 से 8वीं तक के 66 बच्चों को मिड–डे मील के तहत खाना दिया जाता है। मिड दे मील का खाना तैयार करने की जिम्मदारी भोजनमाता की होती है जिसके लिए एक दलित महिला सुनीता देवी को स्कूल में नियुक्त किया गया।
लेकिन बीते कुछ दिनों से मिड दे मील को खाने वाले बच्चों की संख्या घट कर आधी से कम हो गई, जिसका कारण है इन मासूम बच्चों के दिमाग में भरा जातिवाद का जहर। जो किसी और ने नहीं बल्कि उनके ही अभिभावकों ने ही भरा है।
मिड डे मील बनानी वाली भोजनमाता के हाथों पहले दिन तो बच्चे खाना खा लेते हैं लेकिन अगले ही दिन, मिड डे मील खाने वाले 66 बच्चों में से 40 सवर्ण बच्चे दलित भोजनमाता के हाथ का बना हुआ खाना बच्चे खाने से मना कर देते हैं और फिर इन बच्चों के माता-पिता स्कूल आकर दलित महिला को भोजनमाता बनाए जाने को लेकर हंगामा करते हैं।
इन सवर्ण बच्चों के अभिवावकों का कहना है कि उनके बच्चे दलित महिला द्वारा बने गया खाना नहीं खायेंगे। उनका कहना था कि जब स्कूल में मिड दे मिल खाने वाले बच्चों में सवर्ण बच्चों की संख्या ज्यादा है तो प्रशासन ने एक दलित महिला को भोजनमाता के पद पर क्यों रखा?
इस मामले के तूल पकड़ने और बच्चों के अभिभावकों की कड़ी आपत्ति जताने के बाद भोजनमाता के पद पर रखी गई दलित महिला सुनीता देवी को ये कह कर हटा दिया गया कि नियुक्ति में मानदंडों का पालन नहीं किया गया था।
भोजनमाता के पद पर नियुक्त सुनीता देवी इस घटना के बाद बेहद डरी हुई हैं, उन्हें बच्चों के माता-पिता द्वारा अपमानित किया गया कि वो अब स्कूल जाना ही नहीं चाहती। उत्तराखंड में जातिगत भेदभाव की जड़े बेहद गहरी हैं। पिछले दिनों एक दलित को महज इस बात के लिए पीट कर मार डाला गया था क्योंकि उनसे सवर्णों के बीच बैठ कर खाना खाने की जुर्रत की थी। इससे पहले भी हॉकी खिलाड़ी वंदना कटारिया के परिवार को जाति सूचक गालियां देने का मामला सामने आया था।
हम बात सिर्फ उत्तराखंड की ही नहीं कर रहे बल्कि देश के बाक़ी राज्यों में भी दलितों के साथ इस तरह की सैंकड़ों घटनाएं सामने आती रहती हैं। ये घटनाएं साबित करती हैं कि भले ही समय बदल गया हो लेकिन जातिवाद का ज़हर आज भी समाज में जिंदा है।
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