“Not In My Name” जून के अंतिम सप्ताह में दिल्ली के जंतर-मंतर पर देश के बुद्धजीवियों का जमावड़ा हुआ जिसको किसी मीडिया चैनल पर प्रसारित होते आपने नहीं देखा होगा. केवल एक चैनल जिसपर पिछले दिनों सीबीआई की रेड पड़ी थी उसने अपने प्राइम टाइम में छोटी सी झलक दिखाई. बाकी चैनल GST को लेकर कांग्रेस को कोस रहे थे, केंद्रीय मंत्रियों का GST के समर्थन में इंटरव्यू दिखा रहे थे, कुछ नीतीश कुमार की तारीफ इसलिए कर रहे थे कि उन्होंने GST और राष्ट्रपति चुनाव में अपने गठबंधन के विरोध में जाकर NDA का समर्थन किया. लेकिन आज की सबसे महत्वपूर्ण विषय पर आयोजित इस प्रदर्शन पर भारतीय मीडिया का उपेक्षापूर्ण व्यवहार वास्तव में चिंता का विषय है.
हमारे देश के कुछ संगठन और पोलिटिकल पार्टी इस बात से अपनी नाराजगी जताती हैं कि ऐसे आयोजन केवल यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि ऐसा केवल विगत तीन सालों से ही हो रहा है. उनको आज के माहौल को अघोषित आपातकाल की संज्ञा पर भी एतराज़ है. बार-बार वे 84 के सिक्ख दंगों की याद दिलाकर ऐसे आंदोलन को गलत साबित करने की असफल चेष्टा करते हैं.
लेकिन वह यह भूल जाते हैं कि आपातकाल का भी विरोध हुआ था और 84 के दंगों का भी विरोध हुआ था. और उस विरोध का निशाना केवल सत्तापक्ष था. पूरी जनता ऐसे आंदोलनों के साथ थी. पूरा समाज एक तरफ और सरकार एकतरफ. लेकिन आज की स्थिति दूसरी है. सत्तापक्ष जिससे वर्तमान उन्माद को रोकने की जिम्मेवारी है वह चुप्पी साधे हुए है और उससे जुड़े संगठन समाज में द्वेष और घृणा का उन्माद पैदा करने में जुटे हैं. सत्ता से तो कभी भी लड़ा जा सकता है और इतिहास भी गवाह है कि सत्ता के खिलाफ लड़ाई देर-सबेर जीती गई है. लेकिन समाज में जो मेरा और तेरा की लड़ाई है उससे कैसे लड़ा जाए? यह मुख्य प्रश्न है.
आज समाज का एक छोटा सा वर्ग अपनी आइडियोलॉजी दूसरों पर थोपने पर आमादा है और सरकार की चुप्पी और इससे जुड़े संगठन का सहयोग इसमें खाद्य पानी देने का काम कर रहा है. मीडिया का क्या कहना. यह तो पूरी तरह से सरकार का भोंपू बन गया है. ऐसे में एक सोशल मीडिया ही एक आशा की किरण है जो अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. हम तो बुद्ध के अनुयायी हैं. और उनके अनुसार कोई चीज स्थायी नहीं होती. आज का जो माहौल है वह भी स्थायी नहीं है. इसका भी अंत होना ही है. देखना यह है कि वह शुभ घड़ी कब आती है.
लेखक पी एन राम पासवान हैं.
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