अतीत के इन ब्राह्मणों के धर्मग्रंथ फेंक दो
करो ग्रहण शिक्षा, जाति-बेड़ियों को तोड़ दो
उपेक्षा, उत्पीड़न और दीनता का अन्त करो!
-सावित्रीबाई फुले
सावित्रीबाई फुले आधुनिक भारत की प्रथम भारतीय महिला शिक्षिका थीं, इस तथ्य से हम सभी वाक़िफ़ हैं। लेकिन बहुत कम लोग हैं, जो इस तथ्य से परिचत होंगे कि वे आधुनिक भारत की पहली विद्रोही महिला कवयित्री और लेखिका थीं। उनकी कविताओं का पहला संग्रह, ‘काव्य फुले’ 1854 में प्रकाशित हुआ था। तब वे महज 23 वर्ष की थीं। इसका अर्थ है कि उन्होंने 19-20 वर्ष की उम्र से ही कविताएं लिखनी शुरू कर दी थीं। उनका दूसरा कविता संग्रह ‘बावनकशी सुबोध रत्नाकर’ नाम से 1891 में आया। सावित्रीबाई फुले अपनी रचनाओं में एक ऐसे समाज और जीवन का सपना देखती थीं, जिसमें किसी तरह का कोई अन्याय न हो और हर इंसान मानवीय गरिमा के साथ जीवन व्यतीत करे।
उन्होंने अपनी कविताओं में सबसे ज़्यादा चोट मनुवाद, जाति-वर्ण के भेदभाव और स्त्री-पुरुष के बीच की असमानता पर की है। हम आपको सुनाते हैं, माता सावित्रीबाई की ऐसी ही चर्चित कविताएं-
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‘शूद्रों का दर्द’ शीर्षक कविता में वे लिखती हैं-
दो हज़ार वर्ष से भी पुराना है
शूद्रों का दर्द
ब्राह्मणों के षड्यंत्रों के जाल में
फंसी रही उनकी ‘सेवा’
जोतिराव फुले, डॉ. आंबेडकर और पेरियार की तरह सावित्रीबाई फुले को भी इस बात का बहुत दुःख होता था कि शूद्रों-अतिशूद्रों के बेहतर जीवन के सारे सपने मर गये हैं। वे अच्छी तरह समझती थीं कि शूद्रों-अतिशूद्रों के कर्मों का सारा फल ब्राह्मण हड़प लेते हैं और बिना फल की चिंता किए खटते रहने का उपदेश देते हैं। अपनी एक कविता में उन्होंने लिखा-
शूद्रों-अतिशूद्रों की दरिद्रता के लिए
अज्ञानता व रूढ़ीवादी
रीति-रिवाज़ हैं जिम्मेदार
परम्परागत बेड़ियों में बंधे-बंधे सब
पिछड़ गये हैं सबसे देखो
जिसका यह परिणाम है कि हम
झुलस गये तेज़ाब में ग़रीबी के
नहीं रहा अहसास कोई भी
सुख-सम्मान, अधिकार का
न कोई आशा और इच्छा
आत्मसात कर दु्ःखों को
समझा सुखी ही अपने को
अपनी एक अन्य कविता में उन्होंने ब्राह्मणवाद पर करारा प्रहार किया-
पोंगा पंडित, साधु-संत सब
मांगें भीख बिना मेहनत कर
घूमें गली-गली, जग को दें उपदेश
बिना काम के चाहें फल यह
लालच दिखा स्वर्ग-पुण्य का
ऐसा नहीं है कि सावित्रीबाई फुले सिर्फ ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणों पर ही हमलावर हैं। बल्कि वह अज्ञानतावश पशुवत ज़िंदगी जीने के लिए शूद्रों-अतिशूद्रों को धिक्कारती हैं। अपनी कविता में वह लिखती हैं-
जीवन स्वीकारते पशु समान
पशुवत जीने को सुख समझें
है न यह घोर अज्ञान!
फुले, पेरियार और डॉ. आंबेडकर का भी मानना था कि शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं की दुर्दशा का कारण अज्ञानता है। सावित्रीबाई फुले भी अपनी कविताओं में मनुवादी बेडियों को तोड़ने और शिक्षित बनने का आह्वान करती हैं। लेकिन इसके साथ ही वे इस बात के लिए भी चेताती हैं कि तुम मनुवादी शिक्षा मत लेना। वो लिखती हैं-
उठो, अरे अतिशूद्र उठो तुम
मर-मिट गये मनुवादी पेशवा
ख़बरदार अब मत अपनाना
मनु-अविद्या की…
रची ग़ुलामी-परम्परा को
वे धिक्कारती हुई, समझाती हुई कहती हैं-
बिना ज्ञान के व्यर्थ सभी कुछ हो जाता
बुद्धि बिना तो इंसान भी पशु कहलाता
वे अंग्रेजों द्वारा शिक्षा का द्वार सबके लिए खोलने को एक सुनहरे अवसर के रूप में देखती हैं और कहती हैं कि इस शिक्षा को ग्रहण करके अपनी दुर्दशा का अंत करो-
अब निठल्ले मत बैठो
जाओ, शिक्षा पाओ
पीड़ित और बहिष्कृतों की
दुर्दशा का अंत करो
सीखने का मिल गया है यह तुम्हें
अवसर सुनहरा, सीख लो
और तोड़ दो ज़ंजीरें
ये जाति-व्यवस्था की सुनो
फेंक डालो शीघ्र भाई
ब्राह्मणों के धर्मग्रंथों को
सावित्रीबाई फुले अपनी कविताओं में इतिहास की ब्राह्मणवादी व्याख्या को चुनौती देती हैं। वे कहती हैं कि शूद्र ही इस देश के मूलनिवासी और वीर योद्धा थे और यहां के शासक थे। उनका समाज अत्यन्त समृद्ध समाज था। बाद में आक्रामणकारियों ने शूद्र शब्द को अपमानजनक बना दिया। वे ‘शूद्र शब्द का अर्थ’ कविता में लिखती हैं कि-
शूद्र का असली मतलब मूलनिवासी था
लेकिन सूर विजेताओं ने
बना दिया ‘शूद्र’ को गाली
ईरानी हों या हों ब्राह्मण
ब्राह्मण हों या हों अंग्रेज
सब पर अंतिम विजय प्राप्त की
शूद्रों ने ही
क्योंकि वे ही क्रांतिकारी थे
मूलनिवासी थे, समृद्ध थे
वही ‘भारतीय’ कहलाते थे
ऐसे वीर थे अपने पूर्वज
हम हैं उन लोगों के वंशज
वे साफ़ शब्दों में कहती हैं कि यह भारत देश, यहाँ के मूल निवासियों का देश है। वही इस धरती के असली हकदार हैं-
नहीं है भारत और किसी का
न ईरानी लोगों का यह
न यूरोपीय लोगों का
न तातारों, न हूणों का
इसकी नसों में रुधिर बह रहा
मूलनिवासी शूद्रों का
सावित्रीबाई फुले ने अपनी कविताओं में बहुजन समाज को जगाने का प्रयास किया। सावित्रीबाई फुले की कविताएं आधुनिक जागरण की कविताएं हैं। उन्होंने अपनी कविताओं में ब्राह्मणवाद-मनुवाद को चुनौती दी। शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं की मुक्ति का आह्वान किया है। उनकी कविताएं इस बात की प्रमाण हैं कि वे आधुनिक भारत की प्रथम विद्रोही कवयित्री हैं।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार और बहुजन विचारक हैं। हिन्दी साहित्य में पीएचडी हैं। तात्कालिक मुद्दों पर धारदार और तथ्यपरक लेखनी करते हैं। दास पब्लिकेशन से प्रकाशित महत्वपूर्ण पुस्तक सामाजिक क्रांति की योद्धाः सावित्री बाई फुले के लेखक हैं।