महाराष्ट्र के कुछ बौध्द परिवारों ने मिलकर यह बौध्द मंदिर बनाया है। यह असल में बोधगया के महाबोधि मंदिर की प्रतिकृति है। यह बहुत उत्साहवर्धक बात है, इस तरह की पहल पूरे भारत में होनी चाहिए। अब समय आ गया है कि पूरे भारत मे बौद्ध धर्म सहित अन्य प्राचीन श्रमण धर्मों का बड़े पैमाने पर प्रचार होना चाहिए। आर्यों के आगमन के पूर्व एवं आर्यों की भारत विजय के दौरान व बाद मे जन्मे या बने हुए मूल निवासी श्रमण धर्मों को फिर से उभरने का समय आ गया है।
अब जनजातीय समाज, शूद्र (ओबीसी) समाज और अन्य अस्पृश्य कहे जाने वाले लोगों को अपने मौलिक धर्मों और परंपराओं की तरफ लौटना चाहिए। याद रखिए कि सरकारें और और नीतियां शून्य में नहीं जन्मतीं। हर सरकार और उसकी किसानों, मजदूरों या महिलाओं से जुड़ी हर नीति एक विशेष धर्म-दार्शनिक परम्परा से आती है। इसीलिए नई सरकारें, नई नीतियां चाहिए तो नए धर्म और दर्शन का विकल्प भी निर्मित करना होगा। असल सवाल यह है कि आपकी मौजूदा सत्ता या सरकार किस धर्म दर्शन से संचालित है?
क्या उसमे इंसान के श्रम की इज्जत करने का कोई संस्कार है? क्या उसमे महिलाओं के शरीर और उनके मन की स्वतंत्रता का सम्मान करने की कोई परंपरा है? क्या आपकी सरकार के नुमाइंदों की धार्मिक शिक्षाओं में मनुष्य को मनुष्य समझने की परंपरा है? अगर है तो आप उनसे उम्मीद कर सकते हैं और अगर नहीं है तो आपको सरकारों और सरकार की नीतियों का विकल्प निर्मित करने के लिए सबसे पहले समाज मे धर्म दर्शन का विकल्प भी खड़ा करना होगा।
कल्पना कीजिए कि पूरे भारत में एक ही कंपनी की मोबाईल व इंटरनेट सेवा है तब क्या होगा? तब निश्चित ही वह मोबाईल कंपनी एकाधिकार या मोनोपॉली चलाएगी। तब वह अपनी शर्तों पर अपने दूसरे धंधों-व्यापारों को फैलाने के लिए सारे प्रपंच करेगी। फिर धीरे धीरे वह मोबाइल और इंटरनेट सेवा के जरिए समाज मे और गहरे पैठ बनाएगी।
यह हम सब देख चुके हैं। खेल (क्रिकेट) और तेल (खाद्य तेल और पेट्रोल) के रास्ते अब इन्होंने रेल को हथियाने का प्लान बना लिया है। इसके बाद अब आपके गाँव खेत खलिहान तक इनकी नीतियाँ पहुँच रही हैं। इन्हीं नीतियों के खिलाफ किसान दिल्ली की सीमा पर जमे हुए हैं। एक कंपनी की मोनोपॉली की तरह ही एक विचारधारा और एक धर्म की मोनोपॉली भी खतरनाक होती है। भारत जैसे बहुलतावादी देश में तो यह और भी जरूरी है कि अनेकों धर्मों की उपस्थिति सांकेतिक रूप से ही नहीं बल्कि व्यवहार में भी बनी रहे। इसीलिए कम से कम भारत के SC/ST और OBC को अपने प्राचीन श्रमण धर्मों की घोषणा और पालन शुरू कर देना चाहिए।
इस तरह नए धर्म-दार्शनिक विचारों के प्रसार के साथ मनुष्य को मनुष्य समझने वाली परंपराओं का प्रचार करना होगा। जो परंपरा श्रम करने वाले मनुष्यों या महिलाओं को अछूत या नीच घोषित करती है उसके मुकाबले में महिलाओं की सृजन शक्ति और किसानों मजदूरों के श्रम का सम्मान करने वाली परंपराओं को लाना होगा। प्राचीन भारत की सभी श्रमण परम्पराएं आर्यों के धर्म की तुलना मे अधिक समतावादी और मानवीय रही हैं। भारतीय श्रमण परंपराओं में ईश्वर या सनातन आत्मा जैसा कोई अंधविश्वास नहीं होता है।
अब समय आ गया है कि शुरुआत करते हुए कम से कम बौद्ध धर्म को बड़े पैमाने पर भारत में फैलाया जाए। एक मोबाइल कंपनी की दादागिरी को संतुलित करने के लिए अन्य कंपनियों का होना जरूरी है। ठीक इसी तरह एक विशेष तरह की विश्वदृष्टि और विचारधारा या धर्म दर्शन के समानांतर अन्य धर्म और दर्शनों की सख्त आवश्यकता है। यही मूल रूप से भारत का वास्तविक चरित्र रहा है जिसे बीते कुछ समय मे बहुत नुकसान पहुंचा है। अब भारत के बहुजनों को वैकल्पिक राजनीति के समानांतर वैकल्पिक धर्मों की खोज व प्रचार को एक महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट की तरह हाथ मे लेना चाहिए। हालांकि यह पहल आरंभ हो चुकी है, इसमे और ऊर्जा और गति की जरूरत है।
संजय श्रमण गंभीर लेखक, विचारक और स्कॉलर हैं। वह IDS, University of Sussex U.K. से डेवलपमेंट स्टडी में एम.ए कर चुके हैं। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस (TISS) मुंबई से पीएच.डी हैं।