देश भर में दलितों पर हो रहे हमलों के विरोध में तमाम राजनीतिक पार्टियां संसद से बाहर दलित हितैषी होने का दावा करती है. सारे राजनेता दलितों के सबसे बड़े हमदर्द बनने की कोशिश करते हैं. लेकिन असलियत हैरान करने वाली है. संसद के बाहर मीडिया के सामने चिल्लाने वाले यही नेता उस दौरान संसद में मौजूद रहना भी जरूरी नहीं समझते, जब दलितों के मुद्दे पर चर्चा हो रही होती है.
उना में दलितों पर हुए अत्याचार के बाद देश भर में बवाल मचा हुआ था. संसद के भीतर भी यह मुद्दा जोर-शोर से उठा था. संसद के भीतर इस पर बहस करने की मांग की गई. आखिरकार लोकसभा में चर्चा के लिए 11 अगस्त (गुरुवार) का दिन तय किया गया. सबकी नजरें लोकसभा में होने वाली चर्चा पर थी. लेकिन लंच के बाद जब इस मुद्दे पर बहस के लिए लोकसभा की कार्रवाई शुरू हुई तो लोकसभा की आधे से ज्यादा सीटें खाली पड़ी थी. संख्या इतनी कम थी कि उससे चर्चा के लिए जरूरी कोरम भी पूरा नहीं हो पा रहा था. नियम के मुताबिक किसी भी मुद्दे पर चर्चा के वक्त सदन में 15 प्रतिशत सांसदों का मौजूद होना जरूरी होता है. ये हाल सिर्फ सत्ता पक्ष का नहीं था. दलितों के मुद्दे पर संसद के बाहर मोदी को ललकारने वाली कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी जैसे बड़े विपक्षी नेता भी सदन से गायब थे.
चर्चा की शुरूआत में मौजूद कुल 70 सांसदों में से विपक्ष के महज 38 सांसद ही सदन में थे, जो अपनी हाजिरी लगवाने आए थे. जब केरल के अलपुर से माकपा के सांसद परयमपरनबिल कुट्टप्पन बीजू ने लोकसभा में दलितों पर बढ़ रहे अत्याचारों के बारे में बोलना शुरू किया तो सदन में ऐसा लग ही नहीं रहा था कि किसी बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दे पर चर्चा हो रही है. सड़क पर दलित-दलित करने वाले सांसद जाने कहां थे. क्या इसका मतलब ये है कि दलितों पर हो रही क्रूरता की किसी को नहीं पड़ी? आजादी की 70वीं वर्षगांठ पर अगर दलितों का दर्द लोकतंत्र के ‘मंदिर’ में बैठे सांसदों को परेशान तक नहीं करता तो इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी? क्या दलित सिर्फ वोट बैंक हैं?
चुनाव के समय हर कोई दलितों की झोपड़ी में खाना खाता है, अपने आपको पिछड़ों का हितैषी बताता है लेकिन अब क्या हुआ? गृहमंत्री ने तो जवाब में कह दिया कि हमारी सरकार में दलितों पर अत्याचार के कम मामले दर्ज हुए हैं और विपक्ष ने मान भी लिया. ये तो शुक्र है कि बाबासाहेब ने विधानसभा और संसद में दलित लोगों के लिए सीटें आरक्षित करा दी थी वरना दलितों के प्रतिनिधित्व की कोई गारंटी नहीं होती. तेलुगु देशम पार्टी के रविंद्र बाबू पांडूला ने सही कहा कि क्यों दलितों की लड़ाई सिर्फ दलितों को ही लड़नी पड़ रही है? उदित राज जैसे बीजेपी के दलित सांसद भी सरकारी बाबू की तरह बात कर रहे हैं. मोदी जी कहते हैं कि दलित को गोली मारनी है तो पहले मुझे गोली मारो लेकिन करते कुछ नहीं. उनकी पार्टी के सांसद-विधायक कथित गौ-रक्षकों की पैरवी करते हैं और दलितों पर हुए अमानवीय अत्याचारों को जायज ठहराते हैं. अंबेडकर की विरासत को हथियाने के लिए बड़े-बड़े कार्यक्रम करने वाली राजनीतिक पार्टियां दलितों के मुद्दों पर इतनी असंवेदनशील कैसे हो सकती हैं? हकीकत तो यही है कि दलितों की किसी को पड़ी ही नहीं है वरना संसद की कुर्सियां यूं खाली नहीं पड़ी होती.
– लेखक पत्रकार हैं, इलेक्ट्रानिक मीडिया से जुड़े हैं।
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