लगभग सौ वर्ष पहले ट्रावनकोर और कोचीन (वर्तमान केरल राज्य) ऐसा क्षेत्र था जहां निम्न जाति वालों के लिये मंदिर, विद्यालय और सार्वजनिक स्थलों में प्रवेश वर्जित था. कुंओं का इस्तेमाल वे कर नहीं सकते थे. इस जाति के मर्द और औरतों के लिये कमर से ऊपर कपड़े पहनना तक बड़ा गुनाह था. गहने पहनने का तो सवाल ही नहीं था. इन्हें अछूत तो समझा जाता ही था, उनकी परछाइयों से भी लोग दूर रहते थे.
तथाकथित बड़े लोगों से कितनी दूर खड़े होना है वह दूरी भी जातियों के आधार पर निर्धारित थी. यह 5 फुट से 30 फुट तक था. कुछ जातियों के लोगों को तो देख भर लेने से छूत लग जाती थी. उन्हें चलते समय दूर से ही अपने आने की सूचना देनी पड़ती थी, वे लोग जोर – जोर से चिल्लाते जाते थे –“ मेरे मालिकों, मै इधर ही आ रहा हूं, कृपया अपनी नजरें घुमा लें.” ये लोग अपने बच्चों के सुन्दर और सार्थक नाम भी नहीं रख सकते थे. नाम ऐसे होते थे जिनसे दासता और हीनता का बोध हो.
यहां क्लिक कर देखिए नारायण गुरू से संबंधित वीडियो
ऐसे किसी भी सामाजिक नियम का उल्लंघन करने पर मौत की सजा निर्धारित थी. भले ही उल्लंघन गलती से हो गया हो. इन सारे अत्याचारों के बीच एक शख्स ने ऐसा चमत्कार कर दिखाया था, जिसने पूरे समाज को ही बदल दिया. इस स्थिति के खिलाफ संघर्ष करने वाले और दलितों को इस गुलामी से बाहर निकालने वाले महापुरुष का नाम था नरायणा गुरू. उनका जन्म इसी केरल में 26 अगस्त 1854 को हुआ, जिन्होंने अपने अटल निश्चय से समाज की सूरत बदल दी और मनुवादी व्यवस्था की धज्जियां उड़ा दी.
नरायणा गुरु का जन्म दक्षिण (केरल) के एक साधारण परिवार में हुआ था. समाज की दशा को देखकर उन्हें बहुत दुख हुआ. केरल में नैयर नदीं के किनारे एक जगह है अरुविप्पुरम. तब यहां घना जंगल था. नरायणा गुरु यहीं एकांतवास में आकर रहने लगे. उसी दौरान गुरुजी को एक मंदिर बनाने का विचार आया. नारायण गुरु एक ऐसा मंदिर बनाना चाहते थे जिसमें किसी किस्म का कोई भेदभाव न हो. जाति, धर्म, मर्द और औरत का कोई बंधन न हो. अरुविप्पुरम में उन्होंने एक मंदिर बनाकर एक इतिहास रचा. अरुविप्पुरम का मंदिर इस देश का शायद पहला मंदिर है, जहां बिना किसी जातिभेद के कोई भी पूजा कर सकता था. नरायणा गुरु के इस क्रांतिकारी कदम से उस समय जाति के बंधनों में जकड़े समाज में हंगामा खड़ा हो गया था. वहां के ब्राह्माणों ने इसे महापाप करार दिया था.
दरअसल वह एक ऐसे धर्म की खोज में थे जहां समाज का हर आदमी एक-दूसरे से जुड़ाव महसूस कर सके. वह एक ऐसे ‘बुद्ध’ की खोज में थे जो सभी मनुष्यों को समान दृष्टि से देखे.
लोगों ने शिकायत की कि उनके बच्चों को स्कूलों में नहीं जाने दिया जाता, उन्होंने कहा कि अपने बच्चों के लिये स्कूल स्वयं बना लो और इतनी अच्छी तरह चलाओ कि वे भी तुम्हारे स्कूलों में अपने बच्चों को भेजने को इच्छुक हो जाएं. लोगों ने कहा कि उन्हें मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया जाता, उन्होंने कहा कि न तो जबरदस्ती प्रवेश करने की जरूरत है और न प्रवेश की अनुमति के लिये गिड़गिड़ाने की आवश्यकता है.
गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उनसे मिलने के बाद कहा था- ‘मैंने लगभग पूरी दुनिया का भ्रमण किया है और मुझे अनेक संतों और महर्षियों से मिलने का सौभाग्य मिला है. लेकिन मैं खुलकर स्वीकार करता हूं कि मुझे आजतक ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं मिला जिसकी आध्यात्मिक उपलब्धियां स्वामी श्री नरायणा गुरु से अधिक हों, बल्कि बराबर भी हो.’
नारायण गुरु के कार्यों की सफलता से प्रभावित महात्मा गांधी उनसे मिलकर बातचीत करने को बहुत इच्छुक हुए और उन्होंने पूछा कि क्या गुरुजी अंग्रेजी जानते हैं, गुरुजी ने पलटकर पूछा कि क्या गांधीजी संस्कृत में बातचीत करेंगे?
श्री नारायण गुरु ने जो रास्ता दिखाया उसपर चलकर केरल की पूरी सामाजिक संरचना ही बदल गयी. केरल की तरक्की के रूप में नतीजा भी सामने है.
विगत 17 सालों से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय अशोक दास अंबेडकरवादी पत्रकारिता का प्रमुख चेहरा हैं। उन्होंने साल 2012 में ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ की नींव रखी। वह दलित दस्तक के फाउंडर और संपादक हैं, जो कि मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यू-ट्यूब के जरिये वंचितों की आवाज को मजबूती देती है। उनके काम को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई में सराहा जा चुका है। वंचित समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं, जिनमें DW (जर्मनी) सहित The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspapers (जापान), The Week (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत), फारवर्ड प्रेस (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
अशोक दास दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में साल 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता (Investigative Journalism) के सबसे बड़े संगठन Global Investigative Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग में आयोजित कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है। वह साल 2023 में कनाडा में आयोजित इंटरनेशनल कांफ्रेंस में भी विशेष आमंत्रित अतिथि के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दुबई के अंबेडकरवादी संगठन भी उन्हें दुबई में आमंत्रित कर चुके हैं। 14 अक्टूबर 2023 को अमेरिका के वाशिंगटन डीसी के पास मैरीलैंड में बाबासाहेब की आदमकद प्रतिमा का अनावरण अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर नाम के संगठन द्वारा किया गया, इस आयोजन में भारत से एकमात्र अशोक दास को ही इसकी कवरेज के लिए आमंत्रित किया गया था। इस तरह अशोक, दलित दस्तक के काम को दुनिया भर में ले जाने में कामयाब रहे हैं। ‘आउटलुक’ मैगजीन अशोक दास का नाम वंचितों के लिए काम करने वाले भारत के 50 दलितों की सूची में शामिल कर चुकी है।
उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
अशोक दास एक लेखक भी हैं। उन्होंने 50 बहुजन नायक सहित उन्होंने तीन पुस्तकें लिखी है और दो पुस्तकों का संपादक किया है। ‘दास पब्लिकेशन’ नाम से वह प्रकाशन संस्थान भी चलाते हैं।
साल 2006 में भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC), दिल्ली से पत्रकारिता में डिप्लोमा लेने के बाद और दलित दस्तक की स्थापना से पहले अशोक दास लोकमत, अमर-उजाला, देशोन्नति और भड़ास4मीडिया जैसे प्रिंट और डिजिटल संस्थानों में आठ सालों तक काम कर चुके हैं। इस दौरान वह भारत की राजनीति, राजनीतिक दल और भारतीय संसद की रिपोर्टिंग कर चुके हैं। अशोक दास का उद्देश वंचित समाज के लिए एक दैनिक समाचार पत्र और 24 घंटे का एक न्यूज चैनल स्थापित करने का है।