संविधान लागू होने के 65 वर्ष बाद पिछले दिनों संसद में पहली बार संविधान दिवस पर बहस देखने को मिला. इसके माध्यम से राष्ट्रनिर्माण में बोधिसत्व भारतरत्न बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर के योगदान पर चर्चा हुई. यह अपने आप मे एक ऐतिहासिक क्षण था जब इतने वर्षों बाद बाबासाहेब की पैनी दृष्टि एवं बौद्धिक विरासत के माध्यम से संविधान में निहित राष्ट्र निर्माण के मूल तत्वों पर विस्तार से चर्चा हुई. इस चर्चा से सदन के माध्यम से पूरे राष्ट्र में संविधान के प्रति नई चेतना का प्रसार होने की दिशा में बेहतर काम होने की संभावना बढ़ गई है. इस चर्चा से बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर की अपेक्षानुसार संवैधानिक नैतिकता का भी पुनः प्रसार एवं प्रचार किया जा सकता है. बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर के संविधान निर्माण में योगदान को हम कई भूमिकाओं के माध्यम से समझ सकते हैं. पहला योगदान संविधान सभा के सामान्य परन्तु सजग एवं सकारात्मक आलोचक की भूमिका में समझा जा सकता है. दूसरा योगदान संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में. संविधान निर्माण में बाबासाहेब के योगदान की गणना निम्न आधार पर की जा सकती है.
1) समय, भौतिक एवं बौद्धिक ज्ञान का योगदान
2) विभिन्न विचारधाराओं के प्रतिनिधियों की आलोचना को दूर कर उन्हें संतुष्ट करने में योगदान
3) भिन्न मतों एवं भ्रान्तियों को दूर करने में योगदान
4) संविधान कि वर्तमान समय में प्रासंगिकता का उत्तर
5) संविधान के माध्यम से राष्ट्र एवं प्रजातन्त्र के निर्माण हेतु कुछ मूल तत्वों का चिन्हांकन
सर्वप्रथम हम अगर बाबासाहेब अम्बेडकर के संविधान सभा के सामान्य सदस्य के रूप में योगदान की चर्चा करें तो हमें उनके जीवन के इस काल के विषय में तमाम जानकारियां मिलती है. बाबासाहेब पहली बार बंगाल (सामान्य) सीट से चुनकर संविधान सभा में पहुंचे थे. सभी जानते हैं कि संविधान सभा पहली बार 9 दिसंबर, 1946 को मिली और उसकी कार्यवाही 11 बजे आरंभ हुई. 11 दिसंबर को राजेन्द्र प्रसाद को नियमित चेयरमैन चुना गया और 13 दिसंबर 1946 को पं. जवाहरलाल नेहरू ने संविधान के निर्माण हेतु उद्देश्य एवं लक्ष्यों का मसौदा सदन में बहस के लिए रखा. इस मसौदे पर पहली बार बाबासाहेब अम्बेडकर ने सदन में 17 नवंबर 1946 को अपना वक्तव्य दिया.
यहां यह बताना समीचीन होगा कि बाबासाहेब का मानना था कि सदन में वकत्वय के लिए तैयारी अतिआवश्यक है. उन्होंने सभापति से यह कहा कि आपने अचानक मेरा नाम लेकर असमंजस में डाल दिया है क्योंकि मैं इस मसौदे पर बोलने के लिए अभी तैयार नहीं हूं और उस पर भी आपने मुझे केवल दस मिनट का समय दिया है जिससे मेरी कठिनाई और बढ़ गई है. इसके बाद भी बाबासाहेब ने संविधान सभा के अनुशासित सिपाही के तौर पर अपनी बौद्धिक क्षमता एवं अकादमिक साहस का परिचय देते हुए पंडित जवाहरलाल नेहरू के रखे गये मसौदे पर आलोचनात्मक वक्तव्य रखा. यह एक निर्भिक वक्तव्य था. बाबासाहेब ने इस मसौदे को 450 वर्ष पुराना बताया और कहा कि मैं पंडित जवाहरलाल नेहरू जो कि प्रतिष्ठित समाजवादी हैं, से उम्मीद करता हूं कि वे इससे और भी आगे जाकर कुछ बातों को रखेंगे.
बाबासाहेब ने कहा, यद्यपि यह मसौदा कुछ अधिकारों की बात तो करता है परंतु किसी प्रकार के उपचार (रेमिडिज) की बात नहीं करता. यहां तक की किसी व्यक्ति की जान, स्वतंत्रता एवं संपत्ति विधि की उचित प्रक्रिया से नहीं ली जा सकती, का भी जिक्र इस मसौदे में नहीं है. ऐसी स्थिति में क्या सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक न्याय संभव है? इसलिए मैं इस मसौदे से निराश हूं. यद्यपि मैं मसौदा प्रेषित करने वाले व्यक्ति की सत्यनिष्ठा से भलीभांति परिचित हूं.
बाबासाहेब अंबेडकर द्वारा स्वतंत्र भारत के संविधान निर्माण हेतु संविधान सभा के सामान्य सदस्य के रूप में दूसरा योगदान कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग के नेताओं के बीच उपजे विवाद के निपटान हेतु सुझाव के रूप में दिखाई देता है. संविधान सभा के आरम्भ में उन्होंने बहस के दौरान मुस्लिम लीग के नेताओं के उपस्थित नहीं रहने को गंभीरता से उठाया. उन्होंने उनकी अनुपस्थिति पर खेद जताते हुए आग्रह किया कि संविधान निर्माण की इस बहस में उनका शामिल होना अतिआवश्यक है, नहीं तो संविधान पर पूरी बहस अर्थहीन होगी. बाबासाहेब ने मुस्लिम लीग के संविधान सभा में नहीं शामिल होने की वजह कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग के बीच के विवाद को बताया. परंतु उन्होंने संविधान सभा में अपील की कि संविधान का निर्माण इतना महत्वपूर्ण मुद्दा है कि कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग को इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाना चाहिए. उन्होंने जोर देकर कहा कि ”जब राष्ट्रों के भविष्य का निर्णय हो रहा हो तो व्यक्तियों, नेताओं एवं दलों की प्रतिष्ठा का कोई अर्थ नहीं होता.” इसलिये दोनों ही दलों के नेताओं को यह विवाद सुलझा कर संविधान सभा में शामिल होना चाहिए.
इसी संदर्भ में बाबासाहेब ने कांग्रेस के नेताओं को समझाया कि हिन्दु-मुसलमानों के मध्य विवाद का निवारण हिंसा से नहीं हो सकता. यह एकदम गलत सोच है. बाबासाहेब ने कांग्रेस के नेताओं को यह बताया कि मुस्लिम लीग को उनकी इच्छा के विरुद्ध पारित संविधान में हिंसा एवं जबरदस्ती नहीं शामिल कराया जा सकता. अतः अगर मुस्लिम लीग को संविधान सभा में लाना है तो उन्हें सह्रदय से ही लाना होगा क्योंकि बाबासाहेब का मानना था कि “सत्ता एवं वैद्य सत्ता शांति, प्यार से ही खरीदे जा सकते हैं.” इसलिए मुस्लिम लीग को प्यार से ही हम संविधान सभा में ला सकते हैं. बाबासाहेब ने इस परिपेक्ष्य में यह विश्वास जताया कि यद्यपि हम भिन्न हैं फिर भी अगर हम कुछ दिन साथ चलें तो हम एकता के सूत्र में अवश्य बंध कर एक सशक्त राष्ट्र बना सकते हैं. और जल्द ही मुस्लिम लीग के नेताओं को यह समझ में आ जायेगा कि एक अखण्ड भारत उनके लिये भी श्रेयकर है.
वैसे तो डॉ. अम्बेडकर का आधुनिक भारत के निर्माण में कई योगदान है, परंतु उनमें से संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में भारत के प्रजातांत्रिक संविधान का निर्माण सबसे मौलिक एवं महत्वपूर्ण है. प्रश्न उठता है कि हम बाबासाहेब को संविधान निर्माता किन तथ्यों के आधार पर कह सकते हैं. सर्वप्रथम इन तथ्यों का प्रमाण हमें 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा के समक्ष दिये गये बाबासाहेब के उदबोधन से मिलता हैं. इस दिन बाबासाहेब ने संविधान की फाइनल प्रति तात्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को सौंपी थी. संविधान सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने अनेक तथ्यों का उद्घाटन किया, जिससे यह प्रमाणित होता है कि वास्तविकता में बाबासाहेब अम्बेडकर ही भारतीय संविधान के पिता हैं. इन तथ्यों को वैसे संविधान सभा के अनेक सदस्यों ने भी सराहा. इस लेख में हम उसी का आधार बनाकर यह प्रमाणित करना चाहते हैं कि बाबासाहेब संविधान निर्माता हैं और संविधान निर्माण के माध्यम से उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान दिया.
संविधान सभा की अंतिम बैठक में 26 नवंबर, 1949 को बोलते हुए बाबासाहेब ने बताया कि संविधान सभा पहली बार कब मिली और उस सभा ने कुल कितने दिनों तक काम किया जिसके वह खुद गवाह थे. उन्होंने बताया कि संविधान सभा पहली बार 9 दिसंबर 1946 को मिली और उसने लगातार दो वर्ष, 11 महीने एवं सत्रह दिनों तक काम किया. इस सभा ने ही संविधान प्रारूप समिति का गठन 2 अगस्त, 1947 को किया, जिसने डॉ. अम्बेडकर को अपना अध्यक्ष चुना. बाबासाहेब ने इस समिति द्वारा किये गये काम का भी उल्लेख किया. उन्होंने बताया कि इस समिति ने लगातार एक सौ इकतालीस (141) दिनों तक काम किया और संविधान को अंतिम रूप प्रदान किया जिसमें 395 अनुच्छेद एवं 8 सूचियां थी. यह शायद विश्व का सबसे विस्तृत संविधान है. इस क्रम में बाबासाहेब ने एक अन्य तथ्य का खुलासा किया कि संविधान का मसौदा तैयार करते समय 7 हजार 635 संशोधन प्राप्त किये गये. इनमें से 5 हजार 162 संशोधनों को दरकिनार करते हुए दो हजार चार सौ तिहतर (2473) संशोधनों को विधायिका में बहस के बाद संविधान में समायोजित किया गया. अब आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं कि संविधान को बनाने में बाबासाहेब ने कितना मानसिक, बौद्धिक एवं शारीरिक योगदान दिया.
बाबासाहेब द्वारा संविधान निर्माण हेतु दिये गये बौद्धिक योगदान का प्रमाण हमें उनके द्वारा विभिन्न विचारधाराओं के प्रतिनिधियों द्वारा संविधान की संरचना के संबंध में उठाये गये प्रश्नों के उत्तरों से भी मिलता है. कम्युनिस्ट पार्टी के प्रतिनिधियों ने संविधान में संसदीय प्रणाली को लेकर प्रश्न उठाया. वे चाहते थे कि संविधान में भविष्य में ‘सर्वहारा की सत्ता’ के आधार पर सरकार बनाने के प्रावधान को निहित किया जाय. दूसरी ओर समाजवादियों का आरोप था कि संपत्ति का बिना मुआवजा दिये राष्ट्रीयकरण का प्रावधान संविधान में नहीं है. साथ ही साथ वे मूलभूत अधिकारों को असीमित चाहते थे. बाबासाहेब ने मशहूर संविधानविद एम. एल जैकर को उद्धृत करते हुए कहा कि किसी भी देश का संविधान उस वर्तमान पीढ़ी की अपेक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता है. अतः जो भी प्रावधान भारतीय संविधान में समायोजित किये गये हैं वे सभी उस पीढ़ी की अकांक्षाओं के अनुरूप हैं. जो लोग इससे सहमत नहीं हैं उनको बस 2/3 (दो तिहाई) बहुमत की सरकार बनाकर इसे बदल देने का कार्य करना रहेगा. परन्तु अगर वे अपने बलबूते पर 2/3 बहुमत नहीं ला सकते तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि वर्तमान जनता उनके विचारों से सहमत नहीं है. और जो लोग 2/3 लोगों का प्रतिनिधित्व नहीं करते वो कैसे पूरे राष्ट्र के लिए बोल सकते हैं.
इसके बाद बाबासाहेब ने उन आलोचकों को उत्तर दिया जिनका मानना था कि संविधान का अत्याधिक केंद्रीयकरण हो गया है. अर्थात संविधान ने केंद्र को ज्यादा शक्ति दे दी है. इस पर बाबासाहेब ने संविधान सभा को बताया कि संघीय प्रणाली का सार है कि विधायिका एवं कार्यपालिका की सत्ता का केंद्र एवं राज्य के मध्य बंटवारा. हमारे संविधान के आधार पर केंद्र एवं राज्य दोनों बराबर हैं. इसका तात्पर्य यह हुआ कि राज्य अपनी विधायिका एवं कार्यपालिका के अधिकार के लिए किसी भी तरह केंद्र पर आश्रित नहीं है. अतः उन्होंने संविधान सभा को समझाया कि ऐसा संविधान केंद्रीकृत कैसे हो सकता है. हां, ये बात और है कि असामान्य समय में केंद्र के पास कुछ अधिक अधिकारों का प्रावधान संविधान में अवश्य किया गया है जो तर्कसंगत है.
संविधान एवं संवैधानिक नैतिकता का प्रश्न
संविधान सभा में बाबासाहेब अम्बेडकर ने भारतीय समाज में संवैधानिक नैतिकता के अभाव का प्रश्न भी उठाया, और संवैधानिक नैतिकता के अभाव में बाबासाहेब ने अभिशासन के सूक्ष्म से सूक्ष्म मानदण्डों के विवरण को संविधान में शामिल करने का निर्णय लिया. संवैधानिक मूल्यों से बाबासाहेब का तात्पर्य था, सत्ताधारी वर्ग द्वारा संवैधानिक मूल्यों का अनुपालन सुनिश्चित करना. उनका मानना था कि संवैधानिक नैतिकता के प्रसार हेतु सत्ताधारी वर्ग के रोजाना के आचरण में संवैधानिक मूल्य परिलक्षित होने चाहिए. जब वे लोगों से मिलते हैं, जब वे भाषण देते हैं या फिर जब वे विपक्ष में बैठते हैं तब उनके आचरण में संविधान के प्रति आदर झलकना चाहिए. परंतु उन्होंने कहा, वर्तमान समय में ऐसा लगता नहीं है. इसलिए अभिशासन के मानदण्डों को भविष्य की कार्यपालिका के भरोसे पर नहीं छोड़ा जा सकता. आने वाला अभिशासन कैसा होगा यह कहा नहीं जा सकता. वे संविधान में निहित मूल्यों कि उपेक्षा करेंगे या उनको उसकी भावना के अनुरूप लागू करेंगे अभी कुछ भी नहीं कहा जा सकता. अतः अगर संविधान मोटा हो भी गया तो क्या हुआ; हमें भविष्य में संवैधानिक नैतिकता की स्थापना के लिए यह कदम उठाना ही होगा.
क्या संविधान समय की कसौटी पर खड़ा उतरेगा?
बाबासाहेब ने उन सदस्यों की आशंका का निदान किया जो यह प्रश्न उठा रहे थे कि क्या संविधान भविष्य के लिए सही रह पाएगा?. इसमें समय की मार झेलने की ताकत है या नहीं? क्या यह समय की कसौटी पर खड़ा उतर पाएगा, आदि-आदि. शायद बाबासाहेब वर्तमान के प्रश्नों का भी उत्तर दे रहे थे. जैसे आज भी अनेक संगठन एवं राजनेता संविधान पर कटाक्ष करते हुए इसकी समीक्षा की मांग करते हैं. बाबासाहेब ने संविधान सभा को आश्वस्त किया कि किसी भी संविधान की व्यवहारिकता उस संविधान की प्रकृति पर निर्भर नहीं करती. संविधान केवल राज्य की संस्थाएं जैसे- विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका को ही स्थापित करता है. पर राज्य की संस्थाओं की व्यवहारिकता उन व्यक्तियों एवं राजनैतिक दलों पर निर्भर करेगी जिसे वे निर्मित करेंगे. कौन जानता है कि भारत के लोग एवं राजनैतिक दल किस तरह का व्यवहार करेंगे. क्या वे संवैधानिक रास्ता अपनाएंगे? या फिर क्रांतिकारी रास्ता अपनाएंगे? इसलिए बिना जनता एवं राजनैतिक दलों की प्रकृति का संज्ञान लिये संविधान का मूल्यांकन व्यर्थ है.
संविधान एवं प्रजातंत्र की चुनौतीः समता एवं बंधुत्व की स्थापना
बाबासाहेब संवैधानिक मूल्यों के आधार पर भारतीय राष्ट्र के निर्माण में भविष्य की चुनौतियों को हमारे लिए रेखांकित कर गये. उनका मानना था कि भविष्य में समानता एवं भाईचारे की स्थापना, प्रसार एवं विकास सबसे बड़ी चुनौती होगी. संविधान की पूर्ण प्रति को राष्ट्रपति को सौपते हुए उन्होंने बताया कि “26 जनवरी 1950 को हम विरोधाभाषी जिन्दगी में प्रवेश करने जा रहे हैं. हमारे राजनैतिक जीवन में समानता होगी परंतु आर्थिक जीवन में असमानता.” राजनीति में हमने एक व्यक्ति-एक वोट, एक वोट एक मूल्य के सिद्धान्त को स्वीकृत किया है, परंतु अपने सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में अपनी सामाजिक संरचना की बनावट की वजह से हम एक व्यक्ति-एक मूल्य के सिद्धान्त को नकारते रहेंगे. अगर हम बहुत दिनों तक इसको नकारते रहें तो हमारा राजनैतिक प्रजातंत्र खतरे में पड़ सकता है. अतः सशक्त राष्ट्र की स्थापना के लिए बाबासाहेब अम्बेडकर राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक तीनों ही समानताओं की स्थापना चाहते थे.
वे समानता के साथ-साथ एक सशक्त राष्ट्र के लिए भाईचारे के सिद्धान्त की स्थापना भी अनिवार्य मानते थे. सवाल यह है कि आखिर बंधुत्व से उनका क्या तात्पर्य था? बंधुत्व के सिद्धान्त से उनका तात्पर्य था, एक समान भ्रातृत्व, एकता एवं सामाजिक जीवन में एकता एवं ऐक्यभाव. बाबासाहेब ने आगाह किया कि बंधुत्व को समाज में स्थापित करना अत्यंत कठिन कार्य है. उन्होंने अमेरिका का उदाहरण दिया कि यद्यपि वहां जातियां नहीं है, फिर भी वहां बंधुत्व और भाईचारा स्थापित करना बहुत कठित था. परंतु हमारे यहां जातियां भी हैं. जातियां अलगाव एवं वैमनस्य फैलाती हैं. ऐसे में भाईचारा कैसे स्थापित हो सकता है? लेकिन भाईचारे के अभाव में समता एवं स्वतंत्रता का कोई मूल्य नहीं है. भाईचारा तभी संभव है जब हम राष्ट्र बन जाएं. अतः बाबासाहेब का मानना था कि एक सशक्त राष्ट्र के लिए समता एवं भाईचारे दोनों की महती आवश्यकता है.
बाबासाहेब के प्रयास की सराहना
इस प्रकार बाबासाहेब अम्बेडकर ने अपने बौद्धिक एवं ज्ञान के कौशल के बल पर संविधान सभा में विभिन्न विचारधाराओं के प्रतिनिधियों को संतुष्ट ही नहीं किया अपितु उस समस्या का समाधान भी बताया जिसको लेकर वे चिन्तित थे. बाबासाहेब के ज्ञान, परिश्रम एवं भावनात्मक आदि योगदान की पराकाष्ठा का बयान महान संविधानविद एवं संविधान प्रारूप समिति के सदस्य टी.टी. कृष्णमाचारी ने इन शब्दों में किया जिसका उल्लेख यहां समिचिन लगता है. टी.टी. कृष्णमाचारी ने तत्कालीन राष्ट्रपति को बताया, “आपके द्वारा नामित (संविधान प्रारूप समितियों) सात सदस्यों में एक सदस्य ने सदन से अपना त्यागपत्र दे दिया. एक की मृत्यु हो गयी और उसकी जगह कोई दूसरा नियुक्त नहीं हुआ. एक अमेरिका में थे और वो अपना योगदान नहीं दे पाएं. दो व्यक्ति दिल्ली से दूर थे और स्वास्थ्य के कारण समिति में शामिल नहीं हो पाएं. इसलिए सात में से 5 व्यक्ति ने प्रारूप समिति में अपना योगदान दिया ही नहीं. ऐसे में संविधान प्रारूप समिति का पूरा काम डॉ. अम्बेकर के कंधों पर पड़ गया जिसे उन्होंने भलि भांति निभाया.”
इसी कड़ी में फ्रैन्क एन्थोनी ने बाबासाहेब के योगदान को कुछ इस तरह सराहा. “इस विशालकाय एवं क्लिस्ट दस्तावेज के उत्पादन में अन्तर्निहित कार्य के आयतन एवं एकाग्रता की तीव्रता की वास्तविकता का कोई अनुमान भी लगा पाएगा, ऐसा मुझे विश्वास नहीं होता.” वहीं, संविधान सभा के एक अन्य सदस्य जसवार रॉय कपूर ने कहा कि मैं कुछ वर्षों तक डॉ. अम्बेडकर से नाराज था क्योंकि वे गांधीजी को उनके आमरण अनशन पर मिलने दो दिन देर से आयें. परन्तु संविधान को पूरा कर उन्होंने एक सच्चे देश भक्त की भूमिका निभायी है. उन्होंने संविधान सभा में संविधान की राह में उठे हर गतिरोध को अपने सुझावों से दूर किया. आज मैं उनमें सच्चा देशभक्त देखता हूं.
अन्त में तत्कालीन संविधान सभा के अध्यक्ष राजेन्द्र प्रसाद ने कहा कि प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. अम्बेडकर का मैं विशेष रूप से धन्यवाद ज्ञापित करना चाहूंगा जिन्होंने अपनी खराब सेहत के बावजूद संविधान निर्माण का कार्य किया. उन्हें प्रारूप समिति में रखने एवं उसका अध्यक्ष बनाने से ज्यादा उचित निर्णय हो ही नहीं सकता था.”
धर्मग्रंथ और संविधान में अंतर
संसद में संविधान पर बहस के दौरान बार बार अनेक सांसदों ने यहां तक की प्रधानमंत्री, गृहमंत्री एवं सरकार के अन्य वरिष्ठ सांसदों ने संविधान की तुलना धर्मग्रंथ से कर डाली. किसी ने उसे बाइबल कहा तो किसी ने कुरान तो किसी ने उसे गीता कह डाला. यहां यह ध्यान देना होगा कि धर्मग्रंथ आस्था से बनते हैं जिनमें कोई भी परिवर्तन संभव ही नहीं है. परंतु संविधान तार्किक एवं वैज्ञानिक ज्ञान के आधार पर समायोजित अनेक समाजों के अनुभवों का निचोड़ है. जिसमें समयानुकुल जनता की अकांक्षाओं के वशीभूत परिवर्तन किए जा सकते हैं. इसीलिए बाबासाहेब अंबेडकर का मानना था कि किसी भी देश का संविधान उस समय की जनता की चित्तवृति एवं अकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता है.
प्रो. (डॉ.) विवेक कुमार प्रख्यात समाजशास्त्री हैं। वर्तमान में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ सोशल साइंस (CSSS) विभाग के चेयरमैन हैं। विश्वविख्यात कोलंबिया युनिवर्सिटी में विजिटिंग प्रोफेसर रहे हैं। ‘दलित दस्तक’ के फाउंडर मेंबर हैं।