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कन्हैया की संभावनाओं को लेकर बहस तेज है. नामचीन हस्तियों ने बेगूसराय में कन्हैया के पक्ष में चुनाव प्रचार किया. चुनाव बाद भी बहस जारी है. अब अपूर्वानंद जैसे बड़े नाम खुलकर इनके पक्ष में मुहिम चला रहे हैं. वहीं, कुछ लोग कन्हैया को शक की नजर से देखते हैं. यह शक क्यों? राजनीति में युवा नेतृत्व को आगे आना ही चाहिए. फिर साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद के विरोध में झंडा बुलंद करने वाला एक तबका कन्हैया का विरोध क्यों कर रहा है? वह भी तब जब कन्हैया देश स्तर पर राजनीतिक दिशा दशा में बड़े बदलाव की तरफ उम्मीद जगाता है. यह सही है कि कन्हैया मीडिया चैनलों और सोशल मीडिया पर नरेंद्र मोदी के साम्प्रदायिक मंसूबों को बहुत मजबूती से चुनौती देते हैं.
कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास साम्प्रदायिक मुद्दों पर बेहतरीन रहा है. इससे असहमत नहीं हुआ जा सकता है. पर सवाल उठता है कि क्या इस सिर्फ तर्क से कन्हैया का समर्थन किया जाना चाहिए? इस पर आगे कुछ कहा जाए, उससे पहले कुछ अपना अनुभव और उनके एक हालिया फेसबुक पोस्ट पर चर्चा करना चाहता हूं. मेरे कुछ अनुभव रहे हैं जिससे लगता है कि कन्हैया के भीतर का सच आने में समय नहीं लगेगा. साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद के साथ साथ एक और पहलू है जिस पर नरेंद्र मोदी की सरकार ने खुलकर हमला किया है. वह है सामाजिक न्याय और आरक्षण की पूरी अवधारणा. इन दोनों ही मसलों पर कन्हैया की पार्टी सीपीआई में गजब का दोहरापन है. सीपीआई में करीब डेढ़ दशक सक्रिय रहने के दौरान दर्जनों ऐसे नेताओं से सामना हुआ है जो जाति के सवाल पर भले सार्वजानिक रूप से अपने को वर्णविहीन समाज के सबसे बड़े समर्थक के तौर पर पेश करते रहे हों, लेकिन निजी व्यवहार में वो बहुत बड़े जातिवादी रहे हैं. वो सामाजिक न्याय, आरक्षण, दलित उत्पीड़न, यूनिवर्सिटी में पिछड़े-दलितों की भागीदारी बढ़ाने जैसे सवालों पर बहुत ही चालाकी से किनारा कर लेते रहे हैं. सामाजिक न्याय को बहुत ही आसानी से परिवारवाद की राजनीति बोलकर ख़ारिज कर देते हैं.
चाहे दिल्ली का अजय भवन हो या पटना का जनशक्ति भवन, दोनों जगहों पर एक खास समाज से आने वाले नेता ही क्रांति कर सकते हैं यह समझ बहुत साफ साफ है. “जर जमीन बंट कर रहेगा अपन अपन छोड़ कर” पता नहीं यह कहावत किसने और कैसे गढ़ा होगा, लेकिन यह सच के काफी करीब है. सीपीआई में ज्यादातर पिछड़े और दलित नेताओं को नेतृत्व क्षमता होने के बावजूद हाशिये पर रखा गया या उनको पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया गया.
अब बात फायरब्रांड और वामपंथ के नए दुलारे कन्हैया के फेसबुक पोस्ट की. इन्होंने अपने फेसबुक वॉल पर रोशन सुचान नाम के किसी व्यक्ति का पोस्ट डाला है. जिसमें वो बहुत खुलकर नरेंद्र मोदी के दोबारा प्रधानमंत्री बनने और उसके बिहार की राजनीति में फायदे गिना रहे हैं. जाहिर है कन्हैया सुचान जी की राय से सहमत होते होंगे, तभी तो उन्होंने इसे अपने पोस्ट पर डाला है. ऐसे में यह मानना कतई अनुचित नहीं होगा कि ये पोस्ट कन्हैया की सहमति से ही लिखा गया होगा, ताकि आप अपने को दूसरे के माध्यम से एंडोर्स किया जा सके. पोस्ट के लेखक की दिली इच्छा है कि तेजस्वी जेल जाएं और कन्हैया विपक्ष के सर्वमान्य नेता हो जाएं. इसके लिए अगर बीजेपी की सरकार भी आ जाए तो कोई दिक्कत नहीं है. इसका मतलब जो लोग यह समझते थे कि ये अपने भाषणों में नरेंद्र मोदी को निशाने पर लेते हैं और साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद पर बहुत खुलकर अपनी बात रखते हैं. ये सब छलावा था. दरअसल, ये बहुत सोच समझकर साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद के सवाल को उठाते हैं ताकि सामाजिक न्याय के मुद्दों को काउंटर किया जा सके. बीजेपी का कमंडल से मंडल को कुंद करने का पुराना इतिहास रहा है.
फेसबुक पोस्ट में एक नए राजनीतिक समीकरण (मुस्लिम-भूमिहार-दलित) का सुझाव पेश किया जा रहा हैं. इस परिकल्पना में अति पिछड़ा और पिछड़ा कहीं नहीं है. पिछले 5 साल में नरेंद्र मोदी सरकार के फैसलों का सबसे ज्यादा नुकसान अगर किसी का हुआ है तो वो दलितों के साथ साथ पिछड़े समाज का हुआ है. हर रैली में अपने को पिछड़ा-अति पिछड़ा बताने वाले नरेंद्र मोदी सामाजिक न्याय के मुद्दों को लगातार सांप्रदायिक राष्ट्रवाद से काउंटर कर रहे हैं. दरअसल, कन्हैया अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षा को पूरा करने के लिए सामाजिक न्याय और आरक्षण के मुद्दों पर सबसे मुखर और उभरते नेता तेजस्वी को जेल भेजने की मंशा रखने वाले पोस्ट को साझा करने से नहीं चुकते हैं. जाहिर है उद्देश्य बहुत साफ है. कन्हैया सांप्रदायिक शक्तियों से लड़ने के नाम पर दरअसल सामाजिक न्याय की धारा को कुंद करना चाहते हैं. इसी महीन बारीकी को समझना पड़ेगा.
- लेखक राहुल कुमार पत्रकारिता से जुड़े हैं।
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