बाबासाहेब अम्बेडकर आज इस दुनिया में नहीं हैं। लेकिन उनको मानने वालों की तादात लगातार बढ़ रही है। लोग लगातार बाबासाहेब के जीवन से जुड़े तमाम महत्वपूर्ण पहलुओं के बारे में जानना चाहते हैं। लेकिन आज भी बाबासाहेब के जीवन से जुड़े तमाम पहलू ऐसे हैं जो अछूते हैं। इस देश की सरकारों ने डॉ. अम्बेडकर के बारे में न तो खुद जानना चाहा और न ही लोगों को बताने की कोशिश की। लेकिन बहुजन समाज अब बाबासाहेब के जीवन से जुड़े तमाम पहलुओं की पड़ताल करने लगा है। इसी में से एक पहलू बाबासाहेब की मृत्यु से जुड़ा हुआ है।
बाबासाहेब की मौत से जुड़ी तमाम बातों पर से अब भी पर्दा हटना बाकी है। इसमें एक बड़ा सवाल यह भी है कि जब डॉ. अम्बेडकर की मौत दिल्ली में उनके 26 अलीपुर रोड स्थित आवास में हुई, तब भी उनका अंतिम संस्कार दिल्ली में न कर के उनके शरीर को दिल्ली से दूर मुंबई भेजा गया। आखिर क्या वजह रही कि तब की सरकार ने ऐसा किया।
तब जवाहरलाल नेहरू भारत के प्रधानमंत्री थे। और जो हुआ, उन्हीं के आदेश से हुआ। जब बाबासाहेब का परिनिर्वाण हो गया तो इसकी सूचना बहुत कम लोगों को दी गई। नेहरू उनमें से एक थे। कहा जाता है कि सूचना मिलते ही प्रधानमंत्री नेहरू 26 अलीपुर रोड पहुंचे थे, और वहां तब तक जमे रहें जब तक डॉ. अम्बेडकर के पार्थिव शरीर को विशेष विमान से मुंबई नहीं भेज दिया गया। जहां दादर में बाबासाहेब का बौद्ध रिति से अंतिम संस्कार हुआ।
सवाल उठता है कि आखिर प्रधानमंत्री नेहरू और तब की भारत सरकार देश के पहले कानून मंत्री और संविधान निर्माता डॉ. अम्बेडकर के अंतिम संस्कार के लिए राजधानी दिल्ली में जमीन देने को तैयार क्यों नहीं हुई?…. असल में प्रधानमंत्री नेहरू डर गए थे। उनके डर की वजह बाबासाहेब का लगातार बढ़ता कारवां था, जिससे लाखों लोग जुड़ चुके थे।
दिल्ली में गांधीजी की भी समाधी थी। गांधीजी के बाद दिवंगत होने वाले बड़े नेताओं में बाबासाहेब प्रमुख थे। तब तक गांधीजी और बाबासाहेब एक-दूसरे के विरोधी के तौर पर देखे जाने लगे थे। क्योंकि गांधी जी वर्ण व्यवस्था के समर्थक से जबकि डॉ. अम्बेडकर इसका विध्वंस चाहते थे। नेहरू यह नहीं चाहते थे कि भारतीय राजनीति में कोई भी गांधी जी के सामानांतर या आस-पास भी खड़ा हो पाए…, क्योंकि यह कहीं न कहीं कांग्रेस पार्टी के लिए भी चुनौती होती।
दिल्ली में गांधीजी के अलावा जिन प्रमुख नेताओं की समाधियां हैं उनमें खुद देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, जगजीवन राम और राजीव गांधी की समाधि प्रमुख है। कांग्रेस की सरकार में इनकी पुण्यतिथि पर सरकारी आयोजन होते रहे हैं, जिसमें पार्टी के नेता पहुंचते रहे हैं। लेकिन इसके उलट बाबासाहेब के परिनिर्वाण दिवस के दिन दादर स्थित चैत्यभूमि पर लाखों की संख्या में देश भर से लोग पहुंच कर उन्हें श्रद्धांजली अर्पित करते हैं। यह न किसी सरकार द्वारा प्रायोजित होता है और न ही किसी राजनैतिक दल द्वारा। बहुजन समाज में जैसे-जैसे जागृति बढ़ रही है, डॉ. अम्बेडकर को मानने वाले लोगों की तादात भी बढ़ रही है।
नेहरू को यह पता था कि दिनों दिन डॉ. अम्बेडकर का कारवां बढ़ता जाएगा। दिल्ली सत्ता का केंद्र है और यहां लाखों लोगों की जुटान जाहिर तौर पर यहां की राजनैतिक सत्ता को चुनौती देती है। ऐसे में अगर बाबासाहेब के परिनिर्वाण के बाद उनका अंतिम संस्कार दिल्ली में हुआ होता तो चैत्यभूमि पर जाने वाले जनसैलाब का रुख दिल्ली की ओर होता। सोचिए तब 6 दिसंबर को दिल्ली का मंजर कैसा होता…..
विगत 17 सालों से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय अशोक दास अंबेडकरवादी पत्रकारिता का प्रमुख चेहरा हैं। उन्होंने साल 2012 में ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ की नींव रखी। वह दलित दस्तक के फाउंडर और संपादक हैं, जो कि मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यू-ट्यूब के जरिये वंचितों की आवाज को मजबूती देती है। उनके काम को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई में सराहा जा चुका है। वंचित समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं, जिनमें DW (जर्मनी) सहित The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspapers (जापान), The Week (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत), फारवर्ड प्रेस (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
अशोक दास दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में साल 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता (Investigative Journalism) के सबसे बड़े संगठन Global Investigative Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग में आयोजित कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है। वह साल 2023 में कनाडा में आयोजित इंटरनेशनल कांफ्रेंस में भी विशेष आमंत्रित अतिथि के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दुबई के अंबेडकरवादी संगठन भी उन्हें दुबई में आमंत्रित कर चुके हैं। 14 अक्टूबर 2023 को अमेरिका के वाशिंगटन डीसी के पास मैरीलैंड में बाबासाहेब की आदमकद प्रतिमा का अनावरण अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर नाम के संगठन द्वारा किया गया, इस आयोजन में भारत से एकमात्र अशोक दास को ही इसकी कवरेज के लिए आमंत्रित किया गया था। इस तरह अशोक, दलित दस्तक के काम को दुनिया भर में ले जाने में कामयाब रहे हैं। ‘आउटलुक’ मैगजीन अशोक दास का नाम वंचितों के लिए काम करने वाले भारत के 50 दलितों की सूची में शामिल कर चुकी है।
उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
अशोक दास एक लेखक भी हैं। उन्होंने 50 बहुजन नायक सहित उन्होंने तीन पुस्तकें लिखी है और दो पुस्तकों का संपादक किया है। ‘दास पब्लिकेशन’ नाम से वह प्रकाशन संस्थान भी चलाते हैं।
साल 2006 में भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC), दिल्ली से पत्रकारिता में डिप्लोमा लेने के बाद और दलित दस्तक की स्थापना से पहले अशोक दास लोकमत, अमर-उजाला, देशोन्नति और भड़ास4मीडिया जैसे प्रिंट और डिजिटल संस्थानों में आठ सालों तक काम कर चुके हैं। इस दौरान वह भारत की राजनीति, राजनीतिक दल और भारतीय संसद की रिपोर्टिंग कर चुके हैं। अशोक दास का उद्देश वंचित समाज के लिए एक दैनिक समाचार पत्र और 24 घंटे का एक न्यूज चैनल स्थापित करने का है।