बीते मार्च महीने से लेकर सितंबर महीने तक देश में जो सबसे बड़ा मुद्दा है, वह अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण एक्ट यानि आम बोलचाल की भाषा में एससी-एसटी एट्रोसिटी एक्ट है. पहले सुप्रीम कोर्ट ने इस एक्ट में संशोधन करने का फरमान जारी कर दिया. इसके खिलाफ दो अप्रैल को एससी-एसटी समाज के लोग देश भर में सड़कों पर उतर गए. वंचित तबके के तेवर देख डरी सरकार ने संसद में अध्यादेश लाकर सुप्रीम कोर्ट द्वारा किया गया संसोधन वापस ले लिया. फिर क्या था, सवर्ण तबका भड़क गया और सुप्रीम कोर्ट के आदेश को फिर से बहाल करने की मांग को लेकर 6 सितंबर को प्रदर्शन कर डाला. इस पूरे धरना-प्रदर्शन और विरोध के केंद्र में जाति थी.
जाति… जिसके बारे में कहा जाता है कि वो जाति नहीं… जाति समाज की सच्चाई है. आप चाहे जितना इससे बचना चाहें, यह घूम फिर कर आपके सामने आ ही जाती है. खास कर वंचित तबके के सामने तो जाति का सवाल जन्म से लेकर मरण तक बना रहता है. गांवों में जाति के सवाल ज्यादा आते थे और माना जाता था कि महानगर जातिवाद से अछूते हैं. अगर जातिवाद है भी तो ढके-छिपे रूप में, ताकि किसी को भनक न लगे. लेकिन जातिवाद ने अब महानगरों को भी अपनी चपेट में लेना शुरू कर दिया है.
बीते कुछ सालों में जातीय संघर्ष समाज के भीतर से निकल कर सड़क पर आ गया है. अब लोग जाति को अपने घर और संबंधित समाज के भीतर नहीं छोड़ रहे हैं, बल्कि वो हर वक्त उससे चिपके हुए हैं. घर के बाहर.. सड़क पर भी. सड़क पर सरपट भागती इन गाड़ियां को देखिए… आपको खुद समझ में आ जाएगा. ये गाड़ियां सिर्फ इंसानों को नहीं ढो रही, बल्कि ये उस जातीय अहं का वाहक बन गई हैं, जिसे बार-बार दिखाने और बताने में कुछ खास तबके के लोग अपनी बहादुरी समझते हैं.
आप इन गाड़ियों को गौर से देखिए. इन पर लिखी पहचान को देखिए. ब्राह्मण, राजपूत, जाट, गुज्जर जैसे जातीय पहचान लेकर चलने वाली गाड़ियां पहले इक्का-दुक्का दिखती थीं लेकिन यह चलन अब आम हो गया है.
हालांकि उच्च जातीय पहचान लिए इन लोगों के बीच आपको वो जातियां भी दिख जाएंगी जो कल तक अपनी जाति बताने से हिचकती थी. ऑटो पर लिखा चौरसिया और सायकिल पर लिखा जाटव जी, कुछ ऐसे ही उदाहरण हैं.
हालांकि गाड़ियों से पहचान को जोड़ने का सिलसिला कोई नया नहीं है. तमाम गाड़ियों में आपको ईश्वर, अल्लाह, जीसस, गुरुनानक और बुद्ध आराम से देखने को मिल जाएंगे. लेकिन हाल तक ये गाड़ियों के भीतर ड्राइविंग सीट के सामने लगते रहे थे. हर कोई अपनी आस्था के हिसाब से तस्वीरों और नाम का चुनाव करता था. हालांकि यह अलग विषय है कि बावजूद इसके हर रोज सड़कों पर होने वाले एक्सिडेंट में कोई कमी नहीं आई है.
खैर, यह आस्था का मुद्दा हो सकता है. लेकिन यही ईश्वर जब गाड़ियों से बाहर निकल आते हैं, क्या तब भी इसे महज आस्था माना जाए? शायद नहीं. वजह चाहे जो हो, ये दिखाता है कि राजनीति ने समाज को कितना बांट दिया है. समाज के भीतर बढ़ता जातिवाद एक बेहतर समाज के निर्माण के लिए ठीक नहीं है.
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अशोक दास (अशोक कुमार) दलित-आदिवासी समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले देश के चर्चित पत्रकार हैं। वह ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ के संस्थापक और संपादक हैं। उनकी पत्रकारिता को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई जैसे देशों में सराहा जा चुका है। वह इन देशों की यात्रा भी कर चुके हैं। अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं ने, जिनमें DW (जर्मनी), The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspaper (जापान), द वीक मैगजीन (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं। अशोक, दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में फरवरी, 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता के दुनिया के सबसे बड़े संगठन Global Investigation Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग मे आयोजिक कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है।