जनसंख्या की दृष्टि से विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र की राजधानी दिल्ली के आसमानों में मानव जीवन के लिए हानिकारक कणों की धुंध जमी हुई थी. पर्यावरण विशेषज्ञ और सरकारी प्राधिकरण के अधिकारी जनता को घर से न निकलने की सलाह दे रहे थे. बच्चे घर से बाहर न निकलें इसलिए स्कूल बन्द कर दिये गये थे, लोगों को मास्क पहनकर बाहर निकलने की हिदायत दी जा रही थी, इसी बीच लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री के 08 नवम्बर 2016 रात्रि 08 बजे के एक ऐलान ने न केवल दिल्ली की जनता को बल्कि पूरे देश की जनता को अचानक घर से बाहर निकलने पर मजबूर कर दिया.
यह ऐलान था 500 और 1000 रुपये मूल्य के नोटों के चलन पर पूर्णतः रोक लगाना. यह ऐलान काला धन, भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के उद्देश्य से किया गया. जैसा कि प्रधानमंत्री व भाजपा सरकार की तरफ से यह बताया गया है कि कालाधन व भ्रष्टाचार ही भारत की आम जनता की बदहाली का मुख्य कारण है. प्रधानमंत्री ने तो 2014 के लोकसभा चुनाव में यहां तक कहा है कि विदेशों में हमारे देश का इतना कालाधान जमा है कि यदि उसे वापस लाकर भारत की 125 करोड़ जनता में बराबर-बराबर बांटा जाय तो प्रत्येक व्यक्ति के हिस्से में 15-15 लाख रूपये आयेंगे. इसे वापस लाने का उन्होंने वादा भी किया है. हालांकि इस पर उन्होंने अभी तक कोई कदम नहीं उठाया है. यह कदम तो केवल देश के अन्दर नोटों के रूप में रखे गये कालेधन को बाहर निकालने के लिए उठाया गया है जो विशेषज्ञों के अनुसार कुल कालाधन का केवल 8-10 प्रतिशत है. 90 प्रतिशत कालाधन तो देश के अन्दर भी सोना, हीरा, रियल एस्टेट आदि के रूप में छुपाया गया है. अर्थात् प्रधानमंत्री द्वारा उठाया गया यह कदम कालेधन के 10 प्रतिशत हिस्से को बाहर लाने के लिए उठाया गया है जो अपने ही देश में 500 व 1000 रूपये के नोटों के रूप में लोगों ने अपने घरों में छुपाकर रखा हुआ है.
देश में रखे गये 90 प्रतिशत और विदेशों में रखे गये कुल कालेधन से इस नोटबंदी की कार्यवाही का कुछ भी लेना-देना नहीं है. यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब कुल काले धन के एक छोटे से हिस्से, जो देश के अन्दर ही है, को निकालने के लिए की गयी कार्यवाही से बाजार बन्द हो गये, आम जनजीवन ठप सा हो गया, बुआई के समय में किसान बीज, खाद व डीजल नहीं खरीद पा रहे हैं. मरीज का इलाज मुश्किल से हो पा रहा है, लोगों के खर्च को नियंत्रित कर दिया गया है, दिहाड़ी मजदूरों को काम नहीं मिल रहा है. जिनके पास रूपये हैं, वे बैंको की लाइन में खड़े हैं, शादी विवाह स्थगित हो गये हैं, तो कुल कालेधन के लिए यदि यही तरीका अपनाया गया तो जनता को आपातकाल जैसी स्थिति झेलनी पड़ सकती है, जिसका संकेत भी प्रधानमंत्री 13 नवम्बर को गोवा में दे चुके हैं.
देश में कुल कितना कालाधन है, देश के बाहर कितना कालाधन है, कालाधन कितना आयेगा, भ्रष्टाचार रूकेगा या नहीं, इन मुद्दों पर बहस हो सकती है लेकिन जिस तरीके व तेवर के साथ प्रधानमंत्री ने नोटबंदी का निर्णय लिया उससे यह स्पष्ट है कि लोकतांत्रिक ढंग से चुने गये प्रधानमंत्री ने लोकतंत्र का गला घोंट दिया. लोकतांत्रिक मूल्यों की ऐसी-तैसी कर दी. लोकतंत्र की सर्वाधिक लोकप्रिय परिभाषा है ‘जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा शासन’. इस परिभाषा में स्पष्ट किया गया है कि ऐसी शासन व्यवस्था जिसके केन्द्र में ‘जनता’ रहती है या जनता के हित के लिए चलाये जाने वाली शासन व्यवस्था. इस परिभाषा की कसौटी पर यदि नोट बंदी के निर्णय को कसा जाय तो यह निर्णय पूर्णतः गैर लोकतांत्रिक सिद्ध हेागा, न केवल तौर तरीके में बल्कि जनहित की दृष्टि से भी. जिस आम जनता, मजदूर और किसान के जीवन को बेहतर बनाने के नाम पर यह निर्णय लिया गया है, उन्हीं के लिए सबसे अहितकर साबित हुआ. सभी को पता है कि किसानों के लिये यह समय खरीफ की फसल की कटाई एवं रबी की फसल की बुआई का है. खरीफ की फसल बेचकर जो रूपये किसान अपने घरों में रखे हुए हैं, नोटबंदी के कारण उनके अपने रूपये बेकार हो गये हैं. यदि प्रधानमंत्री के शब्दो में कहे तो ‘अवैध मुद्रा’ हो गये हैं. उससे वे रबी की फसल के लिए खाद, बीज व डीजल नहीं खरीद सकते हैं. यदि बैंको से 15 दिन के अन्दर नई नोट नहीं मिली तो वे रबी की फसल की बुआई समय से नहीं कर पायेंगे जिसका नकारात्मक प्रभाव अन्न उत्पादन पर पड़ेगा. और जिस तरह से बैंकों में भीड़ जुट रही है और लोग खाली हाथ लौट कर आ रहे हैं ऐसे में किसानों का एक-एक दिन भारी बीत रहा है.
सवाल यह है कि क्या प्रधानमंत्री ने यह सोचा कि खेती की दृष्टि से महत्वपूर्ण इस समय में नोटबंदी के निर्णय से किसान और खेती तबाह हो सकती है? निश्चित रूप से नहीं सोचा. यदि सोचते तो वे देश की इन्हीं आम जनता से 50 दिन और नहीं मांगते. मोदी जी जिन मजदूरों के हितों के नाम पर अपनी कार्यवाही को उचित ठहराने में लगे हुए हैं उनकी हालत तो और बद्तर हो गयी है. भारत में मजदूरी करने वाले का 80-85 प्रतिशत हिस्सा असंगठित क्षेत्र में है जिनमें से ज्यादातर दिहाड़ी मजदूर हैं, जो निर्माण क्षेत्र में गिट्टी-बालू का काम, बाजारों में सामान उतरवाने-चढ़वाने व सामान ढुलाई का काम करते हैं. ये रोज कमाते और खाते हैं. नोट बंदी की घोषणा के बाद से इनको काम मिलना बन्द हो गया है. दुकानों में काम करने वाले मजदूरों को भी काम नहीं मिल रहा है. ये लोग व इनका परिवार सीधे भुखमरी की चपेट में आ गये है. समाज के निचले पायदान पर स्थित जनता का एक बड़ा हिस्सा रेहड़ी व पटरी व्यवसायी के रूप में स्वरोजगार में लगा हुआ है. इनका ग्राहक निम्नवर्ग तथा निम्न मध्यम वर्ग हैं. निम्न मध्यम वर्ग दिन भर बैंक की कतार में हैं तथा निम्न वर्ग भुखमरी के कगार पर, इसलिए पटरी व रेहड़ी व्यवसायी भी नोटबंदी के कारण मक्खी मार रहे हैं. स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था में निचले पायदान पर स्थित किसान, मजदूर की हालत नोटबंदी के पश्चात् बद से बदतर हो गयी है. प्रधानमंत्री की तरफ से इनको प्रत्यक्ष सहयोग का कोई आश्वासन भी नहीं मिला है. निश्चित रूप से नोट बंदी का निर्णय लेते समय प्रधानमंत्री ने देश की 90 प्रतिशत आबादी के समक्ष आने वाली समस्याओं पर थोड़ा सा भी विचार नहीं किया.
एक सप्ताह के अन्दर लगभग 30 से अधिक लोग रूपये निकालने के लिए लाइन में तबियत खराब होने और नोटबंदी के कारण अन्य नुकसान के कारण अपनी जान गंवा चुके हैं. न जाने कितने लोग समय से पैसा न मिलने के कारण अस्पताल नहीं जा सके या अस्पताल में भी दवा न मिलने के कारण दम तोड़ दिये. क्या इस निर्णय से जीवन का मौलिक अधिकार प्रभावित नहीं हुआ है. उत्तर होगा बिल्कुल हुआ है. एक व्यक्ति मोदी जी व उनके भक्तों के लिए केवल एक नम्बर हो सकता है, एक वोट हो सकता है लेकिन अपने परिवार के लिए वह पूरी दुनिया है. क्या मोदी जी ऐसे मृतकों के परिजनों के लिए किसी भी तरह की कोई सहायता देंगे?
80 प्रतिशत आबादी के सामने प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित हुए आपातकालीन व अमानवीय परिस्थितियों पर दृष्टिपात करने के पश्चात् कालेधन से संबंधित कुछ तथ्यों का उल्लेख आवश्यक प्रतीत हो रहा है. अनुमानों के अनुसार देश में कुल कालाधन 30 लाख कराड़ रूपये मूल्य का है जिसमें से 8-10 प्रतिशत नकदी के रूप में है. शेष सोना, हीरे व रियल एस्टेट के रूप में है. अर्थात् मात्र 3 लाख करोड़ रूपये को बैंक में जमा कराने के नाम पर देश में आर्थिक अराजकता पैदा कर दी गयी. यह रकम कितनी कम है इसका अंदाज सरकार के कुछ और फैसले से इसकी तुलना कर के लगाया जा सकता है. मोदी सरकार ने पूँजीपतियों पर लगने वाले उत्पाद शुल्क को 30 प्रतिशत से घटाकर 25 प्रतिशत कर दिया है. सरकार के इस निर्णय से प्रत्येक वित्तीय वर्ष में उद्योगपतियों को 2 लाख करोड़ रूपये की छूट प्राप्त होगी. पिछले दो वित्तीय वर्षो में भारतीय उद्योगपतियों को 04 लाख करोड़ रूपये टैक्स में छूट दी गयी जो देश में नकदी के रूप में जमा कालेधन से एक लाख करोड़ रूपये अधिक है. मामला यहीं तक नहीं है सरकारी बैंको का उद्योगपतियों के ऊपर 6 लाख करोड़ रूपये से अधिक कर्ज बकाया है जिसे भारतीय देशप्रेमी उद्योगपति अपनी फैक्ट्री चलाने के लिए थे और अब लौटा नहीं रहे हैं. इस कर्ज को अर्थशास्त्र की भाषा में एन0पी0ए0 कहते हैं. देश प्रेमी उद्योगपति सरकारी बैंकों से लिए कर्ज का ब्याज कौन कहे मूलधन भी लौटाने को तैयार नहीं हैं, जबकि कर्ज देने वाले बैंक लगातार घाटे में चल रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट की फटकार लगाने के बावजूद भी मोदी जी की सरकार इन कर्जखोर उद्योगपतियों का नाम सार्वजनिक करने को तैयार नहीं है. कहने का अर्थ यह है कि जितनी रकम (कालेधन) 3 लाख करोड़ रूपये के लिए सरकार ने पूरे देश को वित्तीय अराजकता में ढकेल दिया, उससे दूनी रकम 6 लाख करोड़ रूपये पूंजीपतियों ने अपने पास दबाकर रखा है तथा उससे सवा गुनी रकम 4 लाख करोड़ रूपये मोदी सरकार पिछले दो वर्षों में पूंजीपतियों को टैक्स छूट के रूप में दे चुकी है. क्या यह 10 लाख करोड़ रूपया देश का नहीं है? क्या यह रकम देश के विकास में नहीं लगनी चाहिए? इस दिशा में तो सरकार कोई कदम नहीं उठा रही है न ही उठाने का कोई इरादा ही व्यक्त कर रही है.
आइये अब कालेधन की परिभाषा क्या है तथा यह धन किसके पास है इस पर थोड़ा विचार करें. सामान्यतया ऐसे धन को कालाधन कहा जाता है जिस पर सरकार को टैक्स नहीं मिलता है. इस प्रकार का धन सभी सरकारी कर्मचारियों अर्थात् चपरासी, बाबू, बड़े बाबू से लेकर सचिवों तक के पास है जो रिश्वत लेते हैं. छोटे से लेकर बड़े व्यापारियों के पास है जो अपनी वास्तविक आमदनी सरकार को नहीं बताते तथा कर की चोरी करते हैं. गांव, कस्बे व शहरों के दुकानदारों के पास है जो टैक्स रिटर्न नहीं भरते हैं. छोटे-बड़े ठेकेदारों के पास है तथा राजनेताओं के पास है. इनकी आबादी देश की कुल आबादी की 10 प्रतिशत है. इन्हीं के पास 3 लाख करोड़ रूपये का कालाधन नकदी के रूप में देश के अन्दर छुपाकर रखा गया है. यहां यह उल्लेख करना उचित होगा कि 10 प्रतिशत आबादी के पास देश की 76 प्रतिशत सम्पत्ति है. इस 10 प्रतिशत में देश के छोटे से लेकर बड़े उद्योगपति शामिल हैं. अकेले अंबानी के पास 1.56 लाख करोड़ की सम्पत्ति है. वे यदि एक करोड़ प्रतिदिन खर्च करें तो उनकी सम्पत्ति 427 वर्षों में खर्च होगी. दिलचस्प यह कि अंबानी के पास जो सम्पत्ति है उसमें एक प्रतिशत भी कालाधन नहीं है. विजय माल्या के पास जो सम्पत्ति है, उसमें एक रूपया भी कालाधन नहीं है, जबकि रिलायन्स नामक कंपनी ने 1996 तक सरकार को एक रूपये भी टैक्स नहीं दिया था.
आइये अब मोदी जी के ऐतिहासिक और साहसिक फैसलों की पड़ताल करते हैं. ऊपर के 20 प्रतिशत आबादी जिसमें उच्च वर्ग, उच्च मध्यम वर्ग आते हैं, के पास देश की 85-90 प्रतिशत सम्पत्ति है. देश की 80 प्रतिशत आबादी को पिछले पचीस वर्षों में अर्थव्यवस्था के हाशिये पर ढकेल दिया गया है. नई आर्थिक नीति ने इनसे सब कुछ छीन लिया है. इनके पास न शिक्षा है, न स्वास्थ्य है न ही कोई सपना है. ऊपर की 20 प्रतिशत आबादी जिसमें उद्योगपति तथा राजनेता सहित सरकार चलाने वाली मशीनरी के लोग शामिल हैं, ने मिलकर पिछले 25 वर्षों में 80 प्रतिशत देशवासियों का निर्मम शोषण किया. अब इन 80 प्रतिशत आबादी के पास कुछ भी बचा नहीं है, जिसके शोषण से इस पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्था को चलाया जा सके. इस व्यवस्था को चलाने के लिए अब आवश्यक हो गया है कि नौकरशाहों, राजनेताओं, ठेकेदारों, व्यापारियों, ट्रांसपोर्टरों आदि के पास जो सम्पत्ति है, उसका मालिकाना हक उद्योगपतियों के हाथ में सौंपा जाय अर्थात् देश की अर्थव्यवस्था का निगमीकरण किया जाय. लेकिन यह कार्य इतना आसान नहीं था जितना आसान 80 प्रतिशत जनता की सम्पत्ति को पूंजीपतियों को सौंपना था. इसलिए इसकी लम्बे समय से तैयारी की जा रही थी. राजनेताओं, नौकरशाहों, ठेकेदारों, व्यापारियों, ट्रांसपोर्टरों आदि को सुनियोजित ढंग से भ्रष्टाचारी व 80 प्रतिशत जनता का असली दुश्मन घोषित किया गया. चूंकि इस तबके में दलितों, पिछड़ों, मुसलमानों के बीच के कुछ नेता, नौकरशाह व व्यापारी भी शामिल हैं जिनकी सम्पत्ति इन पच्चीस वर्षों में बढ़ी है, इसलिए आसानी से सवर्ण हिन्दुओं के अन्दर जातिगत व धार्मिक घृणा की भावना को भड़काया गया. आज सवर्ण हिन्दू इसलिए नहीं खुश है कि कालाधन जो सरकार के खजाने में जमा होगा, उसमें से उन्हें कुछ हिस्सा मिलेगा, बल्कि इसलिए खुश है कि नोट बंदी की कार्यवाही से मुलायम, मायावती कंगाल हो जायेंगे. सवर्ण हिन्दू लोकतंत्र, समानता, स्वतंत्रता, बन्धुत्व, न्याय जैसे आधुनिक मूल्यों में विश्वास नहीं करते हैं तथा इन मूल्यों को विदेशी मूल्य मानते हैं. इसलिए ये संविधान को भी हृदय से अंगीकार नहीं करते हैं. आर.एस.एस व भाजपा इस विचारधारा को संपोषित करते हैं. इन्हीं के बदौलत नरेन्द्र मोदी इतना साहसिक और ऐतिहासिक कदम उठाने की हिम्मत कर बैठे, जो न केवल लोकतंत्र और संवैधानिक मूल्यों के विरूद्ध है बल्कि 90 प्रतिशत आबादी की आर्थिक नाकेबंदी भी है.
प्रधानमंत्री जी इस कदम को इस समय उठाने के लिए एक और कारण से भी उत्साहित हुए होंगे. वह महत्वपूर्ण कारण है छः राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव. नरेन्द्र मोदी किसी भी कीमत पर इन सभी राज्यों में विधानसभा का चुनाव जीतना चाहते हैं. इन राज्यों में सबसे महत्वपूर्ण राज्य है उत्तर प्रदेश. उत्तर प्रदेश में चुनाव जीतना भाजपा के लिए इसलिए आवश्यक है कि वह राज्यसभा में अपना बहुमत स्थापित कर सके. क्योंकि राज्यसभा में बहुमत के बगैर भारत में हिन्दु राज स्थापित नहीं हो सकता, जिसके लिए नरेन्द्र मोदी के अनुसार पांच पीढ़ियों से संघर्ष जारी है. उत्तर प्रदेश में मुलायम और मायावती, भाजपा के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा है. इन दोनों दलों का सामाजिक और आर्थिक आधार भी काफी मजबूत है. मोदी ने यह कदम मुलायम, मायावती को आर्थिक रूप से कमजोर करने के लिए उठाया, जिससे उ.प्र. चुनाव में भाजपा की जीत की राह आसान हो सके.
सामान्य जानकारी रखने वाला कोई भी व्यक्ति भली-भांति समझ सकता है कि मात्र नोटबंदी की सीमित कार्यवाही से कालाधन व भ्रष्टाचार जैसी समस्याओं को हल नहीं किया जा सकता है. सरकार की दलीलें एकदम बचकाना हैं. यदि बचत खाते में ढाई लाख रूपये से ऊपर नकदी जमा करने वालों से पूछताछ होगी, तो कालाधन नकदी के रूप में अपने खाते में कोई महामूर्ख ही जमा करेगा. इससे अच्छा होगा कि वह रूपयों को नष्ट कर दे, एक दूसरा रास्ता भी है इस वित्तीय वर्ष का आयकर रिटर्न मार्च 2017 के बाद भरा जायेगा. नकदी के रूप में रखे काले धन को कोई भी व्यापारी इस वित्तीय वर्ष में अर्जित आय दिखाकर आसानी से बैंक में जमा कर सकता है. फिर सरकार के हाथ क्या आयेगा? स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री मोदी जी के नोट बंदी के निर्णय से कालेधन का दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है. वे 90 प्रतिशत जनता के पास नकदी के रूप में रखे धन को बैंक में जमा कराना चाहते हैं जिससे उद्योगपतियों को कर्ज के रूप में दिया जा सके तथा उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा को आर्थिक रूप से कमजोर करना चाहते हैं जिससे भाजपा की जीत आसान हो सके. अपने इन्हीं दोनों उद्देश्यों, जो पूर्णतयाः अमानवीय और जनविरोधी है, को पूरा करने के लिए मोदी जी ने संवैधानिक गरिमा को धता बताते हुए अपने पद का दुरूपयोग किया है. उनके इस कदम से देश में आर्थिक अराजकता का माहौल पैदा हो गया है. 50 से अधिक लोगों की जाने जा चुकी है. दिल्ली की जनता को जान हथेली पर रखकर घरों से बाहर निकलने पर बाध्य होना पड़ा. पता नहीं दिल्ली के आसमानों में जमी जहरीली धुंध से कितने लोगों का जीवन प्रभावित हुआ. प्रधानमंत्री के इस कदम को तानाशाही की शुरूआत के रूप में देखा जाना चाहिए. यदि इस खतरे का संज्ञान नहीं लिया गया तो न लोकतन्त्र बचेगा न ही संविधान.
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