14 अक्टूबर, जब 1956 में बाबासाहेब ने अपनाया था बौद्ध धर्म

14 अक्टूबर 1956 को नागपुर (दीक्षा भूमि) में बौद्ध धर्म की दीक्षा लेते बाबासाहेब डॉ. आम्बेडकर और सविता ताई आम्बेडकरभारत के इतिहास में 14 अक्टूबर 1956 का दिन एक क्रांति के रूप में दर्ज है। इस दिन भारत में वह क्रांति हुई, जिसके बारे में किसी ने भी सोचा नहीं होगा। अछूत समाज पर हिन्दू समाज के लगातार अत्याचार और इसमें सुधार की कोई गुंजाइश नहीं देखते हुए दुनिया के श्रेष्ठ विद्वानों में से एक बाबासाहेब डॉ. आम्बेडकर ने 14 अक्टूबर, 1956 (अशोक विजयादशमी) को एक बड़ा फैसला किया। उन्होंने प्राचीन मूलनिवासी नागवंशियों की भूमि नागपुर की दीक्षाभूमि के मैदान में 5 लाख से अधिक महिलाओं और पुरुषों के साथ ब्राह्मणवादी (तथाकथित हिन्दू) धर्म को छोड़कर मानवतावादी, समतावादी और लोकतांत्रिक मूल्यों से ओत-प्रोत बौद्ध धम्म को अंगीकार किया था।

बौद्ध धम्म की दीक्षा लेते समय बाबा साहेब डॉ. आम्बेडकर ने पहले खुद और फिर सभी को इस दौरान 22 प्रतिज्ञाएं लीं थीं, जिसके तहत बौद्ध धर्म को हिन्दू धर्म से बिल्कुल अलग करने की बात कही गई थी। साथ ही हिन्दू धर्म के संकेतों और देवताओं को नाकार दिया गया था। महत्वपूर्ण बात यह भी है कि जिस बौद्ध धम्म के कारण महान सम्राट अशोक के शासन काल में भारत विश्व गुरु बना था, उस बौद्ध धम्म को बाबा साहेब डॉ. आम्बेडकर ने स्वीकार कर न सिर्फ पुनर्जीवित किया, बल्कि लोकतांत्रिक भारत के नवनिर्माण के लिए उसके विस्तार को आवश्यक बताया।

इस दौरान उन्होंने विषमतावादी, जातिवादी, अमानवीय एवं अवैज्ञानिक ब्राह्मणवादी-हिन्दू धर्म को छोड़कर 13 अक्टूबर, 1935 ई. के येवला की सभा में लिए गए अपने उस संकल्प को पूरा किया था, जिसमें उन्होंने घोषणा की थी कि- “मैं एक हिन्दू के रूप में पैदा हुआ, यह मेरे वश में नहीं था। लेकिन मैं एक हिन्दू के रूप में मरूंगा नहीं, यह मेरे वश में है।”

बहुजन समाज के लोगों के चतुर्दिक विकास के लिए उन्होंने वैज्ञानिक एवं समतामूलक विचारों पर आधारित बौद्ध धम्म को ग्रहण करने एवं भारत में सामाजिक- सांस्कृतिक परिवर्तन करने का आह्वान किया था। आधुनिक भारत के विकास के लिए उनका यह कदम महान क्रांतिकारी और परिवर्तनकारी था, जिसपर आज हमें चलने के लिए संकल्प लेने की जरूरत है। नमो बुद्धाय! जय सम्राट अशोक!! जय भीम!!!

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