ओलंपिक और भारत में खेलों का जाति शास्त्र!

1952

 23 जुलाई से शुरू हुए टोक्यो ओलम्पिक- 2020 का समापन हो चुका है, जिसमें 206 देशों के 1000 से अधिक खिलाडी दर्शक-शून्य स्टेडियमों में 33 खेलों की 339 स्पर्धाओं में अपनी काबलियत का मुजाहिरा किये। खेलों के इस महाकुम्भ में 39 स्वर्ण पदकों के साथ कुल 113 मैडल जीतकर अमेरिका शीर्ष पर रहा। दूसरे नंबर पर रहा हर क्षेत्र में अमेरिका के समक्ष चुनौती पेश कर रहा चीन, जिसने 38 स्वर्ण के साथ कुल 88 पदक जीते। पदकों की संख्या के लिहाज से मेजबान देश जापान तीसरे स्थान पर रहा, जिसने 27 स्वर्ण सहित कुल 58 पदक हासिल किये। जहाँ तक विश्व शक्ति बनने का दावा करने वाले भारत महान का सवाल है, एक स्वर्ण, दो रजत और चार कास्य के साथ कुल 7 पदक सवा सौ करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले देश के हिस्से में आया, जो ओलम्पिक खेलों के इतिहास में इसका अब तक का श्रेष्ठ प्रदर्शन है।

इसके पहले भारत ने 2012 के रिओ ओलम्पिक में 6 पदक जीते थे। भारत के प्रदर्शन पर तंज कसते हुए हुए चीन की सरकारी न्यूज एजेंसी शिन्हुआ ने लिखा है, ‘दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाले देश भारत का टोक्यो ओलम्पिक में अभियान सिर्फ एक स्वर्ण पदक के साथ ख़त्म हो गया। भारत को एक स्वर्ण पदक मिला।’ इसमें आगे लिखा गया है कि एक स्वर्ण, दो रजत और चार कांस्य पदक के साथ भारत मैडल जीतने वाले 93 देशों की रैंकिंग में 48 वें नंबर है। भारत ने टोक्यो ओलंपिक में 127 एथलीट का दल भेजा था, लेकिन सफलता केवल 7 को मिली। भारत जब भी पदक जीतता है तो बहस तेज हो जाती है लेकिन फिर हर कोई शांत हो जाता है।’ इतना ही नहीं ग्लोबल टाइम्स ने भी भारत के प्रदर्शन का मखौल उड़ाते हुए लिखा है, ‘भारत को केवल एक स्वर्ण पदक और कुल सात पदक मिले हैं। इससे पता चलता है कि भारत को कई चीजों के आधुनिकीकरण में बहुत लम्बी दूरी तय करनी है।’ भारत के लोग खुश हो सकते हैं कि उनके दुश्मन देश नंबर एक पाकिस्तान की तरफ से सोशल मीडिया पर काफी सकारात्मक रुख देखने को मिला। वहां के लोगों ने भारतीय खिलाड़ियों की भरपूर सराहना की है।

खैर! हमारा प्रबल प्रतिद्वन्दी देश जितना भी मजाक उडाये भारत के लोग, विशेषकर वर्तमान केन्द्रीय सरकार टोक्यों ओलंपिक में खिलाडियों के प्रदर्शन काफी खुश है। वह तरह–तरह से सन्देश दे रही है कि उसके कारण ही भारत ने ओलंपिक में रिकॉर्ड तोड़ प्रदर्शन किया है। यह सही है कि टोक्यो में भारतीय खिलाडियों ने कुछ सुधरा हुआ प्रदर्शन किया है: विशेषकर जिस हॉकी की वजह से खेल जगत में भारत की कुछ प्रतिष्ठा रही है, उस हॉकी की पुरुष और महिला टीम ने नए सिरे से धाक जमाई है। खासकर चौथे स्थान पर रही महिला हॉकी टीम ने तो कुछ हद तक विस्मृत ही कर दिया है। मैडल न जितने के बावजूद बहुत ही प्रतिकूलताओं में पली-बढ़ी भारतीय लड़कियों ने भारत सहित पूरे विश्व का दिल जीत लिया है।
बहरहाल कुछ सुधरे प्रदर्शन को लेकर मोदी सरकार जितना भी अपनी पीठ थपथपाए, सच्चाई यही है कि हमारा प्रदर्शन शर्मनाक रहा, जिसे आगामी पेरिश ओलंपिक में बदलने के लिए लिए अभी से युद्ध स्तर पर जुट जाना चाहिए। टोक्यो ओलंपिक में जिस तरह नीरज चोपड़ा ने भालाफेंक में गोल्ड, रवि दहिया ने रेसलिंग में रजत, मीराबाई चानू ने वेटलिफ्टिंग में रजत, लवलीना बोरगोहेन ने बॉक्सिंग, पीवी सिन्धु ने बैडमिन्टन, बजरंग पुनिया ने रेसलिंग और पुरुष हॉकी टीम ने कांस्य पदक जीतने का कारनामा किया है, उससे प्रेरणा लेकर चाहें तो देश के खेल अधिकारी भारतीय खेलों के जाति शास्त्र का ठीक से अध्ययन कर ओलंपिक में देश की शक्ल बदल सकते हैं।

काबिलेगौर है कि किसी जमाने में राष्ट्र के शौर्य का प्रतिबिम्बन युद्ध के मैदान में होता था, पर बदले जमाने में अब यह खेल के मैदानों में होने लगा है। इस सच्चाई को सबसे बेहतर समझा चीन ने, जिसने 21वीं सदी में विश्व आर्थिक महाशक्ति के रूप में गण्य होने के पहले अपना लोहा खेल के क्षेत्र में ही मनवाया। लेकिन युद्ध हो या खेल, दोनों में ही जिस्मानी दमखम की जरुरत होती है। विशेषकर खेलों में उचित प्रशिक्षण और सुविधाओं से बढ़कर, सबसे आवश्यक दम-ख़म ही होता है। माइकल फेल्प्स, सर्गई बुबका, कार्ल लुईस, माइकल जॉनसन, मोहम्मद अली, माइक टायसन, मेरियन जोन्स, जैकी जयनार, इयान थोर्पे, सेरेना विलियम्स, नाडाल, जोकोविक जैसे सर्वकालीन महान खिलाड़ियों की गगनचुम्बी सफलता के मूल में अन्यान्य सहायक कारणों के साथ प्रमुख कारण उनका जिस्मानी दम-ख़म ही रहा है। दम-ख़म के अभाव में ही हमारे खिलाड़ी ओलम्पिक, एशियाड, कॉमन वेल्थ गेम्स इत्यादि में फिसड्डी साबित होते रहे हैं।
जहां तक जिस्मानी दम-ख़म का सवाल है, हमारी भौगोलिक स्थिति इसके अनुकूल नहीं है। लेकिन इससे उत्पन्न प्रतिकूलताओं से जूझ कर भी कुछ जातियां अपनी असाधारण शारीरिक क्षमता का परिचय देती रही हैं। गर्मी-सर्दी-बारिश की उपेक्षा कर ये जातियां अपने जिस्मानी दम-ख़म के बूते अन्न उपजा कर राष्ट्र का पेट भरती रही हैं। जन्मसूत्र से महज कायिक श्रम करने वाली इन्हीं परिश्रमी जातियों की संतानों में से खसाबा जाधव, मैरी कॉम, पीटी उषा, ज्योतिर्मय सिकदार, कर्णम मल्लेश्वरी, सुशील कुमार, विजयेन्द्र सिंह, लिएंडर पेस, सानिया मिर्जा, बाइचुंग भूटिया, दीपा कर्मकार, हिमा दास इत्यादि ने दम-ख़म वाले खेलों में भारत का मान बढ़ाया है। हॉकी में भारत जितनी भी सफलता अर्जित किया, प्रधान योगदान उत्पादक जातियों से आये खिलाड़ियों का रहा है। इस बार भी वंदना कटारिया, सुमित वाल्मीकि, रानी रामपाल, सलीमा, निक्की प्रधान, लाल रेम सियामी, दीप ग्रेस, निशा वारिश, सविता पुनिया, नवनीत कौर इत्यादि हॉकी प्लेयरों की पारिवारिक पृष्ठभूमि श्रमजीवी जातियों की ही रही है। नीरज चोपड़ा, चानू, लवलीना, रवि दहिया, बजरंग पुनिया श्रमजीवी परिवारों से ही निकल कर ओलंपिक में अपनी चमक बिखेरे हैं।

यहां अनुत्पादक जातियों से प्रकाश पादुकोण, अभिनव बिंद्रा, राज्यवर्द्धन सिंह राठौर, गगन नारंग, गीत सेठी, विश्वनाथ आनंद, सुनील गावस्कर, सचिन तेंदुलकर, राहुल द्रविड़, सौरभ गांगुली इत्यादि ने वैसे ही खेलों में सफलता पायी जिनमें दम-ख़म नहीं, प्रधानतः तकनीकी कौशल व अभ्यास के सहारे चैंपियन हुआ जा सकता है। जहां तक क्रिकेट का सवाल है, इसमें फ़ास्ट बोलिंग ही जिस्मानी दम-ख़म की मांग करती है। किन्तु दम-ख़म के अभाव में अनुत्पादक जातियों से आये भागवत चन्द्रशेखर, प्रसन्ना, वेंकट, दिलीप दोशी, आर अश्विन इत्यादि सिर्फ स्पिन में ही महारत हासिल कर सके, जिसमें दम-ख़म कम कलाइयों की करामात ही प्रमुख होती है। दम-ख़म से जुड़े फ़ास्ट बॉलिंग में भारत की स्थिति पूरी तरह शर्मसार होने से जिन्होंने बचाया, वे कपिल देव, जाहिर खान, उमेश यादव, मोहम्मद शमी इत्यादि उत्पादक जातियों की संताने हैं। आज भारत में बल्लेबाजी को विस्फोटक रूप देने का श्रेय जिन कपिल देव, विनोद काम्बली, वीरेंद्र सहवाग, युवराज सिंह, शिखर धवन इत्यादि को जाता है, वे श्रमजीवी जातियों की ही संताने हैं। इस बार के भी ओलंपिक में उत्पादक जातियों में जन्मे खिलाड़ियो की सफलता का यही सन्देश है कि हमारे खेल चयनकर्ता प्रतिभा तलाश के लिए पॉश कालोनियों का मोह त्याग कर अस्पृश्य, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों एवं जंगल-पहाड़ों में वास कर आदिवासियों के बीच जाएं, यदि चीन की भांति भारत को विश्व महाशक्ति बनाना चाहते हैं तो।

वंचित समाजों में जन्मी प्रतिभाओं को इसलिए भी प्रोत्साहित करना जरुरी है क्योंकि दुनिया भर में अश्वेत, महिला इत्यादि जन्मजात वंचितों में खुद को प्रमाणित करने की एक उत्कट चाह पैदा हुई है। वे खुद को प्रमाणित करने की अपनी चाह को पूरा करने के लिए खेलों को माध्यम बना रहे हैं। उनकी इस चाह का अनुमान लगा कर उन्हें दूर-दूर रखने वाले यूरोपीय देश अब अश्वेत खेल–प्रतिभाओं को नागरिकता प्रदान करने में एक दूसरे से होड़ लगा रहे हैं। इससे जर्मनी तक अछूता नहीं है। स्मरण रहे एक समय हिटलर ने घोषणा की थी-‘सिर के ऊपर शासन कर रहे हैं ईश्वर और धरती पर शासन करने की क्षमता संपन्न एकमात्र जाति है जर्मन: विशुद्ध आर्य-रक्त। उनके ही शासन काल में 1936 में बर्लिन में अनुष्ठित हुआ था ओलम्पिक। हिटलर का दावा था कि ओलम्पिक में सिर्फ आर्य-रक्त ही परचम फहराएगा, किन्तु आर्य-रक्त के नील गर्व को ध्वस्त कर उस ओलम्पिक में एवरेस्ट शिखर बन कर उभरे सर्वकाल के अन्यतम श्रेष्ठ क्रीड़ाविद जेसी ओवेन्स। अमेरिका के तरुण एथलीट, ग्रेनाईट से भी काले जेसी ओवेन्स जब बार-बार विक्ट्री स्टैंड पर सबसे ऊपर खड़े हो कर गोल्ड मैडल ग्रहण कर रहे थे। उनके मुकाबले गोरे लोग पीछे छूट गए। जेसी ओवेन्स ने 100 मीटर, 200 मीटर, लॉन्ग जम्प और फिर रिले रेस ट्रैक फिल्ड से चार-चार स्वर्ण पदक जीत लिए थे। तब हिटलर उनकी वह सफलता बर्दाश्त नहीं कर सका था और मैदान छोड़कर भाग खड़ा हुआ था।

ब्रिटेन के लीवर पूल में जो काले कभी भेंड़-बकरियों की तरह बिकने के लिए लाये जाते थे, उन्ही में से एक की संतान जेसी ओवेन्स ने नस्ल विशेष की श्रेष्ठता की मिथ्या अवधारणा को ध्वस्त करने की जो मुहीम बर्लिन ओलम्पिक से शुरू किया, परवर्तीकाल में खुद को प्रमाणित करने की चाह में उसे गैरी सोबर्स, फ्रैंक वारेल, माइकल होल्डिंग, माल्कॉम मार्शल, विवि रिचर्ड्स, आर्थर ऐश, टाइगर वुड, मोहम्मद अली, होलीफील्ड, कार्ल लुईस, मोरिस ग्रीन, मर्लिन ओटो, सेरेना विलियम्स, उसैन बोल्ट इत्यादि ने मीलों आगे बढ़ा दिया। खेलों के जरिये खुद को प्रमाणित करने की वंचित नस्लों की उत्कट चाह का अनुमान लगाकर ही हिटलर के देशवासियों ने रक्त-श्रेष्ठता का भाव विसर्जित कर देशहित में अनार्य रक्त का आयात शुरू किया। आज कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि खेलों में सबसे अधिक नस्लीय-विविधता हिटलर के ही देश में है। अब हिटलर के देश में कई अश्वेत खिलाड़ियों को प्रतिनिधित्व करते देखना, एक आम बात होती जा रही है।

बहरहाल देशहित में ताकतवर अश्वेतों के प्रति श्वेतों, विशेषकर आर्य जर्मनों में आये बदलाव से प्रेरणा लेकर भारत के विविध खेल संघों के प्रमुखों को भी वंचित जातियों के खिलाड़ियों को प्रधानता देने का मन बनाना चाहिए। नयी सदी में मैडल जीतने के बाद जिस तरह खिलाड़ियों पर पैसों की बरसात हो रही है, उससे सिर्फ नीरज चोपड़ा- रवि दहिया इत्यादि ही नहीं, दीपा कर्मकार, हिमा दास, वंदना कटारिया, सुमित वाल्मीकि के भी भाई -बहनों में दम-ख़म वाले खेलों के जरिये खुद को प्रमाणित करने के साथ अपना जीवन स्तर उठाने की तीव्र ललक पैदा हो चुकी है। श्रमजीवी जातियों की सोच में आये इस बदलाव का सद्व्यवहार करने का यदि खेल अधिकारी और सरकारें मन बना लें तो निकट भविष्य में ओलंपिक का शर्मनाक रिकॉर्ड सुधारना ज्यादा कठिन नहीं होगा।

टोक्यो ओलंपिक में अकेले दो गोल्ड और ब्रोंज मैडल जीतने वाली अश्वेत रिफ्यूजी खिलाडी साफिया हसन ने नए सिरे से एक और तरीका बताया है, जिसके जरिये भारत ओलंपिक में अपनी स्थिति सुधार सकता है। सिफान हसन पर टिपण्णी करते हुए किसी ने सोशल मीडिया पर लिखा है-‘ सिफान इसलिए भी खास हैं क्योंकि वो लड़की होने के साथ एक रिफ्यूजी भी हैं। मगर नीदरलैंड तथा यूरोप की वह धर्मनिरपेक्ष संस्कृति भी अत्यंत महत्वपूर्ण है, जो मानवीय आधार पर बिना किसी भेदभाव के अपने देश के रास्ते दूसरे धर्मों के लोगों के लिए खोल देते हैं और धार्मिक आधार पर किसी को हतोत्साहित नहीं करते। यह उन लोगों के लिए सबक है जो हर मामले में धार्मिक पहचान को आगे ले आते हैं।’

जिस तरह भारत विदेशी खेल कोचों को आयात करता हैं, उसी तरह विदेश के विधर्मी काबिल खिलाड़ियों को भी नागरिकता देना शुरू करे तो ओलंपिक मैडल की तालिका में हमारी स्थिति बेहतर हो सकती है। हालांकि ओलंपिक में चमत्कारिक परिणामों की संभावना के बावजूद खेल संघों पर हावी प्रभु जातियों के लिए भारत की श्रमजीवी जातियों को प्राथमिकता तथा विदेशों के विधर्मी खिलाडियों को नागरिकता देना आसान काम नहीं है। इसके लिए उन्हें राष्ट्रहित में उस वर्णवादी मानसिकता का परित्याग करना पड़ेगा जिसके वशीभूत होकर इस देश के द्रोणाचार्य, कर्णों को रणांगन से दूर रख एवं एकलव्यों का अंगूठा काट कर, अर्जुनों को चैंपियन बनवाते रहे हैं। पर, अगर 21वीं सदी में भी खेल संघों में छाये द्रोणाचार्यों की मानसिकता में आवश्यक परिवर्तन नहीं आता है तो भारत क्रिकेट, शतरंज, तास, कैरम बोर्ड, बिलियर्ड इत्यादि खेलों में ही इतराने के लिए अभिशप्त रहेगा। ओलम्पिक मैडल की शीर्ष तालिका में पहुंचने का उसका सपना सपना बना रहेगा और चीन जैसे प्रतिद्वंदी मजाक उड़ाते रहेंगे।

1 COMMENT

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.