आदरणीय महावीर सिंह जी,
मैं उदय एक गाड़ी ड्राइवर हूं. पिछले दिनों गाड़ी से दिल्ली जा रहा था. रेडियो पर खबर आई की हरियाणा के कुश्ती कोच महावीर सिंह को भारत सरकार द्रोणाचार्य अवार्ड से सम्मानित करेगी. खबर सुनते ही जो ख़ुशी हुई वो मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकता. इससे पहले बहुत से लोगो को ये आवार्ड मिले है लेकिन मैंने कभी ध्यान भी नहीं दिया. लेकिन आपके चयन होने पर एक अजीब सी ख़ुशी हुई क्योंकि आप वो इंसान हो जिसने रूढ़िवादी परम्पराओ को तोड़ते हुए अपनी बेटियों को ही नहीं सभी बेटियों को एक मर्दवादी खेल में शामिल करके रास्ता दिखाया की ये खेल सिर्फ पुरुषों के लिए ही नहीं महिलाएं भी इसको खेल सकती है और खेल ही नहीं सकती अपना लौहा भी मनवा सकती है. इसके लिए जो संघर्ष आपने इस रूढ़िवादी समाज से किया है वो असाधारण संघर्ष है. उसी संघर्ष को हम सलाम करते है. उस संघर्षशील इंसान को भारत का सबसे बड़ा खेल सम्मान मिल रहा है इसलिए ये ख़ुशी भी असाधारण थी.
लेकिन जब मैने गम्भीरता से इस आवार्ड के बारे में सोचा तो मेरी ख़ुशी फुर हो गयी. मेरे मन में पहला सवाल ये था कि क्या ये आवार्ड महावीर सिंह के लायक है? अगर लायक नहीं है तो क्या इस अवार्ड को महावीर सिंह को लेना चाहिए. आवार्ड लेने से और न लेने से खेल जगत और समाज पर दुर्गामी प्रभाव क्या पड़ेंगे?
पहला सवाल की क्या ये आवार्ड महावीर सिंह के लायक है? अवार्ड महावीर सिंह के लायक नहीं, क्यों? इसको जानने के लिए हमें सबसे पहले द्रोणाचार्य जिसके नाम से ये आवार्ड है और महावीर सिंह की तुलना करनी चाहिए. द्रोणाचार्य महाभारत में कौरवों और पांडवों के गुरु थे. उनका एक आश्रम (स्कूल) था. उस समय जो शिक्षा प्रणाली थी वो इन आश्रमों में इन गुरुओं द्वारा दी जाती थी. शिक्षा के रूप में विद्यार्थियों को अक्षर ज्ञान के साथ-साथ युद्ध कौशल सिखाया जाता था. लेकिन ये शिक्षा सभी ले सके ऐसा कदापि नहीं था. इस शिक्षा के दरवाजे सिर्फ ब्राह्मणों और क्षेत्रियों के लिए खुले होते थे. बाकि शुद्रों (मजदूर-किसान) के लिए और महिलाओं के लिए शिक्षा के बारे में सोचना भी पाप था. अगर कोई शुद्र जाने-अनजाने या चोरी से आपके स्कूलों की शिक्षा को सुन भी ले तो उसके कानों में गर्म तरल वस्तु डाल दी जाती थी. अगर कोई स्कूल की बुक्स को छू ले तो उसके हाथ काट दिए जाते थे और अगर कोई उनको खोल कर देख ले तो उसकी आंख फोड़ दी जाती थी. ये सब अमानवीय काम शुद्रों के साथ होता था. अब सवाल उठता है कि शुद्र कौन थे?
आर्यो के अंदर भारत में आने से पहले 3 वर्ण होते थे. ब्राह्मण, क्षेत्रीय, पशुपालक (वैश्य). आर्यो का मुख्य पेशा पशु पालन और शिकार करना था. आर्यो को भारत में आने से पहले खेती के बारे कोई जानकारी नहीं थी. जब आर्यो ने भारत पर आक्रमण किया तो यहां के मूलनिवासी जो धन-धान्य से परिपूर्ण थे. जो खेती करते थे. जो शांतप्रिय लोग थे. जिनकी संस्कृति, जिनका सामाजिक ढांचा उज्वल था. उसको आर्यों ने तहस-नहस कर दिया और यहां के मूलनिवासियो को अपना गुलाम बना लिया. अब आर्यो के चार वर्ण हो गए ब्राह्मण, क्षेत्रीय, वैश्य और शुद्र. शुद्रो में भी शुद्र और अतिशुद्र बनाये गए. जिनको आर्य हरा नहीं सके, उनको आर्यो ने असुर कहां, राक्षस कहां.
खेती करना, कपड़े बनाना, जूते बनाना, रहने के लिए बड़े-बड़े महल बनाना, पशु पालना, बर्तन बनाना मतलब इंसान के जिन्दा रहने के लिए सबसे जरूरी वस्तुओं के उत्पादन करने का सारा काम शुद्र करते थे. लेकिन उस उत्पादन के बड़े हिस्से का उपभोग क्षेत्रीय और ब्राह्मण करते थे. शुद्र के पास न अच्छा खाना था, न मकान, न कपड़े, न बर्तन और न पहनने के लिए जूते जबकि इन सभी को पैदा वो खुद करता था. इस व्यवथा को बनाये रखने के लिए आर्यो ने शुद्र को शिक्षा से वंचित रखा. ऐसे ही महिला को भी शिक्षा से वंचित रखा गया. अगर शुद्र शिक्षित हो जायेगा तो उनकी इस लूट से पर्दा उठ जायेगा. क्योकि शिक्षित इंसान गुलामी की जंजीरों को जल्दी तोड़ता है. ब्राह्मणों ने बहुत ज्यादा ये झूठा प्रचार किया था कि शुद्र इसलिए शुद्र है क्योंकि उनके कर्मों में ये लिखा है. उन्होंने पिछले जन्म में अच्छे कर्म नही किये (अच्छे कर्म मतलब मालिक की सेवा, मालिक की आज्ञा का पालन, दान देना, महेनत करना) इसलिए भगवान ने उनको इस जन्म में ये जिंदगी दी है. अगर अगले जन्म में अच्छी जिंदगी चाहिए है तो अच्छे कर्म करो. ये सब नियम वेदों के अंदर लिखे है. वेद के रचयिता स्वयं भगवान ब्रम्हा है जिन्होंने ये श्रष्टि बनाई. गीता में भी लिखा है कि “कर्म करो, फल की चिंता मत करो” क्या हम कोई भी काम बिना फल की चिंता के करते है और क्या बिना फल की चिंता कोई काम करना चाहिए. अब अगर शुद्र और महिला शिक्षित हो जाएंगे तो ब्राह्मणों की इस झूठे प्रचार की पोल खुल जाएगी. इसलिए शुद्र और महिला के लिए शिक्षा वर्जित थी.
दूसरा शिक्षा का हिस्सा युद्ध कौशल था अगर शुद्र युद्ध कौशल सिख गये तो शुद्र संख्या में ज्यादा है फिर वो उनकी गुलामी क्यों करेगें. वो राज पर कब्जा करके असमानता पर आधारित इस व्यवस्था को उखाड़ देंगे. इसलिए द्रोणाचार्य के स्कूल में सिर्फ ब्राह्मण और क्षेत्रीय शिक्षा ले सकते थे. जब “एक्लव्य” द्रोणाचार्य के पास शिक्षा लेने गया तो उसको ये बोलकर मना कर दिया की वो शुद्र है. लेकिन जब “एक्लव्य” ने खुद की मेहनत से धनुष विधा सिख ली. इसका पता जब द्रोणाचार्य को लगा तो उसने अपने वर्ग के लोगो के साथ मिलकर छल-कपट या जबरदस्ती से “एक्लव्य” का अंगुठा काट लिया. द्रोणाचार्य कभी नही चाहता था कि एक एकलव्य से हजार एक्लव्य बने.
महान दार्शनिक चार्वाहक से लेकर सन्त शम्भूक् जैसे महान लोगो को क्षत्रियों और ब्राह्मणों ने इसलिए मार दिया क्योंकि वो अपने शुद्र वर्ग के बच्चों को, महिलाओ को शिक्षित कर रहे थे. इसलिए ऐसे असमानता और शोषण पर टिकी व्यवस्था के शिक्षक के नाम से शोभित आवार्ड क्या आपके लायक है. क्योंकि आप भी एक शिक्षक हो. क्या आपने कभी किसी मजदूर-किसान-महिला को अपनी कला सिखाने से मना किया है. क्या आपने किसी से भेदभाव किया है. अगर नहीं किया तो ये आवार्ड आपके लायक नहीं है. ऐसे आवार्ड को आपको लेने से मना कर देना चाहिये.
अगर आप ऐसे असमानता के नाम के प्रतीक आवार्ड को लेने से मना करते हो तो एक बहस छिड़ना लाजमी है कि क्या ऐसे गुरुओं को आदर्श गुरु माना जा सकता है जो अपने शिष्यों में भेदभाव करते थे और अब भी करते है, जिन्होंने कितनी असाधारण प्रतिभाओ का कत्ल किया है, जिनके कारण कितनी लड़कियों की जिंदगियां ख़राब हुई है. जिन्होंने कितने ही एकलव्यों के अंगूठे काट लिए है क्या ऐसे गुरु को आदर्श माना जा सकता है. अगर ऐसे गुरु को आदर्श नही माना जा सकता तो क्यों ऐसे गुरु के नाम से आवार्ड का नाम है. और जिस दिन ऐसे गुरुओं के ऐसे आवार्ड से नाम हटा दिए जाएंगे तो किसी एकलव्य को अपना अंगूठा कटवाने की जरूरत नही पड़ेगीं खेलो में सभी की समान भागीदारी हो सकेगी. हमको ऐसे किसी भी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में ऐसे सूखे के दिन देखने नही पड़ेंगे. प्रत्येक खेल में हरियाली ही हरियाली होगी. क्योंकि शिक्षक जैसा होता है उसके विद्यार्थी भी वैसे ही होते है.
आदरणीय महावीर सिंह जी,
आप द्रोणाचार्य नहीं हो, आप शम्भूक् हो, जिसने वंचित तबकों की शिक्षा के लिए जान दे दी. आप ज्योतिभा फुले, सवित्री बाई फुले हो जिसने महिलाओ के लिए शिक्षा के दरवाजे खोलने के लिए संघर्ष किया. जिसने रूढ़िवादी समाज की यातनाएं सही. आप महावीर सिंह हो जिसने कुश्ती में लड़कियों के लिए दरवाजे खोले, जिसने समाज से संघर्ष किया. आप द्रोणचार्य कैसे बन सकते हो. आपको तो द्रोणाचार्यो को महावीर सिंह बनाना है. मुझे और वंचित तबकों को आपसे बहुत आशाएं है.
अगर आप आवार्ड लेते हो तो जो चल रहा है वो चलता रहेगा. द्रोणाचार्य के रूप में शिक्षक जिन्दा रहेगा और “एकलव्य” अपना अंगूठा कटवाता रहेगा. लेकिन इस असमानता पर आधारित व्यवस्था के खिलाफ आवाज बुलंद आज आप नही तो कल और कोई शिक्षक या विद्यार्थी जरूर करेगा. ये लड़ाई जो असमानता के खिलाफ हजारो सालो से जारी है इसको जारी रखने के लिए एकलव्यों, शम्भुको की जरूरत है.
उदय

दलित दस्तक (Dalit Dastak) साल 2012 से लगातार दलित-आदिवासी (Marginalized) समाज की आवाज उठा रहा है। मासिक पत्रिका के तौर पर शुरू हुआ दलित दस्तक आज वेबसाइट, यू-ट्यूब और प्रकाशन संस्थान (दास पब्लिकेशन) के तौर पर काम कर रहा है। इसके संपादक अशोक कुमार (अशोक दास) 2006 से पत्रकारिता में हैं और तमाम मीडिया संस्थानों में काम कर चुके हैं। Bahujanbooks.com नाम से हमारी वेबसाइट भी है, जहां से बहुजन साहित्य को ऑनलाइन बुक किया जा सकता है। दलित-बहुजन समाज की खबरों के लिए दलित दस्तक को सोशल मीडिया पर लाइक और फॉलो करिए। हम तक खबर पहुंचाने के लिए हमें dalitdastak@gmail.com पर ई-मेल करें या 9013942612 पर व्हाट्सएप करें।