जानिए, भारत में मुस्लिम सांप्रदायिकता का जन्म कैसे हुआ?  

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हिन्दू साम्प्रदायिकता मुसलमानों के विरूद्ध क्यों अस्तित्व में आयी ? इस प्रश्न को समझे बिना मुस्लिम साम्प्रदायिकता को ठीक से नहीं समझा जा सकता । जिन लोगों ने भारत-विभाजन की परिस्थितियों को देखा और भोगा है, वे इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि विभाजन तत्कालीन परिस्थितियों की माँग था । जहाँ तक विभाजन के दंगों की बात है, तो उनमें दोनों ही समुदाय तबाह और बरबाद हुए । किन्तु , यह विडम्बना ही है कि हिन्दू समुदाय ने इस दर्द को इस स्तर पर अनुभव किया कि मुसलमानों के प्रति कभी न खत्म होने वाली नफरत भी उसकी गहराईयों में बस गयी । इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय मुसलमानों के प्रति हिन्दू समुदाय आक्रामक बनते गये । सबसे पहले उनका आर्थिक वहिष्कार हुआ । व्यापार, उद्योग, कृषि-क्षेत्रों में हिन्दुओं का कब्जा पहले से ही था, अब सरकारी नौकरियों में भी हो गया । चूंकि अधिकांश मुस्लिम प्रबुद्ध जन पाकिस्तान चले गये थे, इसलिये भारतीय मुसलमानों में उस नेतृत्व का अभाव हो गया, जो उनको संगठित करता और उनकी समस्याओं को जोरदार ढंग से उठाता । इसका लाभ न केवल कठमुल्लावाद ने, बल्कि उन मुस्लिम नेताओं ने भी उठाया, जिन्होंने मुस्लिम राजनीति के बल पर अपने निजी स्वार्थों को पूरा किया । एक ओर मुल्ला-मौलवियों ने  उन्हें इस्लाम के सही समझ से दूर रखकर अज्ञानता, अन्धविश्वास और पाखण्ड सिखाया , तो दूसरी ओर इसी आधार पर मुस्लिम नेताओं ने सत्ता के लिये उनका इस्तेमाल किया और सत्ता में आने के बाद उन्होंने न मुसलमानों की आर्थिक लड़ाई लड़ी और न सामाजिक सुरक्षा के खिलाफ ही कोई ताकतवर मुहिम चलायी ।

अत: नेतृत्वहीन भारतीय मुसलमान जैसा कि प्रो. फ़करुद्दीन बेन्नूर ने लिखा है, “भीतर ही भीतर असुरक्षित तथा अकेलेपन से संत्रस्त होते जा रहे हैं । परिणामत: मुस्लिम मध्यवर्ग के सदस्य सांप्रदायिक प्रतीकों तथा संकल्पनाओं को फिर से स्वीकार करते जा रहे हैं । यह प्रवृत्ति बेहद विफलताओं में से उभरती है और यही कारण है कि आज का सुशिक्षित मध्यवर्गीय मुसलमान, आधुनिक शिक्षा-दीक्षा से विभूषित होते हुए भी खुद को असुरक्षित महसूस कर रहा है और जमातवादी सूत्रों को स्वीकार करने लगा है ।”

मुस्लिम संगठनों के मूल में भी यही प्रतिक्रिया निहित है । 1987 में जब दिल्ली की जामा मस्जिद  के नायब इमाम सैयद अहमद बुखारी ने ‘ आदिम सेना’ का गठन किया, तो उनकी दलील यह थी कि – “ जब हिन्दू शिव तक पहुँच सकते हैं, तो हम आदम तक क्यों नहीं पहुँच सकते ?” सैयद बुखारी ने एक भेंटवार्ता में इसे प्रतिक्रियावादी कार्यवाही स्वंय स्वीकार किया। वह कहते हैं  –

“अब आप थोड़ा पीछे की ओर देखें तो पता चलता है कि आज़ाद हिन्दुस्तान में शुरु से ही मुख्तलिफ सेनाएं बनने लगी थीं । शिव सेना, हिन्दू सेना और बजरंग दल बना ।  चूंकि आये दिन हो रही साम्प्रदायिक घटनाओं से मुसलमान अपने आप को असुरक्षित महसूस कर रहे थे । और, यह भी महसूस किया जा रहा था कि ये सेनाएँ एक ही फिरके में बन रही थीं, लेकिन मुसलमानों में कोई ऐसी सेना नहीं थीं, जो इनका मुकाबला कर सके । अपनी सुरक्षा और इन सेनाओं से मुकाबला करने के लिये कुछ लोग हथियार चाहते थे । छोटे-छोटे गुटों में उनकी गतिविधियाँ तेज हो रही थीं । वे सुरक्षा के उपाय ढूंढ रहे थे । चूंकि ये सेना एक ही संप्रदाय की थीं, इसलिये हुकुमत की कोई चिंता नहीं थी, जबकि इससे देश को काफी नुकसान पहुँच रहा था । हमें अपनी सुरक्षा का बंदोबस्त करना था, अन्य सेनाओं का मुकाबला करना था और हुकुमत को झकझोरना था । ऐसे में हमने सेना बनायी और कामयाब भी हुए ।”

‘आदम सेना’ के उद्देश्यों में दो उद्देश्य बहुत महत्वपूर्ण हैं , जो भारत के लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष के प्रति संगठन की निष्ठा को प्रमाणित करते हैं । इनमें पहला उद्देश्य यह है कि ‘यह संगठन किसी भी कीमत पर साम्प्रदायिक पागलों की इस प्यारे देश को तोड़ने की कोशिशों को कामयाब नहीं होने देगा ।’ दूसरा उद्देश्य यह है कि  ‘यह संगठन किसी भी किस्म की व्यक्तिगत या सामूहिक हिंसा से कोई वास्ता नहीं रखेगा । अगर संगठन का कोई भी सदस्य हिंसा करता पाया जाता है, तो संगठन से उसे फौरन हटा दिया जाएगा ।’

विश्व हिन्दू परिषद की तर्ज पर अयोध्या में विश्व मुस्लिम परिषद नामक संगठन भी 1990 में अस्तित्व में आया ।  विश्व हिन्दू परिषद ने मंदिर के मामले में जो राष्ट्र का वातावरण पिछले तीन वर्षों में खराब किया हुआ है और मुसलमानों के विरूद्ध अपने उत्तेजक भाषणों से जो साम्प्रादायिक दंगे भड़काने में अहम भूमिका निभायी, उसकी प्रतिक्रिया में विश्व मुस्लिम परिषद जैसे संगठन का जन्म हो ही सकता है । इस संगठन की ओर से अयोध्या में मुस्लिम क्षेत्रों में चस्पा किये गये पर्चों में (जो उर्दू में हाथ से लिखकर फोटोस्टेट कराकर चस्पा किये गये) संगठन का जो परिचय और ध्येय व्यक्त किया गया है, वह एक प्रमुख हिन्दी दैनिक के अनुसार निम्न प्रकार है-

“तवारीख गवाह है कि मुगलों के वक्त से आज तक मुसलमान हिन्दुस्तान का वफादार रहा है और हिन्दुस्तान की गैर मुस्लिम अकवास (जाति) और उनकी इबादतगाहों का मुहाफ़िज (रक्षक) रहा है । लेकिन मुसलमानों को आजादी के बाद इस वफादारी का जो सिला (इमाम) मिला, उससे हमारी मस्जिदें, मकबरें, दरगाहें और हमारी इस्लामी पहिचान , यहाँ तक कि हमारे मकानात और दुकानें वगैरह भी महफ़ूज नहीं रह गयीं । हजारों मुसलमानों का कत्लेआम हुआ । बेशक इस्लाम ने अमन का पैग़ाम दिया, लेकिन अपनी हिफ़ाजत के लिये बातिल से जंगें भी कीं । आपके शहर में एक तंजीम (संस्था) ‘ विश्व मुस्लिम परिषद’ का कयाम अमल में आ चुका है , जिसने अहद (प्रण ) किया है कि बाबरी मस्जिद को नुकसान पहुँचाने के ग़ैर पसंदाना अकदाम (अप्रिय कदम) की मुखालफत करना और मुसलमानों की पहिचान कायम रखना है । तंजीम के इस नजरिये पर अमल के लिये हमारा मुत्तहिद होना जरुरी है ।”

इस समाचार के अंत में लिखा है कि ‘विश्व मुस्लिम परिषद’ का मुखिया कौन है तथा इसका वजूद यदि है, तो कितना प्रभावकारी है , यह बातें अभी साफ नहीं हैं ।’ किन्तु यदि इस समाचार पत्र के कई माह बाद तक भी विश्व मुस्लिम परिषद नामक संगठन की गतिविधियाँ प्रकाश में नहीं आयीं, तो इससे एक निष्कर्ष यह भी निकाला जा सकता है कि विश्व मुस्लिम परिषद का गठन ही न हुआ हो और मुसलमानों ने विश्व हिन्दू परिषद की आक्रामक कार्यवाहियों का जवाब देने के मकसद से महज़ एक प्रतिक्रिया ही व्यक्त की हो । इसके अतिरिक्त, यह निष्कर्ष निकालना भी उचित न होगा कि विश्व मुस्लिम परिषद का यह पर्चा , जो मुस्लिम क्षेत्रों में चस्पा किया गया, मुसलमानों को साम्प्रदायिक तनाव के लिये उत्तेजित करने के उद्देश्य से किसी हिन्दू संगठन का ही सुनियोजित षड्यंत्र हो ।

अभी हाल में लखनऊ में मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने एक नये संगठन ‘मुस्लिम महाज’ का गठन किया है । एक हिन्दी दैनिक में प्रकाशित समाचार में कहा गया है कि ‘मुस्लिम महाज’ ने एक प्रस्ताव द्वारा बाबरी मस्जिद की रक्षा और और उसकी वापसी की माँग केन्द्रीय सरकार से की है । दूसरे प्रस्ताव में देश के मुसलमानों से कहा गया है कि वे वोट की राजनीति से अपने को अलग कर लें । न वोट दें और न वोट माँगें । वोट की राजनीति के चलते ही भारत की मुस्लिम जनता को पिछले 46 वर्षों में बेइज़्ज़ती और साम्प्रदायिक दंगों के अतिरिक्त कुछ नहीं मिला, जबकि मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने के नाम पर स्वयंभू मुस्लिम नेताओं ने सिर्फ ऐश की है । संगठन ने सभी मुसलमान सांसदों, विधायकों और मंत्रियों से माँग की है कि ‘वह सुविधा और सत्ता का मोह छोड़कर अपने पदों का त्याग करें, अन्यथा उनका घेराव किया जाएगा ।’

कहना न होगा कि मंदिर- मस्जिद- विवाद  से उत्पन्न भय और असुरक्षा की भावना ही ‘मुस्लिम महाज’ के गठन का भी मूलाधार है ।

अत: हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि मुसलमानों के प्रति हिन्दुत्व के आक्रामक तेवर, निराधार आरोप, भ्रामक दृष्टिकोण और दुष्प्रचार के फलस्वरुप मुस्लिम साम्प्रदायिकता ने जन्म लिया । यद्यपि यह प्रतिक्रियात्मक है और तुलनात्मक दृष्टि से उतनी आक्रामक और हिंसक नहीं है, जितनी हिन्दू साम्प्रदायिकता है, (क्योंकि हिन्दू साम्प्रदायिकता मुसलमानों के साथ-साथ दलित-पिछड़ी जातियों के प्रति भी आक्रामक और हिंसक है) तथापि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता  कि साम्प्रदायिक विद्वेष स्वंय में एक ऐसा अपराध है, जो देश में अराजकता उत्पन्न करता है और राष्ट्रीय एकता को खण्डित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है ।

(कंवल भारती के फेसबुक से साभार)

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