उत्तर प्रदेश में जब से 2022 के विधानसभा चुनावों का परिणाम आया है तब से मुख्यधारा का मीडिया, यूट्यूब मीडिया, और उसमें बैठे हुए तथाकथित बुद्धिजीवी- सोशलिस्ट बुद्धिजीवी, प्रगतिशील बुद्धिजीवी, और यहां तक अमेरिका में बैठे बुद्धिजीवी (जिन्होंने तो भारत की जमी पर कदम तक नहीं रखा और केवल फोन से वार्ता कर अपनी मन:स्थिति को निर्मित किया) एक सुर में कहते हुए जरा भी लज्जित नहीं होते की बहुजन समाज पार्टी ने अपना वोट बीजेपी को ट्रांसफर करा दिया और इसलिए भाजपा की जीत हुई है। कुछ तथाकथित राजनैतिक जानकर यहां तक कह रहे हैं कि बसपा ने जानबूझकर ऐसे प्रत्याशी खड़े किए जिससे कि समाजवादी पार्टी को नुकसान हुआ अन्यथा वह पूर्ण बहुमत में आ जाती। यद्यपि यही बात गोवा में ममता बनर्जी के लिए नहीं कही जा रही है जबकि ममता बनर्जी के खिलाफ हमारे पास तथ्यात्मक आंकड़े हैं, जिनसे यह बात प्रमाणित होती है कि उनकी वजह से कांग्रेस सीधे-सीधे हारी है और भाजपा ने अपनी सरकार बना ली है।
सभी जानते हैं कि ममता बनर्जी ने गोवा में पहली बार चुनाव लड़ कर 5.2 प्रतिशत वोट लिया था। ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने 4 सीटों- बिनौलिम, नवेलिम, पोरवोरिम और तिविम सीटों पर कांग्रेस को सीधे-सीधे नुकसान पहुंचा कर बीजेपी की सरकार बनवा दी। लेकिन उससे कोई भी प्रश्न नहीं पूछ रहा है कि आपने गोवा जा कर चुनाव क्यों नहीं लड़ा? ना ही कोई अनर्गल प्रलाप कर रहा है कि ममता बनर्जी भाजपा की ‘बी टीम’ है? यह जाति पक्षपात का रवैय्या है। चूँकि ममता बनर्जी सवर्ण/ब्राह्मण है उस पर कोई नकारात्मक आरोप नहीं लगाया जायेगा।
अब हम आते हैं कि बसपा का वोट वास्तविकता में किस पार्टी को गया। भारतीय चुनाव आयोग नई दिल्ली द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार उत्तर प्रदेश के 2022 के विधान सभा के चुनावों में भाजपा को 3 करोड़ 80 लाख 51721 वोट मिले अर्थात 2017 में हुए विधान सभा चुनावों की तुलना में उसके 36 लाख, 48 हजार, 242 वोट बढे। परंतु कांग्रेस को 2022 में केवल 21 लाख 51 हजार 234 वोट मिले हैं। यद्यपि उसे 2017 में 54 लाख 16 हजार 2 सौ चालीस वोट मिले थे। इसका मतलब यह हुआ कि 2017 की तुलना में कांग्रेस को 32 लाख 65 हजार 306 वोट कम मिले। इसी कड़ी में शिवसेना ने 2017 में उत्तर प्रदेश के चुनाव लड़े थे और उसे 88,595 वोट मिले थे। परंतु शिवसेना ने 2022 में उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव नहीं लड़ा। अब आप ही कल्पना कीजिए कि कांग्रेस और शिवसेना का वोट कहां स्थानांतरित हुआ होगा? मेरा आंकलन है कि यह वोट सीधे-सीधे भाजपा तरफ गया है, क्योंकि सवर्ण समाज बीजेपी का प्राकृतिक सहयोगी माना जाता है, और शिवसेना ने तो उसके साथ हमेशा गठबंधन किया है। इसलिए यह तोहमत/ आरोप लगाना कि बहुजन समाज पार्टी का वोट और वह भी दलित वोट भाजपा की तरफ चला गया है झूठ एवं मिथ्या से ज्यादा और कुछ नहीं है।
तालिका-1 : उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में 2017 एवं 2022 विभिन्न दलों को प्राप्त वोटों का तुलनात्मक अध्ययन
स्रोत: भारतीय चुनाव आयोग द्वारा प्रकाशित आंकड़े
1 | राजनैतिक दल / नोटा | 2022 वोटो की संख्या | 2017 वोटो की संख्या | वोटो की संख्या 22और 17 में अंतर |
2 | भारतीय जनता पार्टी | 38051721 | 34403299 | +3648422 |
3 | समाजवादी पार्टी | 29543934 | 18923769 | +10262594 |
4 | बहुजन समाज पार्टी | 11873137 | 19281340 | – 7408202 |
5 | कांग्रेस पार्टी | 2151234 | 5416540 | – 3265306 |
6 | आर एल डी | 2630168 | 1545811 | + 1084357 |
7 | AIMIM | 450929 | 204142 | + 246777 |
8 | शिव सेना | चुनाव नहीं लड़ा | 88595 | यह वोट सीधे–सीधे भाजपा को ही गया होगा ऐसा |
8 | निर्दलीय उम्मीदवार | 6213262 | 2229453 | + 4083809 |
9 | नोटा | 637304 | 757643 | + 120339 |
“बसपा ने अपना वोट भाजपा को स्थानांतरित करा दिया और इसकी वजह से भाजपा की जीत हुई” एक बार फिर यह नकारात्मक कथानक बहुजन समाज पार्टी के खिलाफ गढ़ना सवर्ण मानसिकता के तथाकथित बुद्धिजीवियों की एक सोची-समझी रणनीति लगती है। यह जातिवादी मानसिकता से ज्यादा कुछ नहीं लगती। क्योंकि वंचित, शोषित, गरीबी रेखा के नीचे ग्रामीण अंचल में रहने वालों के राजनीतिक दल को बिना ठोस प्रमाण के आधार पर लांछित करना जातिवाद नहीं तो और क्या कहलायेगा? दूसरी तरफ कहा जा रहा है कि दलित समाज के लोग 5 किलो आनाज पर बिक गए और उन्होंने अपना वोट भाजपा को दे दिया। इस तथ्य में विरोधाभास निहित है। एक ओर तो कह रहे हैं कि बसपा की सुप्रीमो ने बसपा का वोट ट्रांसफर करा दिया और दूसरी तरफ वे ही लोग कह रहे हैं कि बसपा के गरीब और दलित समाज के लोगों ने 5 किलो अन्न की लालच में अपना वोट भाजापा को दे दिया। अगर दलितों ने 5 किलो आनाज की लालच में अपना वोट दे दिया तो फिर बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो ने अपने वोट को भाजपा की तरफ कैसे ट्रांसफर कर दिया? यह बात कैसे प्रमाणित की जाएगी। दूसरी तरफ यह बात भी सत्य है कि दलितों को यह कहते सुना गया कि उनके पास अभी तक कोई भी सरकारी योजना का लाभ नहीं पहुंचा। साथ ही साथ उन्हें यह भी कहते हुए सुना गया कि मोदी और योगी जो राशन दे रहे हैं वह हमारे ऊपर एहसान नहीं कर रहे हैं। लेकिन हां अगर उनको कुछ मिला भी है तो मिलने के बाद भी वोट अपना बसपा को ही देंगे। इससे यह बात प्रमाणित हो जाती है कि बहुजन समाज पार्टी का वोट जो कि एक वैचारिक वोट है, वह किसी भी लालच में भाजपा में नहीं गया है। क्योंकि बसपा का कैडर वोट, एक विचारधारा के साथ भी जुड़ा है, और विचारधारा… खासकर अंबेडकरी विचारधारा से जुड़ा कोई व्यक्ति भाजपा को वोट बिल्कुल नहीं कर सकता, इसके कई प्रमाण सामने आ चुके हैं।
अब आते हैं कि अगर बसपा का वोट भाजपा में नहीं गया तो क्या वह वोट सपा और रालोद के गठबंधन को गया है? 2022 में समाजवादी पार्टी को 29543934 (दो करोड़ पंचानवे लाख तैतालिस हजार नौ सौ चौतीस) वोट मिले यद्यपि उसे 2017 में मात्र 18923769 (एक करोड़ नवासी लाख तेईस हजार सात सौ उनहत्तर) वोट ही मिले थे । इसका मतलब यह हुआ कि सपा को 2017 की तुलना में 2022 में 10262594 (एक करोड़ छब्बीस लाख दो हजार पांच सौ चौरान्नवे) वोट ज्यादा मिले। इसी कड़ी में रालोद जिसका सपा से गठबंधन था उसको 2022 में 2630168 (छब्बीस लाख तीस हजार एक सौ अठसठ ) वोट मिले जबकि उसे 2017 में मात्र 1545811 (पंद्रह लाख पैतालीस हजार आठ सौ ग्यारह) वोट मिले थे जोकि 2017 की तुलना में 1084357 (दस लाख चौरासी हजार तीन सौ सत्तावन) वोट ज्यादा है। इसी प्रकार एआईएमआईएम (AIMIM) को 2022 में 450929 वोट मिले जबकि उसे 2017 में केवल 204142 वोट मिले थे। इसका मतलब यह हुआ कि उसे भी 2022 में 2017 की तुलना में उसे 246777 वोटों का फायदा हुआ। अब प्रश्न उठता है कि सपा, आरएलडी, एवं एआईएमआईएम के वोटों में इजाफा/ बढ़ोत्तरी कहां से हुई।
इसी संदर्भ में यहां यह तथ्य रेखांकित करना अति आवश्यक है कि बहुजन समाज पार्टी को उत्तर प्रदेश के 2022 के चुनाव में केवल 11873117 (एक करोड़ अट्ठारह लाख तिहत्तर हजार एक सौ सैंतीस) वोट मिले जबकि 2017 में उसे 19281340 (एक करोड़ बानववे लाख इक्क्यासी हजार तीन सौ चालीस) मिले थे। इसका तात्पर्य यह हुआ कि 2017 की तुलना में 2022 में उसके वोटों में 7406203 (चौहत्तर लाख आठ हजार दो सौ तीन) वोटों की कमी आई। प्रश्न उठता है कि यह वोट किस पार्टी को गए होंगे? एक तथ्य जो सामने आया है वह यह है कि 2022 के उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में मुस्लिम समाज ने एकमुश्त संगठित होकर केवल और केवल समाजवादी पार्टी और रालोद के गठबंधन को वोट किया। इसका मतलब यह हुआ कि बहुजन समाज पार्टी के जितने भी मुस्लिम मतदाता थे उन्होंने सपा और रालोद के गठबंधन को अपना वोट शिफ्ट करा दिया। बहुत से रिजर्व सीट के अंदर दलितों को यह कहते सुना गया है कि क्योंकि बहुजन समाज पार्टी अकेले चुनाव लड़ रही है और रिजर्व सीट पर केवल और केवल दलित समाज भाजपा के विरुद्ध जीत नहीं पाएगा इसलिए वह इस बार सपा एवं रालोद के गठबंधन को सपोर्ट करेंगे। और इस कारण भी मुस्लिमों के साथ दलितों ने भी कई सीटों पर अपना वोट सपा और रालोद के गठबंधन को ट्रांसफर कर दिया। बसपा से छिटके और सपा से नाराज मुस्लिम समाज ने अपना वोट बसपा के बजाय एआईएमआईएम को भी दे दिया। क्योंकि साफ है कि एआईएमआईएम को इस चुनाव में गैर मुस्लिमों का वोट तो नहीं ही मिला होगा।
एक दूसरा प्रश्न उठता है कि ओबीसी और सवर्ण समाज का वोट बहुजन समाज पार्टी को क्यों नहीं मिला? इसका उत्तर भी साफ है कि जब मीडिया ने उत्तर प्रदेश में इस भ्रांति को फैला दिया कि मुकाबला केवल भारतीय जनता पार्टी एवं समाजवादी पार्टी में है तो उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो गया। मीडिया ने इतना अधिक प्रचार कर दिया कि जैसे अब सपा जितने ही वाली हैं क्योंकि मुस्लिम उसकी तरफ एकमुश्त होकर वोट कर रहे हैं। इससे प्रेरित होकर भाजपा की नीतियों से सहमति नहीं रखने वाले सवर्ण समाज एवं ओबीसी ने सोचा कि बसपा अब तो जीतने वाली है नहीं, इसलिए क्यों ना हम भाजपा को हराने के लिए सपा को ही वोट डाल दें। और इसलिए बहुजन समाज पार्टी का सवर्ण एवं ओबीसी वोट भी सपा को ट्रांसफर हो गया।
अब बसपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती है कि क्या 2024 में वह अपने खोए हुए आधार को प्राप्त कर सकती है या नहीं? बसपा का इन चुनौतियों से उबरना केवल दलित, ओबीसी, एवं अल्पसंख्यकों के लिए ही नहीं आवश्यक है बल्कि यह पूरे लोकतंत्र के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। याद कीजिए जब 2007 में उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की सरकार थी तो लोकसभा के चुनावों में कांग्रेस को 22 सीटें मिली थी और उसने केंद्र में सरकार बनाई थी। परंतु जब सपा की सरकार 2012 में आई तो 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने 74 सीटें प्राप्त कर केंद्र में सरकार बना ली, इसका मतलब यह हुआ कि बसपा की सरकार भाजपा की प्रगति की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है। जितनी जल्दी यह तथ्य समझ ले उतना ही अच्छा।
प्रो. (डॉ.) विवेक कुमार प्रख्यात समाजशास्त्री हैं। वर्तमान में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ सोशल साइंस (CSSS) विभाग के चेयरमैन हैं। विश्वविख्यात कोलंबिया युनिवर्सिटी में विजिटिंग प्रोफेसर रहे हैं। ‘दलित दस्तक’ के फाउंडर मेंबर हैं।
बहुजन समाज पार्टी को अपना बड़प्पन दिखाते हुए सभी बहुजन विचारधाराओं वाली पार्टियों को एकजुट करने का प्रयास करना चाहिए ताकि केन्द्र की सत्ता हासिल की जा सके।