प्रशांत कनौजिया की गिरफ्तारी के बाद जिस तरह से पत्रकारों के बीच फूट पड़ी है उसको ठीक से ऑब्जर्ब करने की जरूरत है. प्रेस क्लब के एक पदाधिकारी पत्रकार ने तो खुद को पूरे मामले से अलग कर लिया है. खबर है कि वो ‘सीएम साहेब’ के क्षेत्र से आते हैं और साहेब से उनका ‘करीबी’ रिश्ता है. एक वरिष्ठ पत्रकार ने तो प्रशांत का समर्थन करने वालों से ही 10 सवाल पूछ लिया है. ये भी कहा जा रहा है कि प्रशांत ने जो फेसबुक पर लिखा है, ऐसे लिखने वाले को पत्रकार नहीं कहना चाहिए. प्रशांत को एक विचारधारा से जुड़ा हुआ बताया जा रहा है और कहा जा रहा है कि प्रशांत जैसे लोग खुन्नस निकाल रहे हैं.
खास बात ये है कि उन्होंने ये सवाल पूछते हुए प्रशांत को बार-बार सिर्फ “कनौजिया” लिख कर संबोधित किया है. आखिर क्या वजह है कि वो वरिष्ठ पत्रकार प्रशांत को उसके सरनेम से संबोधित कर रहे हैं जो उसकी जातीय अस्मिता को भी बताता है. उनके लिखे पर जिन लोगों के कमेंट प्रशांत के खिलाफ आये हैं, उन सभी में एक “सामान्यता” है. आप उस ‘सामान्यता’ को समझ सकते हैं. हालांकि प्रशांत के समर्थन में काफी वरिष्ठ पत्रकार भी हैं, लेकिन ये घटना कई सवाल खड़ा करती है.
सवाल यह है कि क्या जो पत्रकार प्रशांत पर किसी खास ‘विचारधारा’ से जुड़ने का आरोप लगा रहे हैं क्या उनका किसी ‘विचारधारा’ से संबंध नहीं है? दूसरा सवाल, जिस तरह सोशल मीडिया का प्रभाव बढ़ा है और उसने सो कॉल्ड मेन स्ट्रीम मीडिया को चुनौती दिया है, उससे कई पत्रकार खुन्नस खाए हुए हैं. वो ये बात पचा नहीं पा रहे हैं कि कोई नया पत्रकार अपने बूते बिना किसी संस्थान की मदद के कैसे अपना मकाम बना रहे हैं और अपनी बात कह पा रहे हैं.
क्या भंवर मेघवंशी और एच.एल. दुसाध जैसे लोग जो लगातार लिख रहे हैं, वो पत्रकारिता नहीं है?
तीसरा सवाल, क्या ये मान लिया जाए कि जो लोग बड़े मीडिया संस्थानों में बैठे हुए हैं सिर्फ वही बेहतर कर रहे हैं, क्या उसी को मानक मान लिया जाये, और जो पत्रकार बिना किसी सत्ता और धनाढ्यों का सहारा लिए यूट्यूब या वेबसाइट के जरिये बड़ा काम कर रहे हैं क्या उनके लिखे-पढ़े को नकार देना चाहिए? आखिर यह कौन तय करेगा?
क्या वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश सर, आशुतोष जी, अभिसार शर्मा, दिलीप सी. मडंल या फिर पुण्य प्रसून वाजपेयी जब तक बड़े संस्थानों में थे और संपादक थे तो उनका लिखा ठीक था, लेकिन क्या जब वो यूट्यूब और वेबसाइट में लिख रहे हैं तो क्या वो “पत्रकारिता’ की कसौटी पर खरा नहीं है? भड़ास फ़ॉर मीडिया के संस्थापक यशवंत सिंह जब तक बड़े मीडिया संस्थानों में थे तो वो पत्रकार थे लेकिन जब वो एक अनोखा काम कर रहे हैं तो क्या अब उनको पत्रकार न माना जाए? जाहिर है कि ये सब बड़ा योगदान दे रहे हैं.
पत्रकारिता कंटेंट का खेल है, जिसने बेहतर लिखा है उसको पढ़ा ही जाएगा, चाहे वो किसी पत्र-पत्रिका में लिखे, किसी चैनल पर बोले या फिर वेबसाइट या यूट्यूब पर बोले और लिखे. ये हक सिर्फ पाठक का है कि वो किसको पढ़ना और देखना-सुनना चाहते हैं. पाठक ही ये तय करेगा कि कौन कैसा लिख रहा है. कोई “पत्रकार” सिर्फ अपने को और ‘अपने जैसों’ को ही पत्रकार माने और बाकी सबको नकार दे ये क्या बात हुई? प्रशांत एक पत्रकार है और उसको कमतर समझना सिर्फ अहम है और कुछ नहीं. अगर बड़े पत्रकारों ने पत्रकारिता को संभाला होता और इसकी गरिमा को बनाये रखा होता तो आज पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर इतना बड़ा संकट नहीं होता.
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विगत 17 सालों से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय अशोक दास अंबेडकरवादी पत्रकारिता का प्रमुख चेहरा हैं। उन्होंने साल 2012 में ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ की नींव रखी। वह दलित दस्तक के फाउंडर और संपादक हैं, जो कि मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यू-ट्यूब के जरिये वंचितों की आवाज को मजबूती देती है। उनके काम को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई में सराहा जा चुका है। वंचित समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं, जिनमें DW (जर्मनी) सहित The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspapers (जापान), The Week (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत), फारवर्ड प्रेस (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
अशोक दास दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में साल 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता (Investigative Journalism) के सबसे बड़े संगठन Global Investigative Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग में आयोजित कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है। वह साल 2023 में कनाडा में आयोजित इंटरनेशनल कांफ्रेंस में भी विशेष आमंत्रित अतिथि के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दुबई के अंबेडकरवादी संगठन भी उन्हें दुबई में आमंत्रित कर चुके हैं। 14 अक्टूबर 2023 को अमेरिका के वाशिंगटन डीसी के पास मैरीलैंड में बाबासाहेब की आदमकद प्रतिमा का अनावरण अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर नाम के संगठन द्वारा किया गया, इस आयोजन में भारत से एकमात्र अशोक दास को ही इसकी कवरेज के लिए आमंत्रित किया गया था। इस तरह अशोक, दलित दस्तक के काम को दुनिया भर में ले जाने में कामयाब रहे हैं। ‘आउटलुक’ मैगजीन अशोक दास का नाम वंचितों के लिए काम करने वाले भारत के 50 दलितों की सूची में शामिल कर चुकी है।
उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
अशोक दास एक लेखक भी हैं। उन्होंने 50 बहुजन नायक सहित उन्होंने तीन पुस्तकें लिखी है और दो पुस्तकों का संपादक किया है। ‘दास पब्लिकेशन’ नाम से वह प्रकाशन संस्थान भी चलाते हैं।
साल 2006 में भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC), दिल्ली से पत्रकारिता में डिप्लोमा लेने के बाद और दलित दस्तक की स्थापना से पहले अशोक दास लोकमत, अमर-उजाला, देशोन्नति और भड़ास4मीडिया जैसे प्रिंट और डिजिटल संस्थानों में आठ सालों तक काम कर चुके हैं। इस दौरान वह भारत की राजनीति, राजनीतिक दल और भारतीय संसद की रिपोर्टिंग कर चुके हैं। अशोक दास का उद्देश वंचित समाज के लिए एक दैनिक समाचार पत्र और 24 घंटे का एक न्यूज चैनल स्थापित करने का है।
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