भारत का दार्शनिक और नैतिक पतन आश्चर्यचकित करता है। भारतीय दर्शन के आदिपुरुषों को देखें तो लगता है कि उन्होंने ठीक वहीं से शुरुआत की थी जहां आधुनिक पश्चिमी दर्शन ने अपनी यात्रा समाप्त की है।
हालाँकि इसे पश्चिमी दर्शन की समाप्ति नहीं बल्कि अभी तक का शिखर कहना ज्यादा ठीक होगा। कपिल कणाद और पतंजली भी एक नास्तिक दर्शन की भाषा में आरंभ करते हैं, महावीर की परम्परा भी इश्वर को नकारती है।इन सबसे आगे निकलते हुए बुद्ध न सिर्फ इश्वर या ब्रह्म को बल्कि स्वयं आत्मा को भी निरस्त कर देते हैं। एक गहरे नास्तिक या निरीश्वरवादी वातावरण में भारत सैकड़ों साल तक प्रगति करता है। लेकिन वेदान्त के उभार के बाद भारत का जो पतन शुरू होता है तो आज तक थमने का नाम नहीं ले रहा है।
पश्चिम में आधुनिक समय में खासकर पुनर्जागरण के बाद जो दर्शन मजबूत हुए या शिखर पर पहुंचे हैं और जिन्होंने विज्ञान, तकनीक, लोकतंत्र आदी को संभव बनाया है वे भी ईश्वर और आत्मा को नकारते हैं। कपिल, कणाद और बुद्ध की तरह वे भी एक सृष्टिकर्ता और सृष्टि के कांसेप्ट को नकारते हैं और प्रकृति या सब्सटेंस को ही महत्व देते हैं। इसके बाद चेतना, रीजन और ”विल” को अपनी खोजों और विश्लेषण का आधार बनाते हैं।
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ये मजेदार बात है। भारत के प्राचीन दार्शनिकों ने जहां से शुरू किया था वहां आज का पश्चिमी दर्शन पहुँच रहा है। लेकिन भारत में उस तरह का विज्ञान और सभ्यता या नैतिकता नहीं पैदा हो सकी जो आज पश्चिम ने पैदा की है। ये एक भयानक और चकरा देने वाली सच्चाई है।
इसका एक ही कारण नजर आता है। प्राचीन भारतीय दार्शनिको की स्थापनाओं को सामाजिक और राजनीतिक आधार नहीं मिल पाया। उनकी शिक्षाओं को institutionalise नहीं किया जा सका, किसी संस्थागत ढाँचे में (सामाजिक या राजनीतिक) में नहीं बांधा जा सका। कुछ प्रयास हुए भी अशोक या चन्द्रगुप्त के काल में लेकिन वे भी ब्राह्मणी षड्यंत्रों की बलि चढ़ गये। कपिल, कणाद महावीर या बुद्ध से आ रहा एक ख़ास किस्म का भौतिकवाद और इस भौतिकवाद पर खड़ी नैतिकता भारतीय समाज और राजनीति का केंद्र नहीं बन पायी। बाद के आस्तिक दर्शनों और वेदान्त ने इश्वर-आत्मा-पुनर्जन्म की दलदल में दर्शन और समाज दोनों को घसीटकर बर्बाद कर दिया।
कपिल कणाद के बाद बुद्ध और महावीर की परम्पराओं में भी भीतर से ही परलोकवाद और वैराग्यवाद उभरता है और अपने ही स्त्रोत को जहरीला करके ब्राह्मणवादी पाखंड के आगे घुटने टेक देता है। फिर सुधार की रही सही संभावना भी खत्म हो जाती है। इसीलिये आश्चर्य की बात नहीं कि ओशो रजनीश जैसे धूर्त बाबा अपने परलोक और पुनर्जन्मवादी षड्यंत्र को बुनते हुए बुद्ध और महावीर सहित कबीर को भी अपनी चर्चाओं में बड़ा उंचा मुकाम देते हैं। इन्हें अपनी प्रेरणाओं का स्त्रोत बताते हुए इनके मुंह में फिर से वेद वेदान्त का जहर ठूंसते जाते हैं और सिद्ध करते जाते हैं कि बुद्ध महावीर कपिल कणाद कबीर आदि सब इश्वर आत्मा और पुनर्जन्म को मानते थे।
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गौर से देखें तो पश्चिमी देशों में प्राचीन शास्त्रों और प्राचीन दर्शन के साथ ऐसी गहरी चालबाजी करने की कोई परंपरा नहीं है। वहां हर दार्शनिक अपनी नयी बात लेकर आता है। दयानन्द,अरबिंदो या विवेकानन्द या राधाकृष्णन, गांधी या महाधूर्त ओशो की तरह वे वेद-वेदान्त से समर्थन नहीं मांगते बल्कि पश्चिमी दार्शनिक अपने से पुराने दार्शनिकों को कड़ी टक्कर देते हुए आगे बढ़ते हैं। भारत के ओशो रजनीश और अरबिंदो घोष जैसे पोंगा पंडित इसी काम में लगे रहते हैं कि उनका दर्शन किसी तरह वेद वेदान्त या अन्य प्राचीन शास्त्रों से अनिवार्य रूप से जुड़ जाए।
इस एक विवशता के कारण उनका जोर स्वयं दर्शन या समाज को बदलने पर नहीं होता बल्कि समाज के मनोविज्ञान और उपलब्ध या ज्ञात इतिहास को मनचाहे ढंग से बदलने पर होता है। यही इस देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। इसी कारण भारतीय दार्शनिक कितनी भी ऊँची उड़ान भर लें, वे प्राचीन ग्रंथों से अपने लिए समर्थन मांगने की विवशता के कारण समाज की रोजमर्रा की नैतिकता और जीवन की व्यवस्था को बदलने की कोई बात नहीं करते, वहां वे बहुत सावधान रहते हैं।
उधर पश्चिम में कोई भी दर्शन हो वो तुरंत समाज और जीवन का हिस्सा बन जाता है। आधुनिक काल में जन्मा भौतिकवादी दर्शन वहां समाज, शिक्षा, राजनीति, विज्ञान, साहित्य आदि में तुरंत ट्रांसलेट होता है और इस दर्शन को सुरक्षित गर्भ देकर विकसित होने के लिए सामाजिक राजनीतिक वातावरण बनाता है। डार्विन, फ्रायड और मार्क्स के आते ही पश्चिमी दुनिया बदल जाती है, उनके सोचने का ढंग उनकी जीवनशैली, उनकी राजनीति, व्यापार सब बदल जाता है।
इधर भारत में कोई भी आ जाए, कुछ नहीं बदलता, एक सनातन पाषाण सी स्थिति है औंधे घड़े पे कितना भी पानी डालो, भरता ही नहीं। भारत में दर्शन सिर्फ खोपड़ी में या शास्त्रों में रहता है। वो समाज की रोजमर्रा की जीवन शैली को बदलने में बिलकुल असमर्थ रहता है।
भारत में दार्शनिक उड़ान एक भांग के नशे जैसी स्थिति है, उस नशे की उड़ान में कल्पनालोक में या शास्त्रार्थ के दौरान आप जमीन आसमान एक कर सकते हैं लेकिन सामाजिक नियम और सामाजिक नैतिकता में रत्ती भर का बदलाव नहीं आने दिया जाता, यहाँ पंडितों के रोजगार को सुरक्षित रखने के लिए कर्मकांडीय नैतिकता का जो जाल बुना गया है वो असल में दार्शनिक नैतिकता के उभार की संभावना की ह्त्या करने के लिए ही बुना गया है। इसीलिये भारत में दर्शन या विचार के क्षेत्र में भी कोई बदलाव हो जाए, लेकिन समाज में मौलिक रूप से कोई बदलाव नहीं होता।
ये बदलाव रोकने के लिए ही भारत में शिक्षा, विवाह, राजनीति, व्यापार आदि को एक लोहे के ढाँचे में बांधा गया है। यही लोहे का ढांचा वर्ण, आश्रम और जाति के नाम से जाना जाता है। पश्चिम में ये ढांचा नहीं था, ये लोहे की दीवारें नहीं थीं। इसलिए वहां के भौतिकवादी दार्शनिकों ने पांच सौ साल में वो कर दिखाया जो भारत में हजारों साल तक नहीं हुआ। जिस तरह से परलोकवादी बाबाओं का बुखार छाया हुआ है उसे देखकर लगता है कि आगे भी होने की कोई उम्मीद नहीं है।
भारतीय समाज के कर्मकांड और इनसे जुडी परलोकवादी धारणाएं जब तक चलती रहेंगी भारत में सभ्यता और नैतिकता की संभावना ऐसे ही क्षीण होती रहेंगी।
संजय श्रमण गंभीर लेखक, विचारक और स्कॉलर हैं। वह IDS, University of Sussex U.K. से डेवलपमेंट स्टडी में एम.ए कर चुके हैं। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस (TISS) मुंबई से पीएच.डी हैं।