आप उस दर्द को महसूस करिए जब एक खास राजपूत समुदाय के कई लोगों ने तकरीबन 15 साल की एक लड़की के साथ बलात्कार किया होगा. इस तरह के दर्द और जलालत को झेलने के बाद आप क्या करते, शायद वही जो फूलन देवी ने किया. उन्होंने लाइन में खड़ा कर 22 ठाकुरों को गोलियों से भून डाला. हालांकि फूलन देवी ने इस घटना को कभी स्वीकार नहीं किया.
फूलन देवी का जन्म 10 अगस्त 1963 को उत्तर प्रदेश के जालौन जिले के एक छोटे से गांव गोरहा का पूर्वा में निषाद (मल्लाह) जाति के देवीदीन और मूला देवी के घर हुआ. जब फूलन 11 साल की हुई, आर्थिक तंगी की वजह से उसकी शादी उससे उम्र में कई साल बड़े एक आदमी से करवा दी गई. आप यह जानकर हैरान रह जाएंगे कि यह शादी एक गाय के बदले कर दी गई. अपने पति के रवैये से तंग आकर फूलन ने पति का घर छोड़ दिया और वापस मां-बाप के पास आकर रहने लगी. मायके आने पर घऱवालों ने भी उनका साथ नहीं दिया. हालात ऐसे बने कि गांव के ठाकुरों की नजर अकेली फूलन को देखकर खराब होने लगी. जब फूलन तकरीबन पंद्रह साल की थी तो ठाकुरों के एक गैंग ने फूलन देवी को जबरन उठा लिया और दो हफ्ते तक बारी-बारी से उसका बलात्कार करते रहे. इस अपमान और पीड़ा से गुजरी फूलन ने इस अपमान का बदला लेने की खातिर समाज से विद्रोह करते हुए बीहड़ की तरफ चली गई. बीहड़ में बागियों से जुड़ने के बाद फूलन ने धीरे-धीरे खुद का एक गिरोह बना लिया. सन् 1980 के दशक में वह चंबल के बीहड़ों मे सबसे खतरनाक डाकू मानी जाती थी. सन् 1981 में वह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों में तब आई, जब उसने ऊंची जातियों के बाइस लोगों को एक साथ गोली मार दी. फूलन देवी की छवि राबिनहुड की थी. उन्हें गरीबों का पैरोकार माना जाता था.
उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बीहड़ों में सक्रिय फूलन देवी को पकड़ने के लिए इन दोनों जगहों की सरकार और प्रतिद्वंदी गिरोहों ने बहुत कोशिश की लेकिन वो सफल नहीं हो सके. इस बीच फूलन का नजदीकी साथी विक्रम मल्लाह मारा गया; जिसके बाद फूलन कमजोर पड़ने लगी. फूलन भी भागते भागते बीहड़ की जिंदगी से ऊबने लगी. हालांकि उनको डर था कि आत्मसमर्पण करने की स्थिति में पुलिस उनको और उनके साथियों को कहीं मार न दे और उनके परिवार के लोगों और समर्थकों को नुकसान ना पहुंचाए. कांग्रेस की सरकार में उन्होंने मध्य प्रदेश के तात्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह की उपस्थिति में 12 फरवरी 1983 को इस समझौते के तहत अपने दर्जन भर समर्थकों के साथ आत्म समर्पण कर दिया कि उनको मृत्यु दंड नहीं दिया जाएगा. उनके आत्म समर्पण के समय उनके हजारों समर्थक मौजूद थे. जेल में रहते हुए ही फूलन देवी ने बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा लेकिन हार गई. बिना मुकदमा चलाए फूलन देवी ने 11 साल तक जेल में बिताया. सन् 1994 में मुलायम सिंह यादव की सरकार ने उन्हें जेल से रिहा कर दिया. उन पर ‘बैंडीट क्वीन’ नाम से एक फिल्म भी बनी, जिसने उन्हें काफी प्रसिद्धी सहानुभूति दिलाई.
अपनी रिहाई के बाद फूलन देवी ने धम्म का रास्ता अपनाते हुए बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया. उन्होंने एकलव्य सेना का भी गठऩ किया. उन्होंने राजनीति की राह ली और उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर से सांसद चुनी गईं. वह दो बार सांसद रही. सन् 2001 में केवल 38 साल की उम्र में दिल्ली में सरकारी आवास के बाहर ही 25 जुलाई 2001 को फूलन देवी की हत्या कर दी गई. फूलन देवी के हत्यारे ने इस हत्या को ठाकुरों की सामूहिक हत्या का बदला कहा.
फूलन देवी के जीवन संघर्ष को विदेशों में भी सलाम किया गया. ब्रिटेन में आउटलॉ नाम की एक किताब प्रकाशित हुई है जिसमें उनके जीवन के कई पहलुओं पर चर्चा की गई है. फूलन देवी को मिली जेल की सजा के बारे में पढ़ने के बाद लेखक रॉय मॉक्सहैम ने 1992 में उनसे पत्राचार शुरू किया. जब फूलन देवी ने उनके पत्र का जवाब दिया तो रॉय मॉक्सहैम भारत आए और उन्हें फूलन देवी को करीब से जानने का मौका मिला. बीबीसी के साथ बातचीत में लेखक रॉय ने फूलन देवी के साथ अपनी दोस्ती को याद करते हुए कहा था कि उन्होंने जिंदगी में बहुत कुछ सहा, लेकिन इसके बावजूद फूलन देवी बहुत हंसमुख थी. वे हमेशा हंसती रहती थी, मजाक करती रहती थीं. हालांकि उन्होंने अपना बचपन गरीबी में गुजारा. मुझे लगता है कि वे गलत न्यायिक प्रक्रिया का शिकार हुई. उन्हें नौ साल जेल में बिताने पड़े. लेखक रॉय मॉक्सहैम का यह भी कहना है कि जेल से रिहा होने के बाद जब फूलन देवी सांसद बन गई तो उनमें अन्य नेताओं वाले कोई नाज नखरे नहीं थे. एक बार मैं उनके घर गया तो वे अपना फ्लैट खुद साफ कर रही थीं क्योंकि उन्होंने नौकर रखने से इनकार कर दिया था. वे कहते हैं कि इस बात में कोई शक नहीं कि फूलन देवी एक हीरो थीं.
सन् 2011 में प्रतिष्ठित टाइम मैगजीन ने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर प्रकाशित अपने अंक में फूलन देवी को इतिहास की 16 सबसे विद्रोही महिलाओं की सूची में चौथे नंबर पर रखा. इस अंक में टाइम मैगजीन ने फूलन देवी के बारे में लिखा कि उन्हें भारतीय गरीबों के संघर्ष को आवाज देने वाले के रूप में याद किया जाएगा.
विगत 17 सालों से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय अशोक दास अंबेडकरवादी पत्रकारिता का प्रमुख चेहरा हैं। उन्होंने साल 2012 में ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ की नींव रखी। वह दलित दस्तक के फाउंडर और संपादक हैं, जो कि मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यू-ट्यूब के जरिये वंचितों की आवाज को मजबूती देती है। उनके काम को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई में सराहा जा चुका है। वंचित समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं, जिनमें DW (जर्मनी) सहित The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspapers (जापान), The Week (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत), फारवर्ड प्रेस (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
अशोक दास दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में साल 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता (Investigative Journalism) के सबसे बड़े संगठन Global Investigative Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग में आयोजित कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है। वह साल 2023 में कनाडा में आयोजित इंटरनेशनल कांफ्रेंस में भी विशेष आमंत्रित अतिथि के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दुबई के अंबेडकरवादी संगठन भी उन्हें दुबई में आमंत्रित कर चुके हैं। 14 अक्टूबर 2023 को अमेरिका के वाशिंगटन डीसी के पास मैरीलैंड में बाबासाहेब की आदमकद प्रतिमा का अनावरण अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर नाम के संगठन द्वारा किया गया, इस आयोजन में भारत से एकमात्र अशोक दास को ही इसकी कवरेज के लिए आमंत्रित किया गया था। इस तरह अशोक, दलित दस्तक के काम को दुनिया भर में ले जाने में कामयाब रहे हैं। ‘आउटलुक’ मैगजीन अशोक दास का नाम वंचितों के लिए काम करने वाले भारत के 50 दलितों की सूची में शामिल कर चुकी है।
उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
अशोक दास एक लेखक भी हैं। उन्होंने 50 बहुजन नायक सहित उन्होंने तीन पुस्तकें लिखी है और दो पुस्तकों का संपादक किया है। ‘दास पब्लिकेशन’ नाम से वह प्रकाशन संस्थान भी चलाते हैं।
साल 2006 में भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC), दिल्ली से पत्रकारिता में डिप्लोमा लेने के बाद और दलित दस्तक की स्थापना से पहले अशोक दास लोकमत, अमर-उजाला, देशोन्नति और भड़ास4मीडिया जैसे प्रिंट और डिजिटल संस्थानों में आठ सालों तक काम कर चुके हैं। इस दौरान वह भारत की राजनीति, राजनीतिक दल और भारतीय संसद की रिपोर्टिंग कर चुके हैं। अशोक दास का उद्देश वंचित समाज के लिए एक दैनिक समाचार पत्र और 24 घंटे का एक न्यूज चैनल स्थापित करने का है।