अगर ब्राह्मण को यहाँ पर खिलाया हुआ भोजन पितरों को पितृ लोक में पहुँच सकता है तो फिर एक यात्री को लम्बी यात्रा पर चलने से एक दिन पहले ब्राह्मण को बुला उतने दिनों का भोजन ठूंस ठूंस कर खिला देना चाहिए जितने दिन उसे यात्रा में लगने हैं। फिर उसे अपने साथ कोई भी राशन आदि लेकर चलने की ज़रुरत नहीं रहेगी।.. पढ़िए पितृ पक्ष के बारे में क्या कहते थे चार्वाक…
आज से पितृ पक्ष शुरू हो गया है। हिन्दू धर्म के मुताबिक इसमें पितरों यानी पूर्वजों के लिए पिंड दान किया जाता है। पितृ पक्ष के पीछे एक पौराणिक कथा है जो महाभारत में है। इस के अनुसार कर्ण जिसे महादानी कहा जाता है, के मरने पर जब उसकी आत्मा मृत्युलोक में पहुंची तो उसे वहां पर बहुत सा सोना चांदी तो मिला परन्तु कोई भोजन नहीं मिला। इसका कारण यह था कि कर्ण बहुत दानी था और उसने बहुत सोना चांदी तो दान में दिया था परन्तु कभी भी भोजनदान नहीं किया था।
कथा के अनुसार उसने मृत्यु लोक के देवता यमराज से इसका कोई हल निकालने की प्रार्थना की। यमराज की कृपा से कर्ण इस पक्ष में पृथ्वी पर वापस आया। उसने भूखे लोगों को भोजन दान किया और फिर वापस पितृ लोक चला गया जहाँ उसका स्थान था। अतः अन्न दान या भोजन दान इस अनुष्ठान का मुख्य हिस्सा होता है।
हिन्दू लोग इन दिनों में कठोर अनुशासन और अनुष्ठान करते हैं। इस पक्ष में लोग दाढ़ी नहीं बनाते और कोई आमोद प्रमोद नहीं करते। इस पक्ष में कोई खरीददारी नहीं की जाती और कोई धंधा शुरू नहीं किया जाता है। इसमें ब्राह्मणों को भोजन दान किया जाता है। इसके पीछे यह भी विश्वास है कि पृथ्वी पर किया गया भोजन दान पितरों तक पहुंचता है और उन की तृप्ति होती है।
ऐसा विश्वास है इस पक्ष में किये गए अनुष्ठान से पूर्वजों की बिछड़ी हुयी आत्माओं को शांति मिलती है। इस के बदले में वे पिंडदान करने वालों को आशीर्वाद देती हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि जिन पितरों के लिए पिंडदान या श्राद्ध नहीं किया जाता उन्हें मृत्यु लोक में ठौर नहीं मिलता या उनकी गति नहीं होती और वे पृथ्वी पर इधर उधर भटकती रहती हैं। इस पक्ष में अपनों की बिछड़ी हुयी आत्माओं को याद किया जाता है और उनके लिए प्रार्थना की जाती है। इसीलिए इस पक्ष में कड़े अनुष्ठान और कर्म कांड का अनुपालन किया जाता है।
श्राद्ध और पिंडदान के बारे में शुरू से ही बहुत अलग अलग विचार रहे हैं। कुछ लोग इसे पितरों की तृप्ति के लिए आवश्यक मानते हैं और कुछ इसे ब्राह्मणों द्वारा खाने पीने का बहाना मात्र। इस सम्बन्ध में चार्वाक जो कि अनात्मवादी थे, द्वारा की गयी आलोचना बहुत सशक्त है। चार्वाक जिसे ब्राह्मणों ने भोगवादी कह कर निन्दित किया था ने कहा है:
“मरने के बाद सब कुछ ख़त्म हो जाता है और कुछ भी शेष नहीं बचता। पिंडदान और श्राद्ध ब्राह्मणों द्वारा खाने पीने का बनाया गया ढकोसला है।” चार्वाक ने आगे कहा,” अगर ब्राह्मण को यहाँ पर खिलाया हुआ भोजन पितरों को पितृ लोक में पहुँच सकता है तो फिर एक यात्री को लम्बी यात्रा पर चलने से एक दिन पहले ब्राह्मण को बुला उतने दिनों का भोजन ठूंस ठूंस कर खिला देना चाहिए जितने दिन उसे यात्रा में लगने हैं। फिर उसे अपने साथ कोई भी राशन आदि लेकर चलने की ज़रुरत नहीं रहेगी। रास्ते में जब उसे भूख लगे तो उस ब्राह्मण को याद कर ले जिससे उस को खिलाया गया भोजन उस यात्री के पेट में स्वतः आ जायेगा।”
यह ज्ञातव्य है कि प्राचीन काल में सभी यात्राएं पैदल ही होती थीं और लोग अपना राशन पानी सर पर लेकर चलते थे और रास्ते में रुक कर अपना भोजन खुद बनाते थे क्योंकि दूसरों के हाथ का बना भोजन खाने से ‘जात’ (जाति) जाने का डर रहता था। नेपाल में तो जहाँ तक था कि अगर किसी उच्च जाति हिन्दू को बाहर जाकर अपनी जात से नीची जात वाले के हाथ का भोजन खाना पड़ जाये तो उस की जात चली जाती थी और वह अपने घर सीधा नहीं जा सकता था क्योंकि उसकी पत्नी उसे चौके में नहीं चढ़ने देती थी। इसलिए उसे घर जाने से पहले पुलिस के पास जाना पड़ता था और वहां पर जात जाने के कारण अर्थ दंड जमा करना पड़ता था और उस का प्रमाण पत्र लेकर ही वह अपने घर में जा सकता था।
अब जहाँ तक अपने पूर्वजों को याद करने की बात है इस में कुछ भी आपतिजनक नहीं है परन्तु पितरों के नाम पर केवल ब्राह्मणों को ही खिलाना बहुत अर्थपूर्ण नहीं लगता। हाँ, अगर उन लोगों को खिलाया जाये जो भूखे नंगे हैं और अपना जीवनयापन खुद नहीं कर सकते हैं तो यह कल्याणकारी है। बुद्ध ने दान को बहुत महत्व दिया है क्योंकि संसार में बहुत से ऐसे लोग होते हैं जो अपनी आजीवका खुद नहीं कमा सकते। अतः जो सक्षम हैं उन्हें अपनी कमाई में से उन लोगों के लिए मानवीय आधार पर दान अवश्य देना चाहिए। दान के सम्बन्ध में बुद्ध ने आगे स्पष्ट किया है कि दान केवल सुपात्र को देना चाहिए कुपात्र को नहीं अर्थात दान उसे ही देना चाहिए जिसे उसकी ज़रुरत है। परन्तु देखा गया है कि अधिकतर दान अंध श्रद्धावश कुपात्रों को दिया जाता है सुपात्रों को नहीं। यह दान की मूल भावना के विपरीत है। क्या श्राद्ध और पिंडदान में कुछ ऐसा ही तो नहीं है?