वर्तमान की परत खोलती कविताएं…

1179

दुख-सुख, आचार-विचार, चेतन-अचेतन अवस्था ही नहीं, मुक्तावस्था भी कविता को जन्म देती है. अनुभूतियों का वह स्तर जहाँ पहुँचकर मानव स्वयं को भूल जाता है और अपनी निजता को लोक-सत्ता में लीन किए रहता है या फिर सत्ता और सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध खड़ा हो जाता है, वहाँ विचारवान मानव जैसे कवि हो जाता है. संकुचन समाप्त प्राय: हो जाता है. फिर जैसा मन, वैसी कविता. व्यक्ति यदि मानसिक रूप से धार्मिक है तो धार्मिक कविता, राजनीतिक है तो राजनीतिक कविता, किसी का प्रेमी है तो प्रेमान्ध कविता, उत्पीड़ित है तो प्रताड़ना के खिलाफ चीखती-चिल्लाती अर्थात देश, काल और परिस्थिति कविता को सदैव प्रभावित करती है.

सड़क-चौराहों तक
हिन्दू-मुसलमान
के लबादे में लिपटी सियासी गर्मी
कब बाज आती है
अपनी बेशर्मी से
जमकर कवायद करती है
सियासी मुनाफा कमाने की.

इस प्रकार की कविता करना किसी जीवट व्यक्तित्व का ही काम हो सकता है, वरना तो आज की सियासत के चलते किसी की भी पूंछ सीधी नहीं हो पा रही हैं. इसलिए यह कहना कि जिस कविता में समाज के सरोकार प्रकट होते हैं, वह कविता आमजन की कविता बन जाती है…. ईश कुमार गंगानिया जी के कविताओं में अक्सर ये गुण देखने को मिलते हैं. जाहिर सी बात है कि लोकतंत्र के वर्तमान रूप – स्वरूप को यदि ऐसे का ऐसे ही झेलते रहे तो देश के शहरों का तो पता नहीं क्या होगा, किंतु ग्रामीण तबकों से उठने वाला धुआँ कभी थमने वाला नहीं लग रहा. मुझे ईश कुमार गंगानिया जी के कविताओं में अक्सर वह ज़मीन दिखाई देती है जहाँ कोई व्यक्ति सच कह सकता है. पुनर्निमाण की प्रक्रिया अपने चर्म पर है. ऐसे में मुझे उनकी ‘बदलाव की बात करें तो’ शीर्षांकित कविता की अधोलिखित पंकितियां उद्धृत करने का मन हो रहा है…. यथा

‘बदलाव की बात करें तो
राम-रहीम
मंदिर-मस्जिद और
शिवाले वैसे ही नजर आते हैं
जैसे हुआ करते थे पहले भी
बदलाव की बात करें अगर
तो बस ये सियासी चौसर के
पालतू पियादे हो गए हैं.‘

कविता लिखना औरों के साथ कुछ बांटने, अकेलेपन के एहसास को ख़त्म करने, अत्याचार और अन्याय के खिलाफत की एक अहम प्रक्रिया है, किंतु समाज और राजनीति के सरोकारों पर बात करना भी कविता का काम है, इसे नकारा नहीं जा सकता, विगत इसका प्रमाण है. कविता यदि समीचीन है और समय के साथ सफर तय करती है तो इसे काव्य प्रवृति की सघन प्रवृत्ति कहा जा सकता है. देश, काल और परिस्थिति को भुला कर कविता करने भ्रम पालना जैसे अन्धे कुए में झांकर कोई ऐसा प्रतिबिम्ब देखना है जो वास्तव में है ही नहीं. ईश कुमार इस भ्रम को नही पालते…… ‘मेरी मर्जी’ शीर्षांकित की अधोलिखित पंक्तियां, इस ओर इशारा करती हैं…

‘मैं ही स्वतयंभु,
मैं ही संप्रभु
मैं ही रिंगमास्ट‍र
लोकतंत्र के अखाड़े का
मेरी ही लगेगी मुहर
देशभक्ति और
देशद्रोही के पिछवाड़े
कौन रहेगा देश, और
कौन जाएगा सीमा पार
तय करना मेरा है अधिकार
लोकतंत्र के तोते उड़ाऊं
या उड़ाऊं कबूतर,
मेरी मर्जी…’

ईश कुमार जी की कविताएं अपने समय की विसंगति, विडम्बना और तनाव से जुड़े सवालों को बखूभी इठाती हैं. यूँ तो हिन्दी साहित्य पर हिन्दी साहित्य पर विष्लेषण और चिन्ता किये जाने की स्थिति कमतर होती जा रही है किंतु ईश कुमार इस आपत्ति के दायरे से परे के कवि हैं. इतना ही नहीं, उनकी कविताएं सत्ता का प्रतिपक्ष प्रस्तुत करने में काफी हद तक सामर्थ्यवान हैं. ‘तानाशाही का आगाज’ नामक कविता समसामयिक राजनीति के चरित्र का खुलासा करने का उपक्रम करती है…यथा

‘लगता है देश में तानाशाही का आगाज लोकतंत्र का
दरवाजा खटखटा रहा है मेरे चहेते गुलाब
न जाने क्यूं
गुलाब
कहीं खो गए हैं और
कांटे ही कांटे
बचे रह गए हैं मेरे
निजी संबंधों की तरह.‘

कहना अतिशयोक्ति नहीं कि आज का दौर कई मायनों में कठिन व पेचीदा दौर है. लोकतांत्रिक अवधारणा के विपरीत पूँजी और शक्ति के केन्द्रीकरण के कारण निरंकुश तानाशाही की ओर बढ़ती साम्राज्यवादी सत्ता ने दमन का रास्ता अपना लिया है, ऐसा लगता है. सत्ता के इस निरंकुश मार्ग से जनता भी अछूती नहीं रह गई है. कवि ईश कुमार अपनी अधोलिखित कविता ‘स्लोगन बनाने की कला’ में यही संदेश देते नजर आते हैं

‘मध्यवम वर्गीय इंसान ने
आजकल जैसे
आदर्शो और इंसानी
मूल्यों का मोह ही
त्याग दिया है और
बनकर रह गया है वह भी
खुराफातों का बाजार.‘

आज के खुरापाती दौर के चलते आखिर कोई रचनाकार करे भी तो क्या? इतिहास गवाह है कि ऐसे समय में एक रचनाकार अपनी रचनाओं के माध्यकम से केवल और केवल सार्थक हस्तमक्षेप करने के अलावा कुछ और नहीं कर पाता. आज के दौर में भी समकालीन कविता की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है, उसमें आज का समय परिलक्षित हो, यह जरूरी है. उनकी हर कविता इस भाव को परिलक्षित करती है. ईश कुमार जी ने कुछ ग़ज़लें कहने का भी प्रयास किया है किंतु उनकी ग़ज़लें उनकी कविताओं के सामने बौनी नजर आती हैं. हाँ! उनसे इतनी आस जरूर बनती है कि आने वाले समय में वो ग़ज़लों को भी उम्दा धरातल देने में सफल होंगे. सारांशत: उनकी कविताएं वर्तमान की परतें निकोलने में अग्रणीय हैं. ऐसे में पुस्तक की सफलता की कामना की जा सकती है. पुस्तक पठनीय और संग्रहणीय है.

समीक्षक – तेजपाल सिंह ‘तेज’
कौन जाएगा पाकिस्तान (कविताएं)
कवि : ईश कुमार गंगानिया
प्रकाशक : पराग बुक्स (9911379368)

Read it also-दुबई (यु. ए. इ.) यात्रा : एक अनुभव

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.