बिहार की राजधानी पटना में 3 अगस्त, 2016 को अपने हक-हकूक के लिए सड़क पर आवाज बुलंद करने उतरे दलित छात्रों पर पुलिसिया दमन की बर्बर कार्रवाई दुखद है क्योंकि दलितों का वोट सभी लेना चाहते हैं लेकिन उनको बराबरी का हक कोई भी वाकई दिल से नहीं देना चाहता.जेडीयू- बीजेपी की कमंडल समर्थक ‘विकास के साथ न्याय’ वाली सरकार में अनेकों बार शिक्षकों- छात्रों- दलितों के खिलाफ पुलिस की यही नीति थी और अब जेडीयू- आरजेडी की ‘सामाजिक न्याय’ की मंडलवादी सरकार में भी पुलिस की यही नीति है जो अफसोस की बात है. खास बात की धरना- प्रदर्शन के दौरान पुलिस-प्रशासन के द्वारा की गई इस प्रकार की बर्बर कार्रवाई हमेशा समाज के वंचित-शोषित और हाशिये के संघर्षरत लोगों के खिलाफ ही रही है.
ऐसी घटनाओं से कई बातें साफ होती है. पहला, सरकार बदलने से पुलिस- प्रशासन का असंवेदनशील रवैया और कामकाज के तौर-तरीके नहीं बदलते है. दूसरा, सरकार में आने के बाद राजनीतिक दलों- नेताओं का रवैया असंवेदनशील हो जाता है. संख्या बल के आधार पर या फिर राजनीतिक दलों की मजबूरी में कई बार दलित-आदिवासी-ओबीसी समाज के हाथ नेतृत्व की कमान आ जाती है लेकिन सत्ता संचालन के केंद्रों व सहयोगी तंत्रों में समुचित बहुजन भागीदारी का न होना भी बदलाव की प्रतिगामी शक्तियों को आक्रमक बना देती है. इस कारण नीति बनाने, उसे लागू करने व जन-जन तक पहुँचाने में कहीं भी सरकार के नेतृत्वकर्ता की सोच काम नहीं करती है. यानि सरकार की कमान चाहे किसी बहुजन के हाथ में भले ही हो एक सवर्णवादी शासन व्यवस्था उसके समानांतर पुलिस-प्रशासन के माध्यम से चलने लगती है। इस कारण बहुजन नेता समय के अंतराल में मनोवैज्ञानिक तौर पर टूटकर- मजबूर होकर ऐसे निर्णय लेने लगते हैं जो उनके राजनीतिक सोच व विचारधारा से परे हो।
पुलिस की बर्बरता का यह ताजा मामला तो शिक्षा में भागीदारी के सवाल पर स्कॉलरशिप की माँग से जुड़ा था जिसपर दलित छात्र प्रदर्शन कर रहे थे. सरकार के लोगों को जबकि उसके शिक्षामंत्री अशोक चौधरी दलित ही हैं, उनकी बात सुनकर संज्ञान लेना चाहिये था क्योंकि यह प्रदर्शन आकस्मिक नहीं था बल्कि पूर्व घोषित- सूचित था. अगर एससी छात्रों के स्कॉलरशिप में गड़बड़ी, कोताही या कमी थी तो शिक्षामंत्री इसपर जन संवाद या प्रेस कॉन्फ्रेंस करके सरकार की स्थिति खुलकर स्पष्ट कर सकते थे. केन्द्र सरकार ने दलित- आदिवासी समाज के छात्रों के लिये दी जाने वाली राजीव गाँधी फेलोशिप इसलिये खत्म कर दी क्योंकि उसके पास महज 85 करोड़ रूपये सलाना का जुगाड़ नहीं था. उसी तर्ज पर बिहार में भी स्कॉलरशिप से समाज के वंचित समूह के छात्र वंचित है. अब सरकारें बहुजन छात्रों की शिक्षा के सवाल पर भी समय से राशि मुहैया नहीं करा पायें तो वाकई चिंता की बात है. दलितों को तो स्कॉलरशिप मिल भी नहीं रही है और उपर से पिटाई भी हो रही है. वहीं पिछड़ा- अति पिछड़ा को भी स्कॉलरशिप तो दूर उनकी बात- आवाज न कोई उठा रहा है, न ही ये लोग सड़क पर उतरने को तैयार है बल्कि मंडलवादी सरकार के मायाजाल में मंत्रमुग्ध होकर लालू-नीतीश के भजन गा रहे हैं. वैसे बिहार में स्कूल-कॉलेज के शिक्षकों को भी हर महीने का रेगुलर वेतन नहीं मिल पाता है. बिहार में स्कूल-कॉलेज- विश्वविद्यालय स्तर के लगभग सभी शिक्षण संस्थान सवर्ण मठाधीशी के केन्द्र बने पड़े हैं जहां बहुजन छात्रों को न तो ज्ञान व बौद्धिकता का सहारा मिल रहा है न ही संगठन व संघर्ष के रास्ते पर चलने के लिये कोई वैचारिक मार्गदर्शन या प्रेरणा. जाहिर है कि बहुजन अपनी सरकार में मार खाने को बाध्य हैं.
पुलिस- प्रशासन को इस तरह के विरोध प्रदर्शन में थोड़ा संयम से काम लेना चाहिए था लेकिन कालांतर में अंग्रेज जमाने से लेकर अबतक विरोध प्रदर्शनों को पुलिस एक सेट पैटर्न अंदाज में निपटाती है. प्रदर्शन के दौरान बैरिकेडिंग, वाटर कैनन या अन्य ऐहतियातन तैयारी तो दूर लाठी मारकर सर फोड़ देना, पैर तोड़ देना और दम फुलने लगे तो गोली चला देने पर उतर जाना एक सामान्य सी बात हो गई है. जबकि खुफिया और अन्य तंत्रों के इस्तेमाल से लोकतांत्रिक प्रक्रिया को प्रशासन-पुलिस चाहे तो मजबूत करने में मदद कर सकती हैं. इससे पुलिसिंग के तकनीकी ट्रेनिंग पर सवाल तो उठता ही है उनके सामाजिक- मनोवैज्ञानिक तौर पर वंचित समाज के प्रति असंवेदनशील रूख का अंदाजा लगता है. विभिन्न राज्य सरकारें और उनके मुखिया लोग भी विभिन्न छात्र-युवा, जाति-समुदाय के सामाजिक संगठनों से लगातार संवाद व सरोकार की परंपरा शुरू करें तो बेहतर हो कि सभी जाति-वर्ग- समाज के लोगों के सवाल गवर्नेंस का मुद्दा बने लेकिन प्रैक्टिकली ऐसा नहीं होता दिखता है. यानि की मामला सरकार की बातों को जनता में कम्युनिकेट करने की अक्षमता और जनता से सीधे सरकार द्वारा फीडबैक प्राप्त न कर सत्ता परस्त प्रशासनिक बिचौलियों के माध्यम से जन-भावना को जानने से भी जुड़ा है.
भारत भर में दलितों के खिलाफ प्रताड़ना-दमन-हिंसा की घटनायें बढ़ी है. कई लोग इस तरह के दमन के मामले पर बिहार या अन्य राज्य सरकारों के खिलाफ राजनीतिक बयानबाजी करने में लगे हैं. गुजरात में विपक्ष में कांग्रेस है वहीं बिहार में बीजेपी विपक्ष है, तो जाहिर सी बात है कि दोनों आचार-व्यवहार में घोर सामंती मानसिकता वाली सामाजिक न्याय विरोधी पार्टियाँ है तो ताड़ से गिरे और खजूर पर अटके वाली बात से भी दलित समाज सतर्क दिख रहा है. गुजरात में दलितों के जनाक्रोश से भारत भर के दलित-आदिवासी समाज को सीख लेना चाहिये कि किसी पार्टी व नेता से नहीं गैर-राजनीतिक आंदोलन में भी दम है जिसके बूते आप एजेंडा सेटिंग कर सकते हैं. फिर सभी दलों के नेता आपकी ओर दौड़ेंगे जैसे कि राहुल गाँधी, केजरीवाल, मायावती भी उना गईं. अगर किसी समुदाय में वैचारिक-बौद्धिक बुनियाद पर एकजुट होकर आन्दोलन करने का जज्बा है तो किसी भी सरकार और नेताओं के आगे-पीछे घूमने की जरूरत नहीं है. इससे साफ है कि दलित-आदिवासी समाज को किसी भी राजनीतिक दल के दलदल में न फँस कर और किसी भी वर्तमान नेता (दलित-आदिवासी नेताओं सहित) का पिछलग्गू न बन कर अपने भविष्य के लिये नया नेतृत्व तैयार करना चाहिये.
भारत, खासतौर से उत्तर भारत में बहुजन समाज की दिक्कत है कि सारी गतिविधियाँ राजनीति घेरेबंदी और गिरोहबंदी की शिकार हो गयी हैं जिसके कारण जनता का हर सवाल राजनीतिक दलों के समर्थन की बाट जोहता है और लोग राजनेताओं के वरदहस्त होने के मोहताज दिखते हैं. यह भी है कि नॉन- पॉलिटिकल सोशल मूवमेंट और इनिशियेटिव का सरकार, उसके सिपहसलार व मुलाजिम लोग बहुत नोटिस या तवज्जो नहीं देते हैं. इन कारणों से छात्र-युवा जो आंदोलन करते हैं वे भी संवाद-सेमिनार वगैरह रचनात्मक गतिविधियों की बजाय सड़क पर उतरने को मजबूर है और हंगामा खड़ा करने को उतावला भी दिखाई देते हैं. इन दिनों अक्सर आंदोलन को धरना-प्रदर्शन-भूख हड़ताल कर लम्बा खींचने की बजाय झड़प-विवाद-पत्थरबाजी में संलग्न होकर वन-डे वंडर की तर्ज पर अपनी माँगे मंगवाने की कोशिश में भी रहते हैं. छात्र-युवाओं के लिये चिंता की बात है कि राजनीति से वैचारिक-बौद्धिक संवाद एवं ट्रेनिंग-ग्रूमिंग का कल्चर अब खत्म हो गया है तो उनका आमतौर पर बिहेवियर पैटर्न संयम की बजाय आक्रमकता में जल्दी तब्दील होती दिखती है. नेता भी बहुत भरोसे के काबिल नहीं है क्योंकि वे दलाल- ठेकेदार व चाटुकार- चापलूस छोड़ दे तो छात्र- युवाओं से संवाद- विमर्श का रिश्ता नहीं बना पाते है और उनको महज भीड़ का हिस्सा समझते हैं. इन नेताओं में रोल-मॉडल की कमी है और धन अर्जित करना, सत्ता में किसी तरह बने रहना व परिवारवाद को बढ़ाना ही मुख्य मकसद दिखाई देता है. ऐसे में एक प्रकार का नैतिक-वैचारिक-बौद्धिक संकट भी है जिससे समाज गुजर रहा है जिसका भुक्तभोगी एससी- एसटी-ओबीसी समाज खासतौर से है.
बिहार की सरकार ने जिस तरीके से कोर्ट की आड़ में एससी-एसटी प्रोमोशन मुद्दे पर चुप्पी साधकर मुँह छुपा लिया है वह गजब है. जबकि होना तो यह चाहिये था कि एससी-एसटी प्रोमोशन के मुद्दे पर सरकार समर्थन में कोर्ट की मजबूरी के बावजूद खुलकर नैतिक तौर पर मुखर होती और साथ ही ओबीसी के प्रोमोशन में आरक्षण के सवाल पर भी आक्रमक होती. लेकिन नवम्बर, 2015 में बहुजन जातियों का बड़ा समर्थन लेने के बावजूद भी बिहार की नई सरकार चुप रहकर सवर्णों के प्रति स्ट्रैटेजिकली सॉफ्ट होने की नीति पर काम करती दिख रही है. दलित-आदिवासी समुदाय को समस्त सत्ता केंद्रों-संसाधनों और सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक क्षेत्रों के सभी स्तरों पर कमोबेश 25 फीसदी भागीदारी मुहैया कराना भारत के सभी राज्यों की सरकारों का मूल कर्तव्य होना चाहिये. इसी तरह समस्त बहुजन (एससी-एसटी- ओबीसी-पसमांदा) समुदाय के 85 फीसदी आवाम के लिये विशेष अवसर मुहैया कराना, उचित-त्वरित न्याय, सर्वांगीण विकास और समुचित भागीदारी का सवाल भी सरकारों के लिये भी बहुत जरूरी है.
निखिल आनंद एक सबल्टर्न पत्रकार और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता हैं. उनसे nikhil.anand20@gmail.com और 09939822007 पर संपर्क किया जा सकता है.
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